मत्स्यभगवान्ने कहा— राजन्! लकड़ी काटते हुए
सत्यवान् के सिरमें पीड़ा उत्पन्न हुई, तब वे पीड़ासे व्याकुल हो पत्नीके पास आकर इस प्रकार कहने लगे- 'इस परिभ्रमसे मेरे सिरमें बहुत पीड़ा हो रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं अन्धकारमें प्रविष्ट हो रहा हूँ। मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा है। इस समय मैं तुम्हारी गोदमें सिर रखकर सोना चाहता हूँ।' राजन्! राजपुत्रीसे ऐसा कहकर सत्यवान् उस समय उसकी गोदमें सो गये। जब सावित्रीकी गोंदमें सिर रखकर सोते हुए सत्यवान्के नेत्र निद्रावश मुँद गये, तब उस पतिव्रता महाभागा राजपुत्री सावित्रीने उस स्थानपर आये हुए सामर्थ्यशाली स्वयं धर्मराजको देखा, जो नोले कमलके से श्यामवर्णसे सुशोभित और पीताम्बर धारण किये हुए थे। वे चमकती हुई बिजलियोंसे युक्त जलपूर्ण मेघ-जैसे दीख रहे थे तथा सूर्यके समान तेजस्वी मुकुट और दो कुण्डलोंसे सुशोभित थे। उनके वक्षःस्थलपर हार | लटक रहा था। वे बाजूबंद से विभूषित थे तथा उनके पीछे मृत्युसहित महाकाल भी था। धर्मराजने उस स्थानपर पहुँचकर उस समय सत्यवानके शरीरसे अंगूठेके परिमाणवाले | पुरुषको पाशमें बांधकर अपने अधीन किया और उसे खींचकर शीघ्रतापूर्वक दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान किया। तब आलस्यरहित हो सुन्दरी सावित्री पतिको प्राणरहित देखकर जाते हुए धर्मराजके पीछे-पीछे चली और काँपते हुए हृदयसे अञ्जलि बाँधकर धर्मराजसे बोली- 'माताकी भक्तिसे इस लोक, पिताकी भक्तिसे मध्यम लोक और गुरुकी शुश्रूषासे ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है। जो इन तीनोंका आदर करता है, उसने मानो सभी धर्मोका पालन कर लिया तथा जिसने इन तीनोंका आदर नहीं किया, उसकी सारी सत्क्रियाएँ निष्फल हो जाती है। जबतक ये तीनों जीवित रहें, तबतक किसी अन्य धर्मके पालनकी आवश्यकता नहीं है। उनके प्रिय एवं सुखके कार्योंमें तत्पर रहकर नित्य उनकी शुश्रूषा करनी चाहिये। उनकी यदि कभी परतन्त्रता भी स्वीकार करनी पड़े तो वह सब मन-वचन-कर्मद्वारा उन्हें निवेदित कर देना चाहिये। पुरुषके सारे कर्म माता, पिता और गुरु-इन्हीं तीनोंमें समाप्त हो जाते हैं ॥ 1-14 ॥यमराजने कहा- तुम हमसे जिस कामनाको पूर्ण करानेके लिये आ रही हो उस कामनाको छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ। सचमुच संसारमें माता-पिता तथा गुरुकी सेवासे बढ़कर कोई अन्य धर्म नहीं है। तुम्हारे इस प्रकार पीछे-पीछे आनेसे मेरे काममें विघ्न पड़ रहा है और तुम भी थकावटसे चूर हो रही हो। इसलिये मैं इस समय तुमसे ऐसा कह रहा हूँ। धर्मज्ञे! तुम्हारा पति सचमुच गुरुजनोंकी पूजामें प्रेम करनेवाला है और तुम भी पतिव्रता साध्वी हो। इस समय तुम्हें कष्ट हो रहा है, अतः तुम लौट जाओ ॥ 15-16 ॥
सावित्री बोली- स्त्रियोंका पति ही देवता है, पति ही उसको शरण देनेवाला है, इसलिये साध्वी स्त्रियोंको प्राणपति प्रियतमका अनुगमन करना चाहिये। पिता, भाई तथा पुत्र परिमित सम्पत्ति देनेवाले हैं, किंतु पति अपरिमित सम्पत्तिका दाता है। भला, ऐसे पतिकी कौन स्त्री पूजा नहीं करेगी। सुरोत्तम! आप मेरे पतिको जहाँ ले जा रहे हैं अथवा स्वयं जहाँ जा रहे हैं, वहीं मुझे भी यथाशक्ति जाना चाहिये। देव! मेरे प्राणपतिको ले जाते हुए आपके पीछे चलनेमें यदि मैं समर्थ न हो सकूँगी तो प्राणोंको त्याग दूंगी जो कोई मनस्विनी स्त्री वैधव्य धर्मसे दूषित | होकर मुहूर्तभर जीवित रहती है तो वह सभी आभूषणोंसे अलंकृत होते हुए भी भाग्यहीन है ॥ 17–21 ॥
यमने कहा- महाभाग्यशालिनी पतिव्रते। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, अतः शुभे सत्यवान्के प्राणोंको छोड़कर कोई भी वरदान माँग लो, देर मत करो ॥ 22 ॥
सावित्री बोली- धर्मज्ञ जो राज्यसे च्युत हो गये हैं तथा जिनकी आँखें नष्ट हो गयी हैं, ऐसे मेरे महात्मा श्वशुरको राज्य और नेत्रसे संयुक्त कर दीजिये ॥ 23 ॥
यमराजने कहा- भद्रे ! तुम बहुत दूरतक चली आयी हो, अतः अब लौट जाओ तुम्हारी यह सब अभिलाषा पूर्ण होगी। तुम्हारे मेरे पीछे चलनेसे मेरे काममें विघ्न पड़ेगा और तुम्हें भी थकावट होगी, इसीलिये इस समय मैं तुमसे ऐसा कह रहा हूँ ll 24 ॥