अष्टकने पूछा- महाराज ! वेदज्ञ विद्वान् इस धर्मके अन्तर्गत बहुत-से कर्मों को उत्तम लोकोंकी प्राप्तिका द्वार बताते हैं, अतः मैं आपसे पूछता हूँ कि आचार्यकी सेवा करनेवाला ब्रह्मचारी, गृहस्थ, सन्मार्गमें स्थित वानप्रस्थ और संन्यासी किस प्रकार धर्माचरण करके उत्तम लोकमें जाते हैं ? ॥ 1 ॥
ययाति बोले- शिष्यको उचित है कि गुरुके बुलानेपर उसके समीप जाकर पढ़े, गुरुकी सेवामें बिना कहे लगा रहे, रातमें गुरुजीके सो जानेके बाद सोवें और सबेरे उनसे पहले ही उठ जाय। वह मृदुल (विनम्र), जितेन्द्रिय, धैर्यवान सावधान और स्वाध्यायशील हो। इस नियमसे रहनेवाला ब्रह्मचारी सिद्धिको पाता है। गृहस्थ पुरुष न्यायसे प्राप्त हुए धनको पाकर उससे यज्ञ करे, दान दे और सदा अतिथियोंको भोजन करावे। दूसरोंकी वस्तु उनके दिये बिना ग्रहण न करे। यह गृहस्थधर्मका प्राचीन एवं रहस्यमय स्वरूप है। वानप्रस्थ मुनि वनमें निवास करे। आहार और विहारको नियमित रखे। अपने ही पराक्रम एवं परिश्रमसे जीवन-निर्वाह करे, पापसे दूर रहे। दूसरोंको दान दे और किसीको कष्ट न पहुँचाये। ऐसा मुनि परम मोक्ष (सिद्धि) को प्राप्त होता है। संन्यासी शिल्पकलासे जीवन निर्वाह न करे। वह शम, दम आदि श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हो, सदा अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखे, सबसे अलग रहे, गृहस्थके घरमें न सोये, परिग्रहका भार न लेकर अपनेको हलका रखे, थोड़ा-थोड़ा चले और अकेला ही अनेक स्थानोंमें भ्रमण करता रहे। ऐसा संन्यासी हो वास्तवमें भिक्षु कहलाने योग्य है। जिस समय रूप, रस आदि विषय तुच्छ प्रतीत होने लगें, इच्छानुसार जीत लिये जायँ तथा उनके परित्यागमें ही सुख जान पड़े, उसी समय विद्वान् पुरुष मनको वशमें करके समस्त संग्रहोंका त्याग कर वनवासी होनेका प्रयत्न करे जो वनवासी मुनि वनमें ही अपने पञ्चभूतात्मक शरीरका परित्याग करता है, वह दस पीढ़ी पूर्वके और दस पीढ़ी बादके जाति भाइयोंको तथा इक्कीसवें अपने को भी पुण्यलोकोंमें पहुँचा देता है ॥27॥अष्टकने पूछा- राजन्। मुनि कितने हैं? और मौन कितने प्रकारके हैं। यह बताइये, हम इसे सुनना चाहते हैं ॥ 8 ll
ययातिने कहा- जनेश्वर अरण्यमें निवास करते | समय जिसके लिये ग्राम पीछे होता है और ग्राममें वास करते समय जिसके लिये अरण्य पीछे होता है, वह मुनि कहलाता है ॥ 9 ॥
अष्टकने पूछा— अरण्यवासीके लिये ग्राम और ग्रममें निवास करनेवालेके लिये अरण्य पीछे कैसे है ? 10 ॥ ययातिने कहा- जो मुनि वनमें निवास करता है और गाँवोंमें प्राप्त होनेवाली वस्तुओंका उपयोग नहीं करता, इस प्रकार वनमें निवास करनेवाले उस ( वानप्रस्थ) मुनिके लिये गाँव पीछे समझा जाता है। जो अग्नि और गृहको त्याग चुका है, जिसका गोत्र और चरण (वेदकी शाखा एवं जाति) से भी सम्बन्ध नहीं रह गया है, जो मौन रहता और उतने ही वस्त्रकी इच्छा रखता है, जितनेसे लंगोटी और ओढ़नेका काम चल जाय इसी प्रकार जितनेसे प्राणोंकी रक्षा हो सके उतना ही भोजन चाहता है, इस नियमसे गाँवमें निवास करनेवाले उस (संन्यासी) मुनिके लिये अरण्य पीछे समझा जाता है। जो मुनि सम्पूर्ण कामनाओंको छोड़कर कर्मोंको त्याग चुका है और इन्द्रिय-संयमपूर्वक सदा मौनमें स्थित है, ऐसा संन्यासी लोकमें परम सिद्धिको प्राप्त होता है। जिसके दाँत शुद्ध और साफ हैं, जिसके नख (और केश) कटे हुए हैं, जो सदा स्नान करता है तथा यम नियमादिसे अलंकृत (उन्हें धारण किये हुए) है, शीतोष्णको सहनेसे जिसका शरीर श्याम पड़ गया है, जिसके आचरण उत्तम हैं- ऐसा संन्यासी किसके लिये पूजनीय नहीं है तपस्यासे मास, हड्डी तथा रक्तके क्षीण हो | जानेपर जिसका शरीर कृश और दुर्बल हो गया है तथा जो सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित एवं भलीभाँति मौनावलम्बी हो चुका है, वह इस लोकको जीतकर परलोकपर भी विजय पाता है। जब संन्यासी मुनि गाय बैलोंकी तरह मुखसे ही आहार ग्रहण करता है, हाथ आदिका भी सहारा नहीं लेता, तब उसके द्वारा ये सब लोक जीत लिये गये समझे जाते हैं और वह मोक्षकी प्राप्तिके लिये समर्थ समझा जाता है। 11-17॥