नारदजीने पूछा-भूत और भविष्य के स्वामी भगवन्! इनके अतिरिक्त भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेमें समर्थ यदि कोई अन्य व्रत सुना गया हो तो उसे पुनः कहनेकी कृपा करें। ऐसा पूछे जानेपर भगवान् शम्भुने कहा— 'ब्रह्मन् ! यह नन्दी शब्दशास्त्रका पारगामी विद्वान् और तपस्या तथा पुराणों एवं श्रुतियोंकी विस्तृत जानकारीमें मेरे समान है। यह वृपरूपसे साक्षात् धर्म और गणका अधीश्वर है। नारद! अब यही इससे आगे माहेश्वर- धर्मोका वर्णन करेगा ll 1-3 ॥
मत्स्यभगवान् ने कहा- ऐसा कहकर देवाधिदेव शम्भु वहीं अन्तर्हित हो गये। तब श्रवण करनेको उत्कट इच्छावाले नारदने नन्दिकेश्वरसे पूछा—'नन्दी! शिवजीने आपको इसके लिये जैसा आदेश दिया है, आप उस प्रकार माहेश्वर-व्रतका वर्णन कीजिये ॥ 4 ॥
नन्दिकेश्वर बोले- ब्रह्मन्! मैं माहेश्वर-व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, आप समाहितचित्तसे श्रवण कीजिये। वह व्रत तीनों लोकोंमें शिवचतुर्दशीके नामसे विख्यात है। (इस व्रतके आरम्भमें) व्रती मानव मार्गशीर्षमासके शुक्लपक्षको त्रयोदशी तिथिको एक बार भोजन कर देवाधिदेव शंकरजीसे इस प्रकार प्रार्थना करे- 'भगवन्! मैं आपके शरणागत हूँ। में चतुर्दशी तिथिको निराहार रहकर भगवान् शंकरको भलीभाँति अर्चना करनेके पश्चात् स्वर्ण-निर्मित वृषभका दान करके दूसरे दिन भोजन करूंगा।' इस प्रकारका नियम ग्रहण कर रात्रिमें शयन करे। प्रातः काल उठकर स्नान-जप आदि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर सुन्दर कमल-पुष्पों, सुगन्धित पुष्पमालाओं और चन्दन आदिसे पार्वतीसहित शंकरजीकी वक्ष्यमाण रोतिसे पूजा करे- 'शिवाय नमः' से दोनों चरणोंका, 'सर्वात्मने नमः' से सिरका, 'त्रिनेत्राय नमः ' से नेत्रोंका, 'हरये नमः 'से ललाटका, 'इन्दुमुखाय नमः ' से मुखका, 'श्रीकण्ठाय नमः' से कंधोंका, 'सद्योजाताय नमः ' से कानोंका "बामदेवाय नमः' से भुजाओंका और 'अघोरहृदयाय नमः 'से हृदयका पूजन करे। 'तत्पुरुषाय नमः' से स्तनोंकी, 'ईशानाय नमः' से उदरकी,'अनन्तधर्माय नमः' से दोनों पार्श्वभागोंकी, 'ज्ञानभूताय नमः' से कटिकी और 'अनन्तवैराग्यसिंहाय नमः' से ऊरुओंकी अर्चना करे। बुद्धिमान् व्रतीको 'अनन्तैश्वर्यनाथाय नमः' से जानुओंका, 'प्रधानाय नमः' से जङ्घाओंका और 'व्योमात्मने नमः ' से गुल्फोंका पूजन करना चाहिये। फिर 'व्योमकेशात्मरूपाय नमः' से बालों और पीठको अर्थना करे 'पुष्टयै नमः' एवं 'तुम्ही नमः 'से पार्वतीका भी पूजन करे तत्पश्चात् जलपूर्ण कलशसहित, श्वेत पुष्पमाला और वस्त्रसे सुशोभित, पञ्चरत्त्रयुक्त स्वर्णमय वृषभको नाना प्रकारके खाद्य पदार्थोंके साथ ब्राह्मणको दान कर दे और यों प्रार्थना करे—'पिनाकधारी देवाधिदेव सद्योजात मेरे व्रतमें प्रसन्न हों।' तदनन्तर माङ्गलिक ब्राह्मणोंको बुलाकर उन्हें भक्तिपूर्वक भोजन एवं दक्षिणा आदि "देकर तृप्त करे और स्वयं दधिमिश्रित घी खाकर रात्रिमें उत्तराभिमुख हो भूमिपर शयन करे। पूर्णिमा तिथिको प्रातः काल उठकर ब्राह्मणोंकी पूजा करनेके पश्चात् मौन होकर भोजन करे। उसी प्रकार कृष्णपक्षको चतुर्दशीमें भी यह सारा कार्य सम्पन्न करना चाहिये ॥ 5- 17 ॥ इसी प्रकार सभी चतुर्दशी तिथियोंमें पूर्ववत् शिवपार्वतीका पूजन करना चाहिये। अब प्रत्येक मासमें जो विशेषताएँ हैं, उन्हें क्रमश: (बतला रहा हूँ,) सुनिये। मार्गशीर्ष आदि प्रत्येक मासमें क्रमश: इन मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये- 'शंकराय नमस्तेऽस्तु' आप शंकरके | लिये मेरा नमस्कार प्राप्त हो। 'नमस्ते करवीरक' करवीरक! आपको नमस्कार है। 'त्र्यम्बकाय नमस्तेऽस्तु' -आप त्र्यम्बकके लिये प्रणाम है। इसके बाद 'महेश्वराय नमः महेश्वरको अभिवादन है। 'महादेव नमस्तेऽस्तु'- महादेव !! आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो। उसके बाद 'स्थाणवे नमः - स्थाणुको प्रणाम है। 'पशुपतये नमः - पशुपतिको अभिवादन है। 'नाथ नमस्ते'- नाथ! आपको नमस्कार है। पुनः 'शम्भवे नमः -शम्भुको प्रणाम है। 'परमानन्द नमस्ते - परमानन्द! आपको अभिवादन है। 'सोमार्धधारिणे नमः - ललाटमें अर्धचन्द्र धारण करनेवालेको नमस्कार है। 'भीमाय नमः'- भयंकर रूपधारीको प्रणाम है। ऐसा कहकर अन्तमें कहे कि 'मैं आपके शरणागत हूँ।' प्रत्येक मासकी दोनों चतुर्दशी तिथियोंमें गोमूत्र, गोवर, दूध, दही, भी, कुशोदक, पञ्चगव्य, बेल, कर्पूर, अगुरु यव और काला तिल-इनमेंसे क्रमश: एक-एक पदार्थका प्राशन बतलाया गया है। इसी प्रकार प्रत्येक मासकी दोनोंचतुर्दशी तिथियों मन्दार (परिभद्र), मालती, धतूरा, सिन्दुवार अशोक, मल्लिका, पाटल (पाँढर पुष्प या लाल गुलाब), मन्दारपुष्प (सूर्यमुखी), कदम्ब, शतपत्री (श्वेत कमल या गुलाब) और कमल- इनमें से क्रमश: एक-एकके द्वारा पार्वतीपति शंकरकी अर्चना करनी चाहिये ॥ 18-25 ॥ पुनः कार्तिकमास आनेपर अन्न, नाना प्रकारके खाद्य पदार्थ, वस्त्र, पुष्पमाला और आभूषणोंसे ब्राह्मणोंको पूर्णरूपसे तुम करे। व्रती मनुष्यको वेदोक्त विधिके अनुसार नील वृषका भी उत्सर्ग करनेका विधान है। तत्पश्चात् अगहनीके चावलसे परिपूर्ण ताँबेके पात्रपर स्वर्णनिर्मित उमा, महेश्वर और वृषभकी मूर्तिको स्थापित कर दे और उसके निकट आठ मोती रख दे, फिर उसे गौके साथ ब्राह्मणको दान कर दे। साथ ही दो श्वेत चादरोंसे आच्छादित तथा समस्त उपकरणोंसे युक्त घटसहित एक शय्या भी दान करनी चाहिये। यह दान ऐसे ब्राह्मणको देना चाहिये, जो शान्तस्वभाव, वेदव्रत-परायण और ज्येष्ठसामका ज्ञाता हो। बगुलाव्रती (कपटी) ब्राह्मणको कभी भी दान नहीं देना चाहिये। वस्तुतस्तु गुणज्ञ, वेदपाठी, तत्त्ववेत्ता, सुडौल अङ्गोंवाले, सौम्यस्वभाव, कल्याणकारक एवं सपत्नीक आचार्यकी वस्त्र, पुष्पमाला और आभूषण आदिसे भलीभाँति पूजा करके यह दान उन्हींको देना चाहिये। यदि गुरु (आचार्य) उस समय उपस्थित हों तो उन्हींको दान देनेका विधान है। उनकी अनुपस्थितिमें अन्य ब्राह्मणको दान दिया जा सकता है। इस दानमें कृपणता नहीं करनी चाहिये। यदि करता है तो उसके दोषसे कर्ताका अधःपतन हो जाता है ।। 26-32 ॥
जो मानव उपर्युक्त विधिके अनुसार इस शिवचतुर्दशी व्रतका अनुष्ठान करता है, उसे एक हजार अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। उसके द्वारा अथवा उसके पिता या भाईद्वारा इस जन्ममें अथवा जन्मान्तरमें जो कुछ ब्रह्महत्या आदि पाप घटित हुए रहते हैं, वे सभी नष्ट हो जाते हैं। इस लोकमें वह दीर्घायु, नीरोगता, कुल और अनकी समृद्धिसे युक्त होता है और मरणोपरान्त स्वर्गलोकमें चार भुजाधारी होकर गणाधिप हो जाता है हाँसौ करोड़ कल्पक | निवास कर शम्भु-पद- शिवलोकको चला जाता है।यदि मुखमें दस हजार करोड़ जिह्वाएँ हो जायँ तो भी इस चतुर्दशीके अनन्त फलका वर्णन करनेमें न तो बृहस्पति समर्थ हैं न इन्द्र, न ब्रह्मा समर्थ हैं न सिद्धगण तथा मैं भी इसका वर्णन नहीं कर सकता। जो मनुष्य मत्सररहित हो सम्पूर्ण पापोंसे विमुक्त करनेवाली इस शिवचतुर्दशीके माहात्म्यको सदा पढ़ता, स्मरण करता अथवा श्रवण करता है, उस पुण्यात्माका करोड़ों देवाङ्गनाएँ स्तवन करती हैं, फिर जो सदा इसका अनुष्ठान करता है, उसकी तो बात ही क्या है? स्त्री भी यदि अपने पति पुत्र और गुरुजनोंकी आज्ञा लेकर अत्यन्त भक्तिपूर्वक इस व्रतका अनुष्ठान करती है तो वह भी परमेश्वरकी कृपासे पिनाकपाणि भगवान् शंकरके परमपदको प्राप्त हो जाती है * ॥33-38 ॥