शौनकजी कहते हैं-शतानीक। ययातिकी राजधानी महेन्द्रपुरी (अमरावती) के समान थी। उन्होंने वहाँ आकर देवयानीको अन्तःपुरमें स्थान दिया तथा उसीकी अनुमतिसे अशोकवाटिकाके समीप एक महल बनवाकर उसमें वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको उसकी एक हजार दासियों के साथ ठहराया और उन सबके लिये अन्न, वस्त्र तथा पेय आदिकी अलग-अलग व्यवस्था कर दी। (देवयानी ययातिके साथ परम रमणीय एवं मनोरम अशोकवाटिकामें आती और शर्मिष्ठाके साथ वन विहार करके उसे वहीं छोड़कर स्वयं राजाके साथ महलमें चली जाती थी। इस तरह वह बहुत समयतक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द भोगती रही।) नहुषकुमार राजा ययातिने देवयानीके साथ बहुत वर्षोंतक देवताओंकी भाँति विहार किया। वे उसके साथ बहुत प्रसन्न और सुखी थे। ऋतुकाल आनेपर सुन्दरी देवयानीने गर्भ धारण किया और समयानुसार प्रथम पुत्रको जन्म दिया। इधर एक हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर युवावस्थाको प्राप्त हुई वृषपर्वाकी पुत्री कमलनयनी शर्मिष्ठाने अपनेको रजस्वलावस्थामें देखा और चिन्तामन हो मन-ही-मन कहने लगी- 'मुझे ऋतुकाल प्राप्त हो गया, किंतु अभीतक मैंने पतिका वरण नहीं किया। यह कैसी परिस्थिति आ गयी। अब क्या करना चाहिये अथवा क्या करनेसे सुख होगा। देवयानी तो पुत्रवती हो गयी, किंतु मुझे जो युवावस्था प्राप्त हुई है, वह व्यर्थ जा रही है। जिस प्रकार उसने पतिका वरण किया है, उसी तरह मैं भी उन्हीं महाराजका क्यों न पतिके रूपमें वरण कर लूँ। मेरे | याचना करनेपर राजा मुझे पुत्ररूप फल दे सकते हैं, इस बातका मुझे पूरा विश्वास है; परंतु क्या वे धर्मात्मा नरेश इस समय मुझे एकान्तमें दर्शन देंगे ? ll 1-9 ll
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! शर्मिष्ठा इस प्रकार विचार कर ही रही थी कि राजा ययाति उसी समय दैववश महलसे बाहर निकले और अशोकवाटिकाके निकट शर्मिष्ठाको देखकर आश्चर्यचकित हो गये। मनोहर हासवाली शर्मिष्ठाने उन्हें एकान्तमें अकेला देखा। तब उसने आगे बढ़कर उनकी अगवानी की तथा हाथ जोड़कर राजासे यह बात कही- ll 10-11 ॥शर्मिष्ठाने कहा - नहुषनन्दन ! चन्द्रमा, इन्द्र, वायु, यम अथवा वरुण ही क्यों न हों, आपके महलमें कौन किसी स्त्रीकी ओर दृष्टि डाल सकता है? (अतएव मैं यहाँ सर्वथा सुरक्षित हूँ।) महाराज! मेरे रूप, कुल और शील कैसे हैं, यह तो आप सदासे ही जानते हैं। मैं आज आपको प्रसन्न करके यह प्रार्थना करती हैं कि मुझे न दीजिये मेरे ऋतुकालको सफल बनाइये ॥ 12-13॥
ययातिने कहा शर्म तुम दैत्यराजकी सुशील और निर्दोष कन्या हो। मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम्हारे शरीर अथवा रूपमें सूईकी नोक बराबर भी ऐसा स्थान नहीं है, जो निन्दाके योग्य हो; परंतु क्या करूँ, जब मैंने देवयानीके साथ विवाह किया था, उस समय शुक्राचार्यने मुझसे स्पष्ट कहा था कि 'वृषपर्वाकी पुत्री इस शर्मिष्ठाको अपनी सेजपर न बुलाना ॥ 14-15 ।।
शर्मिष्ठाने कहा- राजन् ! परिहासयुक्त वचन असत्य हो तो भी वह हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियोंके प्रति, विवाहके समय, प्राणसंकटके समय तथा सर्वस्वका अपहरण होते समय यदि कभी विवश होकर असत्य भाषण करना | पड़े तो वह दोषकारक नहीं होता। ये पाँच प्रकारके असत्य | पापशून्य बताये गये हैं। महाराज! गवाही देते समय किसीके पूछनेपर जो अन्यथा (असत्य) भाषण करते हैं, वे मिथ्यावादी कहलाते हैं; परंतु जहाँ दो व्यक्तियोंके (जैसे देवयानीका तथा मेरा) कल्याणका प्रसङ्ग उपस्थित हो, वहाँ एकका (अर्थात् मेरा) कल्याण न करना असत्य भाषण है, जो वक्ताकी (अर्थात् आपकी) हानि कर सकता है ।। 16-17 ॥
ययाति बोले-देवि ! सब प्राणियोंके लिये राजा ही प्रमाण है। यदि वह झूठ बोलने लगे तो उसका नाश हो जाता है; अतः अर्थ-संकटमें पड़नेपर भी मैं गलत काम नहीं कर सकता ॥ 18 ॥
शर्मिष्ठाने कहा— राजन् ! अपना पति और सखीका पति- दोनों बराबर माने गये हैं। मेरी सखीने आपको अपना पति बनाया है, अतः मैंने भी बना लिया ॥ 19 ॥ ययाति बोले- कोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ दी जायँ, ऐसा मेरा व्रत है। तुम भी मुझसे अपने मनोरथकी याचना करती हो; अतः बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ॥ 20 ॥
शर्मिष्ठाने कहा- राजन्। मुझे अधर्मसे बचाइये और धर्मका पालन कराइये मैं चाहती हूँ आपसे संतान होकर इस लोकमें उत्तम धर्मका आचरण करूँ। महाराज! तीन व्यक्ति धनके अधिकारी नहीं होते- पत्नी, दास और पुत्र उनकी सम्पत्ति भी उसीकी होती है, जहाँ ये 5। 39, महाभारत 1। 82 । 22 आदिमें भी है। मेधातिथि, इस श्लोकका तात्पर्य धनके व्ययमें अभिभावककी सहमति लेने में से ही सम्बद्ध है।जाते- जिसके अधिकारमें रहते हैं; अर्थात् पत्नीके धनपर पतिका, सेवकके धनपर स्वामीका और पुत्रके धनपर पिताका अधिकार होता है। मैं देवयानीकी सेविका हूँ और देवयानी आपके अधीन है; अतः राजन् ! वह और मैं- दोनों ही आपके सेवन अपनाने योग्य हैं। इसलिये आप मुझे भी अङ्गीकार कीजिये ॥ 21 - 23 ॥
शौनकजी कहते हैं— शर्मिष्ठाके ऐसा कहनेपर राजाने उसकी बातोंको ठीक समझा। उन्होंने शर्मिष्ठाका सत्कार किया और धर्मानुसार उसे अपनी भार्या बनाया। फिर शर्मिष्ठाके साथ सहवास करके एक-दूसरेका आदर सत्कार करनेके पश्चात् दोनों जैसे आये थे, वैसे ही अपने अपने स्थानपर चले गये। सुन्दर भौंहोंवाली वृषपर्वा कुमारी शर्मिष्ठाने उस सहवासमें नृपश्रेष्ठ ययातिसे प्रथम गर्भ धारण किया। शतानीक! तदनन्तर समय आनेपर कमलके समान नेत्रोंवाली शर्मिष्ठाने देवबालक-जैसे सुन्दर एवं | सूर्यके समान तेजस्वी एक कुमारको उत्पन्न किया ॥24–27 ॥