इन्द्रने कहा— राजन् ! आप सम्पूर्ण कर्मोंको समाप्त करके घर छोड़कर वनमें चले गये थे; अत: नहुषपुत्र ययाते! मैं आपसे पूछता हूँ कि आप तपस्यामें किसके | समान हैं ? ॥ 1 ॥
ययातिने कहा - इन्द्र ! मैं न तो देवताओं एवं मनुष्यों में तथा न गन्धर्वो और महर्षियोंमें ही किसीको ऐसा देख रहा हूँ जो तपस्यामें मेरे समान हो (अर्थात् मैं तपमें अद्वितीय हूँ) ॥ 2 ॥
इन्द्र बोले- राजन् ! आपने अपने समान, अपने से बड़े और छोटे लोगोंका प्रभाव न जानकर सबका तिरस्कार किया हैं, अतः आपके इन पुण्यलोकोंमें रहनेकी अवधि समाप्त हो गयी; क्योंकि (दूसरोंकी निन्दा करनेके कारण) आपका पुण्य क्षीण हो गया, इसलिये अब आप यहाँसे नीचे गिरेंगे ॥ 3 ॥
ययातिने कहा- देवराज इन्द्र देवता, ऋषि, गन्धर्व | और मनुष्य आदिका अपमान करनेके कारण यदि मेरे पुण्यलोक क्षीण हो गये हैं तो इन्द्रलोकसे भ्रष्ट होकर मैं साधु पुरुषोंके बीचमें गिरनेकी इच्छा करता हूँ ॥ 4 ll
इन्द्र बोले- राजन् ययाति! आप यहाँसे च्युत | होकर साधु पुरुषोंके ही समीप गिरेंगे और वहाँ अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर लेंगे; किंतु यह सब जानकर आप फिर (आगे) कभी अपनी बराबरीवाले तथा अपनेसे बड़े लोगोंका अपमान मत कीजियेगा ॥ 5 ॥
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! तदनन्तर देवराज इन्द्रके सेवन करनेयोग्य पुण्यलोकोंका परित्याग कर राजा ययाति नीचे गिरने लगे। उस समय राजर्षियोंमें श्रेष्ठ एवं उत्तम धर्मविधिके पालक अष्टकने उन्हें गिरते देखा। (तब) उन्होंने उन ( ययाति) से (इस प्रकार) कहा ॥ 6 ॥
अष्टकने पूछा- 'इन्द्रके समान सुन्दर रूपवाले तरुण पुरुष आप कौन हैं? आप अपने तेजसे अफ्रिकी भाँति देदीप्यमान हो रहे हैं। मेधरूपी घने अन्धकारवाले आकाशसे आकाशचारी ग्रहोंमें श्रेष्ठ सूर्यके समान आप कैसे गिर रहे हैं?आपका तेज सूर्य और अग्रिके सदृश है। आप अप्रमेय शक्तिशाली जान पड़ते हैं। आपको सूर्यके मार्ग से गिरते | देख हम सब लोग मोहित (आश्चर्यचकित होकर इस तर्क-वितर्कमें पड़े हैं कि यह क्या गिर रहा है? आप इन्द्र, सूर्य और विष्णुके समान प्रभावशाली हैं। आपको आकाशमें स्थित देखकर हम सब लोग अब यह जाननेके लिये आपके निकट आये हैं कि आपके पतनका यथार्थ कारण क्या है। हम पहले आपसे कुछ पूछनेका साहस नहीं कर सकते और आप भी हमसे हमारा परिचय नहीं पूछते कि हम कौन हैं। इसलिये मैं ही आपसे पूछता हूँ। मनोरम रूपवाले महापुरुष ! आप किसके पुत्र हैं और किसलिये यहाँ आये हैं? इन्द्रके तुल्य शक्तिशाली पुरुष ! आपका भय दूर हो जाना चाहिये। अब आपको (स्वर्गसे गिरनेका) विषाद और मोह भी तुरंत त्याग देना चाहिये। इस समय आप संतोंके समीप विद्यमान हैं। बल दानवका नाश करनेवाले इन्द्र भी अब आपका तेज सहन करनेमें असमर्थ हैं। | देवेश्वर इन्द्रके समान तेजस्वी महानुभाव! सुखसे वञ्चित होनेवाले साधु पुरुषोंके लिये सदा संत ही परम आश्रय हैं वे स्थावर और जनम सभी प्राणियोंपर शासन करनेवाले सत्पुरुष यहाँ एकत्र हुए हैं। आप अपने समान पुण्यात्मा संतोंके बीचमें स्थित हैं। जैसे तपनेकी शक्ति अग्निमें है, बोये हुए बीजको धारण करनेकी शक्ति पृथ्वीमें है, प्रकाशित होनेकी शक्ति सूर्यमें है, उसी प्रकार संतोंका स्वामित्व- उनपर शासन करनेकी शक्ति केवल अतिथिको ही प्राप्त है' ॥ 7-13 ॥