मत्स्यभगवान् ने कहा- रविनन्दन! तदनन्तर सत्त्वमूर्ति योगी नारायण सूर्यका रूप धारण कर अपनी उद्दीप्त किरणोंसे सागरोंको सोख लेते हैं। इस प्रकार नदियों, कुओं और पर्वतोंका सारा जल खींच लेते हैं। सभी सागरोंको सुखा देनेके पश्चात् अपनी किरणोंद्वारा फिर वे किरणोंद्वारा पृथ्वीका भेदन करके रसातलमें जा पहुँचते हैं और वहाँ पातालके उत्तम रसरूप जलका पान करते हैं। तत्पश्चात् कमलनयन पुरुषोत्तम नारायण प्राणियकि - शरीरमें निश्चितरूपसे रहनेवाले मूत्र, रक्त, मज्जा तथा अन्य जो गीले पदार्थ होते हैं, उन सबके रसको ग्रहण कर लेते हैं। तदुपरान्त भगवान् श्रीहरि वायुरूप होकर सम्पूर्ण जगत्को प्रकम्पित करते हुए प्राण, अपान, समान, उदान और व्यानरूप पाँचों प्राणवायुओंको खींच लेते हैं। तदनन्तर सभी देवगण, पाँचों महाभूत, गन्ध, प्राण, शरीर ये सभी गुण पृथ्वीमें विलीन हो जाते हैं। जिह्वा, रस, स्नेह | (चिकनाहट ) - ये सभी गुण जलमें लीन हो जाते हैं। रूप, चक्षु, विपाक (परिणाम) – ये गुण अग्निमें मिल जाते हैं। स्पर्श, प्राण, चेष्टा- ये सभी गुण वायुका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं। शब्द, श्रोत्र, इन्द्रियाँ ये सभी गुण आकाश में विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार भगवान् नारायण दो हो घड़ीमें सारी लोकमायाको विनष्ट कर देते हैं ॥ 183॥ तदनन्तर जो सभी प्राणियोंका मन, बुद्धि और क्षेत्रज्ञ कहा जाता है, वह अग्नि उन सर्वश्रेष्ठ हृषीकेशके निकट पहुँचता है और उन भगवान्की किरणोंसे युक्त हो वायुद्वारा आक्रान्त वृक्षोंकी शाखाओंका आश्रय ग्रहण करता है। वहाँ वृक्षोंके संघर्षसे उत्पन्न हुई वह अग्नि सैकड़ों ज्वालाएँ फेंकने लगती है। फिर उससे घिरा हुआ संवर्तक अग्नि सबको जलाना आरम्भ करती है। वह पर्वतीय वृक्षोंसहित गुल्मों, लताओं, वल्लियों, घास-फूसों, दिव्य विमानों, अनेकों नगरों तथा अन्यान्य जो आश्रय लेनेयोग्य स्थान होते हैं, उन सबको जलाकर भस्म कर देती है। इस प्रकार लोकोंके गुरुस्वरूप श्रीहरि समस्त लोकोंको जलाकर पुनः | युगान्तकालिक कर्मद्वारा समूची सृष्टिका विनाश कर देतेहैं। तदुपरान्त महाबली विष्णु सैकड़ों-हजारों प्रकारकी वृष्टिका रूप धारण कर दिव्य जलरूपी हविसे पृथ्वीको तृप्त कर देते हैं। तब उस दूध-सदृश स्वादिष्ट कल्याणकारक पुण्यमय उत्तम जलसे पृथ्वी परम शान्त हो जाती है। बरसते हुए जलके उस घेरेसे आच्छादित हुई पृथ्वी समस्त प्राणियोंसे रहित हो एकार्णवके जलके रूपमें परिणत हो जाती है ।। 9-17 ॥
उस समय सूर्य, वायु और आकाशके नष्ट हो जानेपर तथा सूक्ष्म जगत्के आच्छादित हो जानेपर महान् से महान् जीव-जन्तु भी अमित ओजस्वी एवं सर्वव्यापी नारायणमें प्रविष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वे सनातन भगवान् स्वयं अपने द्वारा समुद्रोंको सुखाकर, देहधारियोंको जलाकर तथा पृथ्वीको जलमें निमग्न करके अकेले शयन करते हैं। अमित पराक्रमी, एकार्णवके जलमें व्यास रहनेवाले एवं योगबलसम्पन्न नारायण योगका आश्रय ले उस एकार्णवके जलमें अपना पुराना रूप धारण कर अनेकों हजार युगोंतक शयन करते हैं। उस समय कोई भी इन अव्यक्त नारायणको व्यक्तरूपसे नहीं जान सकता। वह पुरुष कौन है? उसका क्या योग है? वह किस योगसे युक्त है? वे सामर्थ्यशाली भगवान् कितने समयतक इस एकार्णवके विधानको करेंगे? इसे कोई नहीं जानता। उस समय न कोई उन्हें देख सकता है, न कोई वहाँ जा सकता है, न कोई उन्हें जान सकता है और न कोई उनके निकट पहुँच सकता है। उन देवश्रेष्ठके अतिरिक्त दूसरा कोई भी उनके विषयमें कुछ भी नहीं जान सकता। इस प्रकार आकाश, पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, प्रजापति, पर्वत, सुरेश्वर, पितामह ब्रह्मा, वेदसमूह और महर्षि—इन सबको प्रशान्त कर वे पुनः शयनकी इच्छा करते हैं॥ 18-24 ॥