ऋषियोंने पूछा— सूतजी ! महर्षि कौशिकके' वे पुत्र | किस प्रकार उत्तम योगको प्राप्त हुए तथा पाँच ही बार जन्म ग्रहण करनेसे उनके अशुभ कर्मोंका विनाश कैसे हुआ ? ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! कुरुक्षेत्रमें कौशिक नामक एक धर्मात्मा महर्षि थे। उनके सात पुत्र थे। (उन पुत्रोंके वृत्तान्त) नाम एवं कर्मानुसार बतला रहा हूँ, सुनिये। उनके स्वसृप, क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, कवि, वाग्दुष्ट और पितृवर्ती—ये नाम थे। पिताकी मृत्युके | पश्चात् वे सभी महर्षि गर्गके शिष्य हुए। उस समय समस्त लोकोंको भयभीत करनेवाली महती अनावृष्टि हुई, जिसके कारण भीषण अकाल पड़ गया। इसी बीच वे सभी तपस्वी अपने गुरु गर्गाचार्यकी आज्ञासे उनकी सेवामें लग गये। वहाँ वनमें वे सभी भूखसे अत्यन्त पीड़ित हो गये। जब क्षुधा शान्तिका कोई अन्य उपाय न सुझा, तब छोटे भाई पितृवतीने श्राद्ध कर्म करने की सम्मति दी। बड़े भाइयोंद्वारा 'अच्छा, ऐसा ही करो' ऐसी आज्ञा पाकर पितृवर्तीने समाहित-चित्त होकर श्राद्धका उपक्रम आरम्भ किया। उस समय उसने छोटे बड़ेके क्रमसे दो भाइयोंको देवकार्यमें, तीनको पितृकार्यमें और एकको अतिथिरूपमें नियुक्त किया तथा स्वयं श्राद्धकर्ता बन गया। इस प्रकार पितृपरायण पितृवर्तीने पितरोंका स्मरण करते हुए मन्त्रोच्चारणपूर्वक श्राद्धकार्य सम्पन्न किया। कालक्रमानुसार मृत्युके उपरान्त श्राद्धवैगुण्यरूप कर्मदोषसे वे सभी दाशपुर (मन्दसौर) नामक नगरमें बहेलिया होकर उत्पन्न हुए, किंतु पितृ कृत्य से भावित होनेके कारण उन्हें पूर्वजन्मके | वृत्तान्तोंका स्मरण बना रहा। पूर्वजन्मके कर्मों के परिणाम स्वरूप वे क्रूरकर्मी बहेलियोंके घरमें पैदा तो हुए,परंतु पितरोंके ही माहात्म्यसे वे सभी जातिस्मर (पूर्वजन्मके वृत्तान्तोंके ज्ञाता) बने ही रहे। पुनः श्राद्ध कर्मके फलसे वैराग्य उत्पन्न हो जानेके कारण उन सभीने अनशन करके अपने-अपने उस शरीरका त्याग कर दिया। तदनन्तर वे सातों कालञ्जर पर्वतपर भगवान् नीलकण्ठके समक्ष मृग योनिमें उत्पन्न हुए। वहाँ भी पितरोंके स्नेहसे अनुभावित होनेके कारण वे जातिस्मर बने ही रहे। उस योनिमें भी ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो जानेके कारण उन लोगोंने तीर्थ स्थानमें अनशन करके लोगोंके देखते-देखते धर्मपूर्वक प्राणोंका उत्सर्ग कर दिया। तत्पश्चात् उन सातों योगाभ्यासी जनोंने मानसरोवरमें चक्रवाककी योनिमें जन्म धारण किया द्विजवरो अब आपलोग नाम एवं कर्मानुसार उन सभीका वृत्तान्त श्रवण कीजिये। इस योनिमें उनके नाम सुमना, कुमुद, शुद्ध, छिद्रदर्शी, सुनेत्रक, सुनेत्र और अंशुमान्। ये सातों योगके पारदर्शी थे। इनमेंसे अल्पबुद्धिवाले तीन तो योगसे भ्रष्ट हो गये और इधर-उधर भ्रमण करने लगे। उसी समय एक पाञ्चालवंशी नरेश, जो महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न था तथा जिसके पास अधिक-से अधिक सेना और वाहन थे, अपने क्रीडोद्यानमें स्त्रियोंके साथ अनेकविध हाव-भावोंसे क्रीडा कर रहा था। उस शोभाशाली राजाको देखकर उन जलपक्षियोंमेंसे एकको, जो पितृभक्त श्राद्धकर्ता पितृवर्ती नामक ब्राह्मण था, राज्य प्राप्तिकी आकाङ्क्षा उत्पन्न हो गयी। इसी प्रकार दूसरे दोनोंने राजाके दो मन्त्रियोंको प्रचुर सेना और वाहनोंसे युक्त | देखकर इस मृत्युलोकमें मन्त्रि-पद प्राप्त करनेकी इच्छा व्यक्त की द्विजवरी। उनमें जो चार निष्काम थे, वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणकुलमें पैदा हुए उन तीनोंमेंसे पहला राजा विभ्राजके' पुत्ररूपमें ब्रह्मदत्त नामसे विख्यात हुआ तथा अन्य दो कण्डरीक और सुबालक नामसे मन्त्रीके पुत्र हुए। (राजा विभाजकी मृत्युके उपरान्त) विद्वान् पुरोहितने ब्रह्मदत्तको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। वह पाञ्चाल नरेश ब्रह्मदत्त प्रबल पराक्रमी, सभी शास्त्रोंमें प्रवीण, योगज्ञ और सभी जन्तुओंकी बोलीका ज्ञाता था। देवलकी सुन्दरी कन्या, जो संगति नामसे विख्यात थी, राजा ब्रह्मदत्तकी पत्नी हुई। वह ब्रह्मवादिनी थी उस पत्नी के साथ रहकर राजकुमार ब्रह्मदत्त राज्यभार सँभालने लगा ॥ 227॥
एक बार राजा ब्रह्मदत्त अपनी पत्नी संनतिके साथ भ्रमण करनेके लिये उद्यानमें गया। वहाँ उसने काम-कलहसे व्याकुल एक कीट-दम्पति (चींटा-चींटी) को देखा वह कीट, जिसका शरीर कामदेवके बाणोंसे संतप्त हो उठा था, चारों ओरसे चोटोंसे । अनुनय-विनय करता हुआ गद्गद वाणीमें बोला'प्रिये! इस जगत्में तुम्हारे समान सुन्दरी स्त्री कहीं कोई भी नहीं है। तुम्हारा कटिप्रदेश पतला और जंघे मोटे हैं, तुम स्तनोंके भारी भारसे विनम्र होकर चलनेवाली, स्वर्णके समान गौरवर्णा, सुन्दर कमरवाली, मृदुभाषिणी, मनोहर हास्यसे युक्त, भलीभाँति लक्ष्यको भेदन करनेवाले नेत्रों और जीभसे समन्वित तथा गुड़ और शक्करकी प्रेमी हो । तुम मेरे भोजन कर लेनेके पश्चात् भोजन करती हो तथा मेरे स्नान कर लेनेपर स्नान करती हो। इसी प्रकार मेरे परदेश चले जानेपर तुम दीन हो जाती हो और क्रुद्ध होनेपर भयभीत हो उठती हो। कल्याणि ! बतलाओ तो सही, तुम किस कारण क्रोधसे मुँह फुलाये बैठी हो ।' तब क्रोधसे भरी हुई चींटी उस कीटसे बोली- 'शठ ! तुम क्या मुझसे व्यर्थ बकवाद कर रहे हो? अरे धूर्त! अभी कल ही तुमने मेरा परित्याग करके लड्डूका चूर्ण ले जाकर दूसरी चींटीको नहीं दिया है ? ' ॥ 28-34 ॥
चींटा बोला- वरवर्णिनि तुम्हारे सदृश रूप-रंगवाली होनेके कारण मैंने भूलसे दूसरी चींटीको लड्डू दे दिया है, अतः भामिनि ! तुम मेरे इस एक अपराधको क्षमा कर दो। सुव्रते ! मैं पुनः कभी भी इस प्रकारका कार्य नहीं करूँगा। मैं सत्यकी दुहाई देकर तुम्हारे चरण छूता हूँ, तुम मुझ विनीतपर प्रसन्न हो जाओ ॥ 35-36 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार उस चींटेका कथन सुनकर वह चींटी प्रसन्न हो गयी। इधर, चक्रपाणि भगवान् विष्णुकी कृपासे समस्त प्राणियोंकी बोलीका ज्ञाता होनेके कारण ब्रह्मदत्त भी उस सारे वृत्तान्तको जानकर विस्मयविमुग्ध हो गये ॥ 37-38 ।।