ऋषियोंने पूछा- सूतजी सुना जाता है कि पूर्वकालमें बहुत-से भूपाल इस पृथ्वीका उपभोग कर चुके हैं। पृथ्वीके सम्बन्धसे ही वे 'पार्थिव' या पृथ्वीपति कहे गये हैं, परंतु भूमिका 'पृथ्वी' यह पारिभाषिक नाम किस सम्बन्धसे तथा किस कारण पड़ा एवं यह 'गौ' नामसे क्यों विख्यात हुई ? इनका रहस्य हमें बतलाइये ॥ 1-2 ॥
सूतजी कहते हैं—ऋषियो ! प्राचीनकालमें स्वायम्भुव मनुके वंशमें अङ्ग नामक एक प्रजापति हुए थे। उन्होंने मृत्युकी कन्या सुनीथाके साथ विवाह किया। सुनीथाका मुख बड़ा कुरूप था। उसके गर्भसे वेन नामक एक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ, जो आगे चलकर चक्रवती सम्राट् हुआ; किंतु वह सदा अधर्ममें ही निरत रहता था। परायी स्त्रियोंका अपहरण उसका नित्यका काम था। इस प्रकार वह लोकमें भी अधर्मका ही प्रचार करने लगा। तब महर्षियोंने जागतिक धर्माचरणकी सिद्धिके लिये उससे (बड़ी) अनुनय-विनय की; परंतु अन्तःकरण अशुद्ध होनेके कारण जब उसने उनकी बात न मानी (प्रजाको अभय नहीं किया), तब महर्षियोंने उसे शाप देकर मार डाला। तत्पश्चात् (शासकहीन राज्यमें) अराजकताके भयसे भीत होकर उन निष्प ब्राह्मणोंने बलपूर्वक बेनके शरीरका मन्थन किया। मन्थन करनेपर उसके शरीरसे शरीरस्थित माताके अंशसे म्लेच्छ जातियाँ प्रकट हुईं, जिनका रंग काले अञ्जनका सा था। (फिर) उसके शरीरस्थित धर्मपरायण पिता (अङ्ग) के अंशभूत दाहिने हाथसे एक धार्मिक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका शरीर दिव्य तेजसे सम्पन्न था। वह रत्नजटित कवच और बाजूबंदसे विभूषित था, उसके हाथोंमें धनुष-बाण और गदा शोभा पा रहे थे। महान् प्रयत्नसे मधे जानेपर वह वेनकी पृथु (मोटी) भुजासे प्रकट हुआ था, अतः पृथु नामसे प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि ब्राह्मणोंने उसे (पिताके राज्यपर) अभिषिक्त कर दिया था, तथापि उसने परम दारुण तपस्या करके विष्णु भगवान्को प्रसन्न किया और उनके वरदानके प्रभावसे (चराचर लोकको जीतकर) पुन: स्वयं भी समस्त भूमण्डलकी अध्यक्षता प्राप्त की। तदनन्तर अमित पराक्रमी पृथु भूतलको स्वाध्याय, वषट्कार और धर्मसे विहीन देखकरक्रुद्ध हो उठे और धनुषपर बाण चढ़ाकर उसे भस्म कर देनेके लिये उद्यत हो गये। यह देखकर भूमि ( भयभीत होकर) गौका रूप धारणकर भाग चली। इधर प्रचण्ड धनुर्धर पृथु भी उसके पीछे दौड़ पड़े। (इस प्रकार पृथुको पीछा करते देख वह गौरूपा भूमि हताश होकर) एक स्थानपर खड़ी हो गयी और बोली ' ( नाथ! आपकी प्रसन्नताके लिये) मैं क्या करूँ?' तब पृथुने ऐसी बात कही 'सुखते। तुम शीघ्र ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को मनोवाञ्छित वस्तुएँ प्रदान करो।' यह सुनकर पृथ्वी बोली-'अच्छा, ऐसा ही होगा।' (इस प्रकार पृथ्वीकी अनुमति जानकर ) उन नरेश्वर पृथुने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर अपनी हथेलीमें गौरूपा पृथ्वीका दोहन किया। वह दुहा हुआ पदार्थ शुद्ध अन्न हुआ, जिससे प्रजाका जीवन-निर्वाह होता है ।। 3-15 1-2 ॥
(फिर क्या था? अब तो दोहनको शृङ्खला ही चल पड़ी) पुनः ऋषियोंने भी उस पृथ्वीको दुहा। उस समय चन्द्रमा बछड़ा, दुहनेवाले महर्षि बृहस्पति, पात्र वेद और दुहा | गया पदार्थ तप हुआ। देवताओंने भी पृथ्वीका दोहन किया। उस समय दुहनेवाले मित्र (देवता), इन्द्र बछड़ा तथा क्षीर (दुहा गया रस) ऊर्जस्वी बल हुआ। उस दोहनमें देवताओंका | पात्र स्वर्णमय था। अन्तकने भी पृथ्वीका दोहन किया, उसमें यमराज बछड़ा बने और स्वधा रस था। पितरोंका पात्र रजतमय था। नागोंके दोहनमें नागराज धृतराष्ट्र दुहनेवाले, नागराज तक्षक बछड़ा, पात्र तुम्बी और क्षीर- दुहा हुआ पदार्थ-विष था। असुरोंद्वारा भी इस पृथ्वीका दोहन किया गया था। उन्होंने लौहमय पात्रमें इन्द्रको पीड़ित करनेवाली मायाको दुहा। उस कार्य में प्रह्लाद पुत्र विरोचन बछड़ा और | मायाका प्रवर्तक द्विमूर्धा दुहनेवाला था महीपते। यक्षोंको अन्तर्धान-विद्याकी अभिलाषा थी, अतः उन्होंने कुबेरको बछड़ा बनाकर कच्चे पात्रमें पृथ्वीका दोहन किया था। प्रेतों और राक्षसोंने पृथ्वीसे भयंकर रुधिरकी धाराका दोहन किया उसमें रौप्यनाभ नामक प्रेत दुहनेवाला और सुमाली नामक प्रेत बछड़ा बना था। अप्सराओंके साथ गन्धवने भी पूर्वकालमें चैत्ररथको बछड़ा बनाकर | कमलके पत्तेमें पृथ्वीसे सुगन्धोंका दोहन किया था;उस कार्यमें नाट्य वेदका पारगामी विद्वान् वररुचि नामक गन्धर्व दुहनेवाला था। पर्वतोंने पृथ्वीसे अनेक प्रकारके रखों और दिव्य औषधियोंका दोहन किया। उसमें महाचल सुमेरु दुहनेवाला, हिमवान् बछड़ा और पात्र शैलमय था। वृक्षोंने | पृथ्वीसे पलाशपत्रके पात्रमें (टहनी आदिके) कटनेके बाद पुन: उगनेवाला दूध दुहा। उस समय पुष्प और लताओंसे लदा हुआ शालवृक्ष दुहनेवाला था और समृद्धिशाली एवं सर्ववृक्षमय पाकड़का वृक्ष बछड़ा बना था। इसी प्रकार अन्यान्य वर्गके प्राणियोंने भी उस समय अपने-अपने || इच्छानुसार पृथ्वीका दोहन किया था ll 16-28 ।।
महाराज पृथुके राज्यमें प्रजा दीर्घायु, धन-धान्य एवं सुख समृद्धिसे सम्पन्न थी। उस समय न कोई दरिद्र था, न रोगी और न कोई पाप कर्म ही करता था। महाराज पृथुके शासनकालमें किसी उपसर्ग (आधिदैविक एवं आधिभौतिक उपद्रव) का भय नहीं था। लोग दुःख शोकसे रहित होकर सदा सुखमय जीवन-यापन करते थे उन महाबली पृथुने प्रजाओंकी हितकामनासे प्रेरित | होकर अपने धनुषकी कोटिसे बड़े-बड़े पर्वतोंको उखाड़कर पृथ्वी के धरातलको समतल कर दिया था। पृथुके राज्यकालमें न तो पुर, ग्राम और दुर्ग थे, न मनुष्य अस्त्र शस्त्र धारण करते थे। (उस समय आत्मरक्षाके लिये इनकी कोई आवश्यकता न थी।) रोगोंका सर्वथा अभाव था। क्षय-विनाश एवं सातिशयता- परस्परकी विषमताका दुःख उन्हें नहीं देखना पड़ता था। प्रजाओंमें अर्थशास्त्रके प्रति आदर नहीं था, अर्थात् लोभका चिमात्र भी नहीं था। उनमें एकमात्र धर्मकी ही वासना थी। ऋषियो! इस प्रकार मैंने आपसे पृथ्वी के दोहनपात्रोंका तथा जैसा जैसा दूध दुहा गया था, उसका भी वर्णन किया। उनमें जिस वर्णके प्राणियोंकी जिस पदार्थको प्राप्तिको रुचि हो, उसे वही पदार्थ यज्ञों और श्राद्धों में अर्पित करना चाहिये। इस प्रकार यह पृथ्वी दोहनका प्रसङ्ग मैंने तुम्हें सुना दिया। यतः पृथ्वी धर्मात्मा पृथुकी कन्या बन चुकी थी, अतः पृथुके अतिशय अनुरागके कारण विद्वानोंद्वारा 'पृथ्वी' नामसे कही जाने लगी ॥ 29-35 ॥