ययातिने कहा—महात्मन्! मैं नहुषका पुत्र और पूरुका पिता ययाति हूँ। समस्त प्राणियोंका अपमान करनेसे मेरा पुण्य क्षीण हो गया है। इस कारण मैं देवताओं | तथा सिद्धोंके लोकसे च्युत होकर नीचे गिर रहा हूँ।मैं आपलोगोंसे अवस्थामें बड़ा हूँ, अतः आपलोगों को प्रणाम नहीं कर रहा हूँ। द्विजातियोंमें जो विद्या, तप और अवस्थामें बड़ा होता है वही पूजनीय माना जाता है ॥ 1-2 ॥
अष्टक बोले- राजन्! आपने जो यह कहा है कि मैं अवस्थामें बड़ा है, इसलिये ज्येष्ठ है, सो इसमें आप कुछ अधिक कह गये क्योंकि द्विजों में जो विद्या और तपस्यामें बढ़ा-चढ़ा होता है, वही पूज्य माना जाता है ॥ 3 ॥
ययातिने कहा- पापको पुण्यकमका नाशक बताया जाता है। वह नरककी प्राप्ति करानेवाला है और वह उद्दण्ड पुरुषोंमें ही देखा जाता है। श्रेष्ठ पुरुष दुराचारी पुरुषोंके दुराचारका अनुसरण नहीं करते। पहलेके साधु पुरुष भी उन श्रेष्ठ पुरुषोंके ही अनुकूल आचरण करते थे मेरे पास पुण्यरूपी बहुत धन था, किंतु दूसरोंकी निन्दा करनेके कारण वह सब नष्ट हो गया। अब मैं चेष्टा करके भी उसे नहीं पा सकता। मेरी इस | दुरवस्थाको समझ-बूझकर जो आत्मकल्याणमें संलग्न रहता है, वही ज्ञानी और धीर है इस जीव जगत्में भिन्न-भिन्न स्वभाववाले बहुत से प्राणी हैं, वे सभी प्रारब्धके अधीन हैं, अतः उनके धनादि पदार्थोंके लिये किये हुए उद्योग और अधिकार सभी व्यर्थ हो जाते हैं। इसलिये धीर पुरुषको चाहिये कि वह अपनी बुद्धिसे 'प्रारब्ध ही बलवान् है- यह जानकर दुःख या सुख जो भी मिले, उसमें विकारको न प्राप्त हो। जीव जो सुख अथवा दुःख पाता है, वह उसे प्रारब्ध (भाग्य) से ही प्राप्त होता है, अपनी शक्तिसे नहीं; अतः प्रारब्धको ही बलवान् मानकर मनुष्य किसी प्रकार भी हर्ष अथवा शोकन करे दुखोंसे संतप्त न हो और सुखोंसे हर्षित न हो। धीर पुरुष सदा समभावसे ही रहे और भाग्यको ही प्रबल मानकर किसी प्रकार चिन्ता एवं हर्षके वशीभूत न हो। अष्टक! मैं कभी भयमें पड़कर मोहित नहीं होता, मुझे कोई मानसिक संताप भी नहीं होता क्योंकि मैं समझता हूँ कि विधाता इस संसारमें मुझे जैसे रखेगा वैसे ही रहूँगा। स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज सरीसृप, कृमि, जलमें रहनेवाले मत्स्य आदि जीव तथा पर्वत, तृण और काठ- ये सभी प्रारब्ध भोगका सर्वथा | क्षय हो जानेपर अपनी प्रकृतिको प्राप्त हो जाते हैं।अष्टक! मैं सुख तथा दुःख- दोनोंकी अनित्यताको जानता हूँ, फिर मुझे संताप हो तो कैसे? मैं क्या करूँ और क्या करके संतप्त न होऊ इन बातोंको चिन्ता छोड़ चुका हूँ, अतः सावधान रहकर शोक संतापको अपनेसे दूर रखता हूँ । ll 4-11 ॥
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! राजा ययाति समस्त सदृणोंसे सम्पन्न थे और नातेमें अष्टकके नाना लगते थे। वे अन्तरिक्षमें वैसे ही ठहरे हुए थे, जैसे मानो स्वर्गलोकमें हों। जब उन्होंने उपर्युक्त बातें कहीं तब अष्टकने उनसे पुनः प्रश्न किया ॥ 12 ॥
अष्टकने कहा- महाराज! आपने जिन-जिन प्रधान लोकोंमें रहकर जितने समयतक वहाँके सुखोंका भली भाँति उपभोग किया है, उन सबका मुझे यथार्थ परिचय दीजिये। राजन्। आप तो महात्माओंकी भाँति धमका उपदेश कर रहे हैं ll 13 ॥
ययातिने कहा- अष्टक! मैं पहले समस्त भूमण्डलमें प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजा था। तदनन्तर सत्कर्मोद्वारा बड़े-बड़े लोकोंपर मैंने विजय प्राप्त की और उनमें एक हजार वर्षोंतक (सुखपूर्वक) निवास किया। इसके बाद उनसे भी उच्चतम लोकमें जा पहुँचा। वहाँ सौ योजन विस्तृत और एक हजार दरवाजोंसे युक्त इन्द्रकी रमणीय पुरी प्राप्त हुई उसमें मैंने केवल एक हजार वर्षोंतक निवास किया और उसके बाद उससे भी ऊँचे लोकमें गया । तदनन्तर लोकपालोंके लिये भी दुर्लभ प्रजापतिके उस दिव्यलोकमें जा पहुँचा, जहाँ जरावस्थाका प्रवेश नहीं है। वहाँ एक हजार वर्षतक रहा, फिर उससे भी उत्तम लोकमें चला गया। वह देवाधिदेव ब्रह्माजीका धाम था। वहाँ मैं अपनी इच्छाके अनुसार भिन्न-भिन्न लोकोंमें विहार करता हुआ सम्पूर्ण देवताओंसे सम्मानित होकर रहा। उस समय मेरा प्रभाव और तेज देवेश्वरोंके समान था। इसी प्रकार मैं नन्दनवनमें इच्छानुसार रूप धारण करके अप्सराओंके साथ विहार करता हुआ दस लाख वर्षोंतक रहा। वहाँ मुझे पवित्र गन्ध और मनोहर | रूपवाले वृक्ष देखनेको मिले, जो फूलोंसे लदे हुए थे।वहाँ रहकर मैं देवलोकके सुखोंमें आसक्त हो गया। तदनन्तर बहुत अधिक समय बीत जानेपर एक भयंकर रूपधारी देवदूत आकर मुझसे ऊँची आवाजमें तीन बार बोला- 'गिर जाओ, गिर जाओ, गिर जाओ।' राजशिरोमणे! मुझे इतना ही ज्ञात हो सका है। तदनन्तर पुण्य क्षीण हो जानेके कारण मैं नन्दनवनसे नीचे गिर पड़ा। नरेन्द्र ! उस समय मेरे लिये शोक करनेवाले देवताओंकी अन्तरिक्षमें यह दयाभरी वाणी सुनायी पड़ी- 'अहो ! बड़े कष्टकी बात है कि पवित्र कीर्तिवाले ये पुण्यकर्मा महाराज ययाति पुण्य क्षीण होनेके कारण नीचे गिर रहे हैं!' तब नीचे गिरते हुए मैंने उनसे पूछा- 'देवताओ! मैं साधु पुरुषोंके बीच गिरूँ, इसका क्या उपाय है?' तब देवताओंने मुझे आपकी यज्ञभूमिका परिचय दिया। मैं इसीको देखता हुआ तुरंत यहाँ आ पहुँचा हूँ। यज्ञभूमिका परिचय देनेवाली हविष्यकी सुगन्धका अनुभव तथा धूम्रप्रान्तका अवलोकन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता और सान्त्वना मिली है ॥ 14-22 ॥