शौनकजी कहते हैं— शतानीक! राजा ययाति बुढ़ापा लेकर वहाँसे अपने नगरमें आये और अपने ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ पुत्र यदुसे इस प्रकार बोले- ॥ 1 ॥
ययातिने कहा-तात! कवि पुत्र शुक्राचार्यके शापसे मुझे बुढ़ापेने घेर लिया, मेरे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गर्यो और बाल सफेद हो गये, किंतु मैं अभी जवानीके भोगों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। यदो! तुम बुढ़ापेके साथ मेरे दोषको ले लो और मैं तुम्हारी जवानीके द्वारा विषयोंका उपभोग करूँ। एक हजार वर्ष पूरे होनेपर मैं पुनः तुम्हारी जवानी देकर बुढ़ापेके साथ अपना दोष वापस ले लूँगा ॥ 2-4 ॥
यदु बोले- महाराज ! मैं उस बुढ़ापेको लेने की इच्छा नहीं करता, जिसके आनेपर दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद हो जाते हैं, जीवनका आनन्द चला जाता है। वृद्धावस्था सर्वथा शिथिल कर देती है। सारे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और मनुष्य इतना दुर्बल तथा कृशकाय हो जाता है कि उसकी ओर देखते नहीं बनता। बुढ़ापेमें काम-काज करनेकी शक्ति नहीं रहती, युवतियाँ तथा जीविका पानेवाले सेवक भी तिरस्कार करते हैं, अतः मैं वृद्धावस्था नहीं लेना | चाहता। धर्मज्ञ नरेश्वर! आपके बहुत से पुत्र हैं, जो आपको मुझसे भी अधिक प्रिय हैं अतः बुढ़ापा लेनेके लिये आप अपने किसी दूसरे पुत्रको चुन लीजिये ॥ 5-7 ॥ययातिने कहा-तात! तुम मेरे हृदयसे उत्पन्न (औरस पुत्र) होकर भी मुझे अपनी युवावस्था नहीं देते हो, इसलिये इस पापके कारण तुम्हारी संतान मामाके अनुचित सम्बन्धद्वारा उत्पन्न होकर दुष्प्रजा कहलायेगी। (अब उन्होंने तुर्वसुको बुलाकर कहा-) 'तुर्वसो ! तुम बुढ़ापेके साथ मेरा दोष ले लो। बेटा! मैं तुम्हारी जवानीसे विषयोंका उपभोग करूँगा। एक हजार वर्ष पूर्ण होनेपर मैं तुम्हें जवानी लौटा दूँगा और बुढ़ापेसहित अपने दोषको वापस ले लूंगा ॥ 8-10 ॥
तुर्वसु बोले- तात ! काम-भोगका नाश करनेवाली वृद्धावस्था मुझे नहीं चाहिये। वह बल तथा रूपका अन्त कर देती है और बुद्धि एवं मान-प्रतिष्ठाका भी नाश करनेवाली है॥ 11 ॥
ययातिने कहा- तुर्वसो! तुम मेरे हृदयसे उत्पन्न होकर भी मुझे अपनी युवावस्था नहीं देते हो, इसलिये तुम्हारी संतति नष्ट हो जायगी। मूह जिनके आचार और धर्म वर्णसंकरोंके समान हैं, जो प्रतिलोम संकर जातियों में गिने जाते हैं तथा जो कच्चा मांस खानेवाले एवं चाण्डाल आदिकी श्रेणीमें हैं, ऐसे (यवनादिसे अधिष्ठित आटट्टादि देशोंके) लोगोंके तुम राजा होगे। जो गुरु पत्त्रियोंमें आसक्त हैं, जो पशु-पक्षी आदिका-सा आचरण करनेवाले हैं तथा जिनके सारे आचार-विचार भी पशुओंके समान
हैं, तुम उन पापात्मा म्लेच्छोंके राजा होगे । ll 12 – 14 ॥ शौनकजी कहते हैं— शतानीक! राजा ययातिने इस प्रकार अपने पुत्र तुर्वसुको शाप देकर शर्मिष्ठाके ज्येष्ठ पुत्र द्रुह्युसे यह बात कही- ॥ 15 ॥
ययातिने कहा- दुह्यो ! कान्ति तथा रूपका नाश करनेवाली यह वृद्धावस्था तुम ले लो और एक हजार वर्षोंके लिये अपनी जवानी मुझे दे दो हजार वर्ष पूर्ण हो जानेपर मैं पुनः तुम्हारी जवानी तुम्हें दे दूँगा और बुढ़ापेके साथ अपना दोष फिर ले लूँगा ॥ 16-17 ॥
द्रुह्यु बोले- पिताजी! बूढ़ा मनुष्य न तो राज्य सुखका अनुभव कर सकता है, न घोड़े और रथपर ही चढ़ सकता है। वह स्त्रीका भी उपभोग नहीं कर सकता। उसके हृदयमें राग-प्रेम उत्पन्न ही नहीं होता; अतः 许 वृद्धावस्था नहीं लेना चाहता ॥ 18 ॥ ययातिने कहा- दुह्यो ! तुम मेरे हृदयसे उत्पन्न होकर भी अपनी जवानी मुझे नहीं दे रहे हो, इसलिये तुम्हारा प्रिय मनोरथ कभी नहीं सिद्ध होगा।(जहाँ घोड़े जुते हुए उत्तम रथों, घोड़ों, हाथियों, पीठकों, पालकियों, गदहों, बकरों, बैलों और शिविका आदिकी भी गति नहीं है) जहाँ प्रतिदिन (केवल) नावपर ही बैठकर घूमना-फिरना होगा, ऐसे (पञ्चनदके निचले) प्रदेशमें तुम अपनी संतानोंके साथ चले जाओगे और वहाँ तुम्हारे वंशके लोग राजा नहीं, भोज कहलायेंगे ॥ 19-20 ॥ तदनन्तर ययातिने अनुसे कहा - अनो! तुम बुढ़ापेके साथ मेरा दोष-पाप ले लो और मैं तुम्हारी जवानीके द्वारा एक हजार वर्षतक सुखसे चलते-फिरते आनन्द भोगूँगा ॥ 21 ॥
अनु बोले- पिताजी! बूढ़ा मनुष्य बच्चोंकी तरह असमयमें भोजन करता है, अपवित्र रहता है तथा समयपर अग्निहोत्र आदि कर्म नहीं करता, अतः वैसी वृद्धावस्था को मैं नहीं लेना चाहता ll 22 ॥
ययातिने कहा—अनो! तुम मेरे हृदयसे उत्पन्न होकर भी अपनी युवावस्था मुझे नहीं दे रहे हो और बुढ़ापेके दोष बतला रहे हो, अतः तुम वृद्धावस्थाके समस्त दोषोंको प्राप्त करोगे और तुम्हारी संतान जवान होते ही मर जायगी तथा तुम भी बूढ़े- जैसे होकर अग्रिहोत्रका त्याग कर दोगे ॥ 23-24 ॥
तत्पश्चात् ययातिने पूरुसे कहा—पूरो! तुम मेरे अत्यधिक प्रिय पुत्र हो। गुणोंमें तुम श्रेष्ठ होओगे। तात ! मुझे बुझने घेर लिया, सब अङ्ग हरियाँ पड़ गयी और सिरके बाल सफेद हो गये। बुढ़ापेके ये सारे चिह्न मुझे एक ही साथ प्राप्त हुए हैं। कवि-पुत्र शुक्राचार्यके शापसे मेरी यह दशा हुई है; किंतु मैं जवानीके भोगोंसे अभी तृप्त नहीं हुआ हूँ पूरो (तुम बुढ़ापेके साथ मेरे दोष पापको से लो और मैं तुम्हारी युवावस्था लेकर उसके द्वारा कुछ कालतक विषयोंका उपभोग करूँगा। एक हजार वर्ष पूरे होनेपर मैं तुम्हें पुनः तुम्हारी जवानी दे दूंगा और बुढ़ापेके साथ अपना दोष ले लूँगा ।। 25-27 ॥
शौनकजी कहते हैं-यतिके ऐसा कहनेपर पूरुने अपने पितासे विनयपूर्वक कहा-'महाराज आप मुझे जैसा आदेश दे रहे हैं, आपके उस वचनका मैं पालन करूँगा। (गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन मनुष्योंके लिये पुण्य, स्वर्ग तथा आयु प्रदान करनेवाला है। गुरुके ही प्रसादसे इन्द्रने तीनों लोकोंका शासन किया है। गुस्स्वरूप पिताको अनुमति प्राप्त करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको पा लेता है।) राजन्! मैं बुढ़ापेके साथ आपका दोष ग्रहण कर लूँगा। आप | मुझसे जवानी ले लें और इच्छानुसार विषयोंका उपभोग करें।मैं वृद्धावस्थासे आच्छादित हो आपकी आयु एवं रूप धारण करके रहूँगा और आपको जवानी देकर आप मेरे लिये जो आज्ञा देंगे, उसका पालन करूँगा ॥ 28-30 ॥