सूतजी कहते हैं-ऋषियों! राजा शतानीक महर्षि
शौनकसे यह सारा वृत्तान्त सुनकर विस्मयाविष्ट हो गये तथा उत्कृष्ट प्रेमके कारण उनका चेहरा पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति खिल उठा। तदनन्तर राजाने अनेक प्रकारके रत्न, गी, सुवर्ण और वस्त्रोद्वारा महर्षि शौनकको विधिपूर्वक पूजा को शौनकजीने राजाद्वारा दिये गये उस सारे धनको ग्रहण करके पुनः उसे ब्राह्मणोंको दान कर दिया और स्वयं वहाँ अन्तर्हित हो गये ॥ 1-3 ॥
ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! अब हमलोग ययातिके वंशका वर्णन सुनना चाहते हैं। जब उनके यदु आदि पुत्र लोकमें प्रतिष्ठित हुए तब फिर आगे चलकर क्या हुआ ? इसे विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ 4 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियों! अब मैं ययातिके ज्येष्ठ पुत्र परम तेजस्वी यदुके वंशका क्रमसे एवं विस्तारपूर्वक * वर्णन कर रहा हूँ, आपलोग मेरे कथनानुसार उसे ध्यानपूर्वक सुनिये बटुके पाँच पुत्र हुए जो सभी देवपुत्र सदृश तेजस्वी, महारथी और महान् धनुर्धर थे। उन्हें नामनिर्देशानुसार यो जानिये उनमें ज्येष्ठका नाम सहस्रजि था, शेष चारोंका नाम क्रमशः क्रोष्टु, नील, अन्तिक और लघु था। सहस्रजिका पुत्र राजा शतजि हुआ। शतजिके हैहय, हय और वैणुहय नामक परम यशस्वी तीन पुत्र हुए। हैहयका विश्वविख्यात पुत्र धर्मनेत्र हुआ। धर्मनेत्रका पुत्र कुन्ति और उसका पुत्र संहत हुआ। संहतका पुत्र राजा महिष्मान् हुआ। महिष्मानका पुत्र प्रतापी रुद्र श्रेण्य था, जो वाराणसी नगरीका राजा हुआ। इसका वृत्तान्त पहले ही कहा जा चुका है। रुद्रश्रेण्यका पुत्र दुर्दम नामका राजा हुआ। दुर्दमका पुत्र परम बुद्धिमान् एवं पराक्रमी कनक था। कनकके चार विश्वविख्यात पुत्र हुए, जिनके नाम हैं- कृतवीर्य, कृताग्नि कृतवर्मा और चौथा कृतौजा इनमें कृतवीर्यसे अर्जुनका जन्म हुआ,जो सहस्र भुजाधारी (होनेके कारण सहस्रार्जुन नामसे प्रसिद्ध था) तथा सातों द्वीपोंका अधीश्वर था। पुरुषश्रेष्ठ | कृतवीर्यनन्दन राजा सहस्रार्जुनने दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या करते हुए महर्षि अत्रिके पुत्र दत्तात्रेयकी आराधना की। उससे प्रसन्न होकर दत्तात्रेयने उसे चार वर प्रदान किये। उनमें प्रथम वरके रूपमें राजश्रेष्ठ अर्जुनने अपने लिये एक हजार भुजाएँ माँगीं। दूसरे वरसे सत्पुरुषोंके साथ अधर्म करनेवालोंके निवारणका अधिकार माँगा। तीसरे वरसे युद्धद्वारा सारी पृथ्वीको जीतकर धर्मानुसार उसका पालन करना था और चौथा वर यह माँगा कि रणभूमिमें युद्ध करते समय मुझसे अधिक बलवान्के हाथों मेरा वध हो ।। 5- 17 ॥
उस वरदानके प्रभावसे कार्तवीर्य अर्जुनने क्षात्र धर्मानुसार सातों समुद्रोंसे परिवेष्टित पर्वतोंसहित सातों द्वीपोंकी समग्र पृथ्वीको जीत लिया; क्योंकि उस बुद्धिमान् अर्जुनके इच्छा करते ही एक हजार भुजाएँ निकल आय तथा उसी प्रकार रथ और ध्वज भी प्रकट हो गये- ऐसा हमलोगोंके सुननेमें आया है साथ ही उस बुद्धिमान् अर्जुनके विषयमें यह भी सुना जाता है कि उसने सातों | द्वीपोंमें दस सहस्र यहोंका अनुष्ठान निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न किया था उस राजराजेश्वरके सभी यज्ञोंमें प्रचुर दक्षिणाएँ बाँटी गयी थीं। उनमें गड़े हुए यूप (यज्ञस्तम्भ) स्वर्णनिर्मित थे। सभी वेदिकाएँ सुवर्णकी बनी हुई थीं। वे सभी यज्ञ अपना-अपना भाग लेनेके लिये आये हुए विमानारूढ़ देवोंद्वारा सुशोभित थे। गन्धर्व और अप्सराएँ भी नित्य आकर उनकी शोभा बढ़ाती थीं राजर्षि कार्तवीर्यके महत्त्वको देखकर नारदनामक गन्धर्वने उनके यज्ञमें ऐसी गाथा गायी थी 'भावी क्षत्रिय नरेश निश्चय ही यज्ञ, दान, तप, पराक्रम और शास्त्रज्ञानके द्वारा कार्तवीर्यको समकक्षताको नहीं प्राप्त होंगे।' योगी अर्जुन रथपर आरूढ़ हो हाथमें खङ्ग, चक्र और धनुष धारण करके सातों द्वीपों में भ्रमण करता हुआ चोरों डाकुओंपर कड़ी दृष्टि रखता था राजा अर्जुन पचासी हजार वर्षोंतक भूतलपर शासन करके समस्त नोंसे परिपूर्ण हो चक्रवर्ती सम्राट् बना रहा। राजा अर्जुन ही अपने योगबलसे पशुओंका पालक था, वही खेतोंका भी रक्षक था और वहीं समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था प्रत्यञ्चाके आघातसे कठोर हुई त्वचाओंवाली अपनी सहस्रों भुजाओंसे वह उसी प्रकार शोभा पाता था, जिस प्रकार सहस्रों किरणोंसे | युक्त शारदीय सूर्य शोभित होते हैं ॥ 18-28 ॥मनुष्यों में महान् तेजस्वी अर्जुनने कर्कोटक नागके पुत्रको जीतकर अपनी माहिष्मती पुरीमें बाँध रखा था। भूपाल अर्जुन वर्षा ऋतु प्रवाह के सम्मुख सुखपूर्वक क्री करते हुए ही समुद्रके वेग को रोक देता था। ललनाओंके साथ जलविहार करते समय उसके गलेसे टूटकर गिरी हुई मालाओंको धारण करनेवाली तथा लहररूपी भ्रुकुटियोंके व्याजसे भयभीत -सी हुई नर्मदा चकित होकर उसके निकट | आ जाती थी। वह अकेला ही अपनी सहस्र भुजाओंसे अगाध समुद्रको विलोडित कर देता था एवं वर्षाकालमें वेगसे बहती हुई नर्मदाको और भी उद्धत वेगवाली बना देता था। उसकी हजारों भुजाओंद्वारा विलोडन करनेसे महासागरके क्षुब्ध हो जानेपर पातालनिवासी बड़े-बड़े असुर अत्यन्त निश्चेष्ट हो जाते थे। अपनी सहस्र भुजाओंसे महासागरका विलोडन करते समय वह समुद्रकी उठती हुई विशाल | लहरोंके मध्य आयी हुई मछलियों और बड़े-बड़े तिमिङ्गिलेक | चूर्णसे उसे व्याप्त कर देता था तथा वायुके झकोरेसे उठे हुए फेनसमूहसे फेनिल और चैवरोंके चपेटसे दुःसह बना देता था। उस समय पूर्वकालमें मन्दराचलके मन्थनके विक्षोभसे चकित एवं पुनः अमृतोत्पादनको आशङ्कासे सशङ्कित से हुए बड़े-बड़े नागोंके मस्तक इस प्रकार निश्चल हो जाते थे, जैसे सायंकाल वायुके स्थागित हो जानेपर केले के पत्ते प्रशान्त हो जाते हैं। इसी प्रकार अर्जुनने एक बार लंका में जाकर अपने पाँच बाणोंद्वारा सेनासहित रावणको मोहित कर दिया और उसे बलपूर्वक जीतकर अपने धनुषकी प्रत्यक्षा बाँध लिया, फिर माहिष्मती पुरीमें लाकर उसे बंदी बना लिया। यह सुनकर महर्षि पुलस्त्यने माहिष्मतीपुरीमें जाकर अर्जुनको अनेकों प्रकारसे समझा-बुझाकर प्रसन्न किया। तब अर्जुनने महर्षि पुलस्त्यद्वारा सान्त्वना दिये जानेपर उस पुलस्त्य-पौत्र राक्षसराज रावणको बन्धनमुक्त कर दिया। उसकी हजारों भुजाओंद्वारा धनुषकी प्रत्यञ्चा खींचनेपर ऐसा भयंकर शब्द होता था, मानो प्रलयकालीन सहस्रों बादलोंकी घटाके मध्य वज्रकी गड़गड़ाहट हो रही हो; परंतु विधिका पराक्रम धन्य है जो भृगुकुलोत्पन्न परशुरामजीने उसकी हजारों भुजाओंको हेमतालके वनकी भाँति काटकर छिन्न भिन्न कर दिया। इसका कारण यह है कि एक बार सामर्थ्यशाली महर्षि आपव (वसिष्ठ) ने क्रुद्ध होकर अर्जुनको शाप देते हुए कहा था- 'हैहय! चूँकि तुमने मेरे लोकप्रसिद्ध वनको जलाकर भस्म कर दिया है, इसलिये | तुम्हारे द्वारा किये गये इस दुष्कर कर्मका फल कोई दूसराहरण कर लेगा। भृगुकुलमें उत्पन्न एक तपस्वी एवं बलवान् ब्राह्मण पहले तुम्हारी सहस्रों भुजाओंको फिर तुम्हारा वध कर देगा' ॥ 29– 43 ॥
सूतजी कहते हैं - ऋषियो ! इस प्रकार उस शापके कारण परशुरामजी उसकी मृत्युके कारण तो अवश्य हुए, परंतु पूर्वकालमें उस राजर्षिने स्वयं ही ऐसे वरका वरण किया था। राजन्! सहस्रार्जुनके पुत्र तो एक सौ हुए, परंतु उनमें पाँच महारथी थे। उनके अतिरिक्त शूरसेन, शूर, धृष्ट, क्रोष्टु, जयध्वज, वैकर्ता और अवन्ति- ये सातों अस्त्रविद्यामें निपुण, बलवान्, शूरवीर, धर्मात्मा और महान् पराक्रमशाली थे। जयध्वजका पुत्र महाबली तालजङ्घ हुआ। उसके एक सौ पुत्र हुए जो तालजङ्घके नामसे विख्यात हुए। हैहयवंशी इन महात्मा नरेशोंका कुल विभक्त होकर पाँच भागों में विख्यात हुआ। उनके नाम हैं-वीतिहोत्र, शार्यात, भोज, आवन्ति तथा पराक्रमी कुण्डिकेर। ये ही तालजङ्घके भी नामसे प्रसिद्ध थे। वीतिहोत्रका पुत्र प्रतापी आनर्त (गुजरातका शासक) हुआ। उसका पुत्र दुर्जेय हुआ जो शत्रुओंका विनाशक था। अमित बुद्धिसम्पन्न एवं सहस्रभुजाधारी | कृतवीर्य-नन्दन राजा अर्जुन सद्भावना एवं धर्मपूर्वक प्रजाओं | पालन करता था। उसने अपने धनुषके बलसे सागरपर्यन्त पृथ्वीपर विजय पायी थी। जो मानव प्रातःकाल उठकर उसका नाम स्मरण करता है उसके धनका नाश नहीं होता और यदि नष्ट हो गया है तो पुनः प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य कार्तवीर्य अर्जुनके जन्म-वृत्तान्तको कहता है उसका आत्मा यथार्थरूपसे पवित्र हो जाता है और वह स्वर्गलोकमें प्रशंसित होता है ॥ 44 - 52 ॥