सावित्रीने कहा- देवश्रेष्ठ ! धर्मोपार्जनके कार्य में कैसी ग्लानि और कैसा कष्ट? आपके चरणमूलकी सेवा ही परम धर्मका कारण है। देव! ज्ञानी पुरुषको सर्वदा धर्मोपार्जन करना चाहिये; क्योंकि उसका लाभ सभी लाभोंसे विशेष महत्त्वपूर्ण है। प्रभो! धर्म, अर्थ और काम-ये तीनों एक साथ संसारमें जन्म लेनेके फल हैं; क्योंकि धर्महीन पुरुषके अर्थ और काम वन्ध्याके पुत्रकी भाँति निष्फल है। धर्मसे अर्थ और कामकी प्राप्ति होती है तथा धर्मसे ही दोनों लोक सिद्ध होते हैं। जहाँ-कहीं भी जानेवाले प्राणीके पीछे अकेले धर्म ही जाता है। अन्य सभी वस्तुएँ शरीरके साथ हो नष्ट हो जाती हैं। प्राणी अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। एक धर्म ही उसके पीछे पीछे जाता है, मित्र एवं भाई-बन्धु कोई भी साथ नहीं देता। कार्योंमें सफलता, सौभाग्य और सौन्दर्य आदि सब कुछ धर्मसे हो प्राप्त होते हैं। पुरुषान्तक! ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु, शिव, चन्द्रमा, यम, सूर्य, अग्नि, वायु, वरुण, वसुगण, अश्विनीकुमार एवं कुबेर आदि देवताओंक जो सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले लोक हैं, उन सबको मनुष्य धर्मके द्वारा ही प्राप्त करता है। मनुष्य मनोहर द्वीपों एवं सुखदायी वर्षोंको धर्मके द्वारा ही प्राप्त करते हैं। देवताओंके जो नन्दनादि मुख्य उद्यान हैं, वे भी मनुष्योंको पुण्यसे ही प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार स्वर्ग, विचित्र विमान और सुन्दर अप्सराएं पुण्यसे ही प्राप्त होती हैं ।। 1-10॥पुण्यशाली मनुष्योंके तेजस्वी शरीर पुण्यके ही फल हैं। राज्यकी प्राप्ति, राजाओंद्वारा सम्मान, अभीष्ट मनोरथोंकी सिद्धि तथा मुख्य संस्कार- ये सभी पुण्यके ही फल देखे जाते हैं। देवाध्यक्ष पुण्यवान् पुरुषोंके चंवर सुवर्ण तथा वैदूर्यके बने हुए इंडेवाले तथा सूर्यक सम्मान तेजोमय होते हैं। पूर्णिमाके चन्द्रमण्डलके समान कान्तिमान् एवं रत्नजटित से सुशोभित छत्र मनुष्यको पुण्य कर्मसे ही प्राप्त होता है। विजयको सूचना देनेवाले शङ्ख-स्वरों तथा मागध-बन्दियोंकी माङ्गलिक ध्वनियोंके साथ अभिषेक पात्रसहित श्रेष्ठ सिंहासनका प्राप्त होना पुण्यकर्मका ही फल है। उत्तम अन्न, जल, गीत, अनुचर, मालाएँ, चन्दन, रत्न तथा बहुमूल्य वस्त्र- ये सब पुण्यकर्मो के फल हैं। सुन्दरता और औदार्य गुणोंसे युक्त अतिशय मनोहर स्त्रियाँ और उच्च महलोंपर निवास शुभ कर्मियोंको प्राप्त होते हैं। देव! मस्तकपर स्वर्णकी घंटियोंसे युक्त चमर धारण करनेवाले घोड़े पुण्यकर्मसे ही मनुष्यको वहन करते हैं। चलते हुए पर्वतोंके समान, सुवर्णनिर्मित अम्बारीसे सुशोभित तथा चञ्चल पादविन्याससे युक्त हाथियोंकी सवारी पुण्यकर्मके प्रभावसे ही प्राप्त होती है। देव! सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले एवं सभी पापोंको दूर करनेवाले स्वर्गमें पुरुष सदा पुण्यकर्मो के प्रभावसे ही भक्ति प्राप्त करते हैं। उसकी प्राप्तिके उपाय हैं- यज्ञ, तप, दान, इन्द्रियनिग्रह, क्षमाशीलता, ब्रह्मचर्य, सत्य, शुभदायक तीर्थोकी यात्रा, स्वाध्याय सेवा, सत्पुरुषोंकी संगति, देवार्चन, गुरुजनोंकी शुश्रूषा, ब्राह्मणोंकी पूजा, इन्द्रियोंको वशमें रखना तथा मत्सररहित ब्रह्मचर्य। इसलिये विद्वान् पुरुषको सर्वदा धर्माचरण करना चाहिये; क्योंकि मृत्यु इसकी प्रतीक्षा नहीं करती कि इसने अपना कार्य पूरा किया अथवा नहीं। देव! मनुष्यको बाल्यावस्थासे ही धर्माचरण करना चाहिये क्योंकि यह जीवन नश्वर है। यह कौन जानता है कि आज किसकी मृत्यु हो जायगी। सुरोत्तम। इस जीवके देखते हुए भी मृत्यु सामने खड़ी रहती हैं, फिर भी वह मृत्युरहितकी भाँति आचरण करता है-यह महान् आश्चर्य है। युवककी अपेक्षा बालक और वृद्धकी अपेक्षा युवक अपनेको मृत्युसे दूर मानता है, किंतु मृत्युको गोदमें बैठा हुआ वृद्ध किसकी अपेक्षा करता है।इतनेपर भी जो मृत्युसे रक्षाके उपाय सोचते हैं, उनकी क्या गति होगी? प्राणधारियोंको इस जगत्में केवल मृत्युसे भय ही नहीं है, उनके लिये कहीं अभयस्थान भी नहीं है । तथापि पुण्यवान् सत्पुरुष सर्वदा निर्भय होकर संसारमें जीवित रहते हैं ॥ 11 - 27 ॥
यमराज बोले- विशालाक्षि ! तुम्हारी इन धर्मयुक्त बातोंसे मैं विशेष संतुष्ट हूँ, अतः तुम सत्यवान्के प्राणोंके अतिरिक्त अन्य वर माँग लो, देर मत करो ॥ 28 ॥
सावित्रीने कहा- देव! मैं आपसे अपनी कोखसे उत्पन्न होनेवाले सौ पुत्रोंका वरदान माँगती हूँ; क्योंकि लोकोंमें पुत्रहीनकी सद्गति नहीं होती ॥ 29 ॥
यमराज बोले- भद्रे ! अब तुम शेष अभीष्ट कामनाको छोड़कर लौट जाओ, तुम्हारी यह याचना भी सफल होगी। इस प्रकार तुम्हारे अनुगमनसे मेरे कार्यों में विघ्न होगा और तुम्हें भी कष्ट होगा, इसीलिये मैं तुमसे | इस समय ऐसा कह रहा हूँ ॥ 30 ॥