सूतजी कहते हैं ऋषियो! प्रत्येक कल्पमें जो चौदह मन्वन्तर होते हैं, उनमें जो बीत चुके हैं तथा जो आनेवाले हैं, उन मन्वन्तरोंके प्रत्येक युगमें प्रजाओंको जैसी उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा जितना उनका आयु प्रमाण होता है, इन सबका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वीक्रमसे | वर्णन कर रहा हूँ। उनमें कुछ प्राणी तो युगपर्यन्त जीवित रहते हैं और कुछ उनसे कम समयतक ही जीते हैं। दोनों प्रकारकी बातें देखी जाती है। ऐसी हो विधि चौदहों मन्वन्तरोंमें जानना चाहिये। सर्वत्र युगधर्मानुसार मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों और स्थावरोंकी आयु घटती जाती है। कलियुगमें युगधर्मानुसार सर्वत्र प्राणियोंको आयुको अस्थिरता | देखकर मनुष्योंकी परमायु सौ वर्षको बतलायी गयी है। कृतयुगमें देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस ये सभी एक ही विस्तार और ऊँचाईके शरीरवाले उत्पन्न होते हैं। उनमें आठ प्रकारकी देवयोनियोंमें उत्पन्न होनेवाले | देवोंके शरीर छानबे अंगुल ऊँचे और नौ अंगुल विस्तृत निष्पन्न होते हैं, यह उनकी आयुका स्वाभाविक प्रमाण है। अन्य देवताओं तथा असुरोंके शरीरका विस्तार क्रमशः सात-सात अंगुलका होता है। कलियुगके संध्यांशमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंके शरीर कलियुगोत्पन्न मानवोंके अंगुलप्रमाणसे चौरासी अंगुलके होते हैं ॥ 1-96 ॥
जिसका शरीर पैरसे लेकर मस्तकपर्यन्त नौ बित्ता- (एक सौ आठ अंगुल) का होता है तथा भुजाएँ जानुतक लम्बी होती हैं, उसका देवतालोग भी आदर करते हैं। प्रत्येक युगमें गौओं, हाथियों, भैंसों और स्थावर प्राणियोंके शरीरोंका हास एवं वृद्धि इसी क्रमसे जाननी चाहिये। पशु अपने कुकुद् (मौर) तक हर अंगुल होता है। हाथियों को ऊँचाई एक सौ आठ अंगुली बालायी जाती है। वृक्षों अधिक-से-अधिक ऊँचाई एक हजार बानवे अंगुलको होती है। मनुष्यके शरीरका जैसा आकार-प्रकार होता है,वही लक्षण वंशपरम्परावश देवताओंमें भी देखा जाता है। देवताओंका शरीर केवल बुद्धिकी अतिशयता युक्त बतलाया जाता है। मानव शरीरमें बुद्धिकी उतनी अधिकता नहीं रहती। इस प्रकार देवताओं और मानवोंके शरीरोंमें उत्पन्न हुए जो भाव हैं, वे पशुओं, पक्षियों और स्थावर प्राणियोंके शरीरोंमें भी पाये जाते हैं। गौ, बकरा, घोड़ा, हाथी, पक्षी और मृग इनका सर्वत्र यज्ञीय कर्मोंमें उपयोग होता है तथा ये पशुमूर्तियाँ क्रमशः देवताओंके उपभोगमें प्रयुक्त होती हैं। उन उपभोक्ता देवताओंके रूप और प्रमाणके अनुरूप ही उन चर-अचर प्राणियों की मूर्तियाँ होती है। वे उन मनोज भोगोंका उपभोग करके सुखका अनुभव करते हैं । ll 10- 19 ॥
अब मैं संतों तथा साधुओंका वर्णन कर रहा हूँ। ब्राह्मण ग्रन्थ और श्रुतियोंके शब्द ये भी देवताओंकी निर्देशिका मूर्तियाँ हैं अन्तःकरणमें इनके तथा ब्रह्मका संयोग बना रहता है, इसलिये ये संत कहलाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सामान्य एवं विशेष धर्मोमें सर्वत्र श्रौत एवं स्मार्त विधिके अनुसार कर्मका आचरण करते हैं। वर्णाश्रम धर्मोके पालनमें तत्पर तथा स्वर्ग प्राप्तिमें सुख माननेवाले लोगोंद्वारा आचरित जो श्रुति एवं स्मृतिसम्बन्धी धर्म है, उसे ज्ञानधर्म कहा जाता है। दिव्य सिद्धियोंकी साधनामें संलग्न तथा गुरुका हितैषी होनेके कारण ब्रह्मचारीको साधु कहते हैं। (अन्य आश्रमोंकी जीविकाका) निमित्त तथा स्वयं साधनामें निरत होनेके कारण गृहस्थ भी साधु कहलाता है। वनमें तपस्या करनेवाला साधु वैखानस नामसे अभिहित होता है। योगकी साधनामें प्रयत्नशील संन्यासीको भी साधु कहते हैं। 'धर्म' शब्द क्रियात्मक है और यह धर्माचरणमें ही प्रयुक्त होनेवाला कहा गया है। सामर्थ्यशाली भगवान्ने धर्मको कल्याणकारक और अधर्मको अनिष्टकारक बतलाया है तथा देवता, पितर, ऋषि और मानव 'यह धर्म है और यह धर्म नहीं है' ऐसा कहकर मौन धारण कर लेते हैं। 'धृ' धातु धारण करने तथा महत्त्वके अर्थमें प्रयुक्त होती है। अधारण एवं अधर्म शब्दका अर्थ इसके विपरीत है। आचार्यलोग इष्टकी प्राप्ति करानेवाले धर्मका ही उपदेश करते हैं। अधर्म अनिष्ट फलदायक होता है, इसलिये आचार्यगण उसका उपदेश नहीं करते।जो वृद्ध, निर्लोभ, आत्मज्ञानी, निष्कपट अत्यन्त विनम्र तथा
मृदुल स्वभाववाले होते हैं, उन्हें आचार्य कहा जाता है। धर्मके ज्ञाता द्विजातियोंद्वारा श्रौत एवं स्मार्त-धर्मका विधान किया गया है। इनमें दारसम्बन्ध (विवाह), अग्रिहोत्र और यज्ञ ये श्रौत धर्मके लक्षण हैं तथा यम और नियमोंसे युक्त वर्णाश्रमका आचरण स्मार्त-धर्म कहलाता है ॥। 20-30-3 ॥ सप्तर्षियोंने पूर्ववर्ती ऋषियोंसे श्रौत - धर्मका ज्ञान प्राप्त करके पुनः उसका उपदेश किया था। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद-ये ब्रह्माके अङ्ग हैं। व्यतीत हुए मन्वन्तरके धर्मोका स्मरण करके मनुने उनका उपदेश किया है। इसलिये वर्णाश्रमके विभागानुसार प्रयुक्त हुआ धर्म स्मार्त कहलाता है। इस प्रकार श्रौत एवं स्मार्तरूप द्विविध धर्मको शिष्टाचार कहते हैं। 'शिष्' धातुसे निसंज्ञक 'क्त' प्रत्ययका संयोग होनेसे 'शिष्ट' शब्द निष्पन्न होता है। प्रत्येक मन्वन्तरमें इस भूतलपर जो धार्मिकलोग वर्तमान रहते हैं, उन्हें शिष्ट कहा जाता है। इस प्रकार लोककी वृद्धि करनेवाले सप्तर्षि और मनु इस भूतलपर धर्मका प्रचार करनेके लिये स्थित रहते हैं, अतः वे शिष्ट शब्दसे अभिहित होते हैं वे शिष्टगण प्रत्येक युगमें मार्ग भ्रष्ट हुए धर्मकी पुनः स्थापना करते हैं। इसीलिये शिष्टगण दूसरे मन्यन्तरमें प्रजाओंक वर्णाश्रम धर्मकी सिद्धिके लिये पुनः वेदत्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद), वार्ता (कृषिव्यापार) और दण्डनीतिका आचरण करते हैं। इस प्रकार पूर्वके युगोंमें उपस्थित पूर्वजोंद्वारा अभिमत होनेके कारण यह शिष्टाचार सनातन होता है। दान, सत्य, तपस्या, निलभता, विद्या यज्ञानुष्ठान, पूजन और | इन्द्रियनिग्रह- ये आठ आचरण शिष्टाचारके लक्षण हैं। चूँकि मनु और सप्तर्षि आदि शिष्टगण सभी मन्वन्तरोंमें इस लक्षणके अनुसार आचरण करते हैं, इसलिये इसे शिष्टाचार कहा जाता है। इस प्रकार पूर्वानुक्रमसे श्रवण किये जाने के कारण युतिसम्बन्धी धर्मको प्रीत जानना चाहिये और स्मरण होनेके कारण स्मृति प्रतिपादित धर्मको स्मार्त कहा जाता है। श्रीतधर्म यज्ञ और वेदस्वरूप है तथा स्मार्तधर्म वर्णाश्रमधर्म-नियामक है । ll 31-40 ॥
अब मैं धर्मके प्रत्येक अङ्गका लक्षण बतला रहा हूँ। देखे तथा अनुभव किये हुए विषयके पूछे जानेपर उसे न छिपाना, अपितु घटित हुएके | अनुसार यथार्थ कह देना- यह सत्यका लक्षण है।ब्रह्मचर्य, तपस्या, मौनावलम्बन और निराहार रहना ये तपस्याके लक्षण हैं, जो अत्यन्त भीषण एवं दुष्कर हैं। जिसमें पशु, द्रव्य, हवि, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, ऋत्विज् तथा दक्षिणाका संयोग होता है, उसे यज्ञ कहते हैं। जो अपनी ही भाँति समस्त प्राणियोंके प्रति उनके हित तथा | मङ्गलके लिये निरन्तर हर्षपूर्वक व्यवहार करता है, उसकी वह श्रेष्ठ क्रिया दया कहलाती है। जो निन्दित होनेपर बदलेमें निन्दककी निन्दा नहीं करता तथा आघात किये जानेपर भी बदलेमें उसपर प्रहार नहीं करता, अपितु मन, वचन और शरीरसे प्रतीकारकी भावनासे रहित हो उसे सहन कर लेता है, उसकी उस क्रियाको क्षमा कहते हैं। स्वामीद्वारा रक्षके लिये दिये गये तथा हट परकीय धनको न ग्रहण करना निर्लोभ नामसे कहा जाता है। मैथुनके विषयमें सुनने, कहने तथा चिन्तन करनेसे निवृत्त रहना ब्रह्मचर्य है और यही शमका लक्षण है। 41-48 ।। जिसकी इन्द्रियाँ अपने अथवा परायेके हितके लिये विषयोंमें नहीं प्रवृत्त होतीं, यह दमका लक्षण है। जो पाँच कर्मेन्द्रियोंके विषयों तथा आठ प्रकारके कारणों में बाधित होनेपर भी क्रोध नहीं करता, वह जितात्मा कहलाता है। जो-जो पदार्थ अपनेको अभीष्ट हों तथा न्यायद्वारा उपार्जित किये गये हों, उन्हें गुणी व्यक्तिको दे देना- यह दानका लक्षण है। जो धर्म श्रुतियों एवं स्मृतियोंद्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रमके आचारसे युक्त तथा शिष्टाचारद्वारा परिवर्धित होता है, वही साधु-सम्मत धर्म कहलाता है। अनिष्टके प्राप्त होनेपर उससे द्वेष न करना, इष्टकी प्राप्तिपर उसका अभिनन्दन न करना तथा प्रेम, संताप और विषादसे विशेषतया निवृत्त हो जाना यह विरक्ति (वैराग्य) का लक्षण है किये हुए कर्मोंका न किये गये कर्मोंके साथ त्याग कर देना अर्थात् कृत अकृत दोनों प्रकारके कर्मोंका त्याग संन्यास कहलाता है तथा कुशल (शुभ) और अकुशल (अशुभ) दोनोंके परित्यागको न्यास कहते हैं। जिस ज्ञानके प्राप्त होनेपर अव्यक्तसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी प्रकारके विकार निवृत हो जाते हैं तथा चेतन और अचेतनका ज्ञान हो जाता है, उस ज्ञानसे युक्त प्राणीको ज्ञानी कहते हैं स्वायम्भुव मन्वन्तरमें धर्मतत्वके ज्ञाता पूर्वकालीन ऋषियोंने धर्मके प्रत्येक अङ्गका यही लक्षण बतलाया है ॥ 49-56 ॥ अब मैं आपलोगोंसे मन्वन्तरमें होनेवाले चारों वर्णोंके चातुर्होत्रकी विधिका वर्णन कर रहा हूँ।प्रत्येक मन्वन्तरमें विभिन्न प्रकारकी श्रुतिका विधान होता है, किंतु ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद-ये तीनों वेद देवताओंसे संयुक्त रहते हैं। अग्निहोत्रकी विधि तथा स्तोत्र पूर्ववत् चलते रहते हैं द्रव्यस्तोत्र गुणस्तर, कर्मस्तोत्र और अभिजनस्तोत्र- ये चार प्रकारके स्तोत्र होते हैं तथा सभी मन्वन्तरोंमें कुछ भेदसहित प्रकट होते हैं। उन्होंसे ब्रह्मस्तोत्रकी बारंबार प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार मन्त्रोंके गुणोंकी समुत्पत्ति चार प्रकारकी होती है, जो अथर्व, ऋक्, यजुः और साम- इन चारों वेदोंमें पृथक् पृथक् प्राप्त होती है। पूर्व मन्वन्तरके आदिमें परम दुष्कर तपस्यामें लगे हुए उन ऋषियोंके अन्तःकरण में ये मन्त्र प्रादुर्भूत होते हैं। ये असंतोष, भय, कष्ट, मोह और शोकरूप पाँच प्रकारके कष्टोंसे ऋषियोंकी रक्षा करते हैं। अब ऋषियोंका जैसा लक्षण, जैसी इच्छा तथा जैसा व्यक्तित्व होता है, उसका लक्षण बतला रहा हूँ। भूतकालीन तथा भविष्यकालीन ऋषियोंमें आर्य शब्दका प्रयोग पाँच प्रकारसे होता है। अब मैं आर्य शब्दको उत्पत्ति बतला रहा हूँ। समस्त महाप्रलयोंके समय जब सारा जगत् घोर अन्धकारसे आच्छादित हो जाता है, समय देवताओंका कोई विभाग नहीं रह जाता। तीनों गुण अपनी साम्यावस्थामें स्थित हो जाते हैं, तब जो बिना ज्ञानका सहारा लिये चेतनताको प्रकट करनेके लिये प्रवृत्त होता है, उस चेतनाधिष्ठित ज्ञानयुक्त कर्मको आर्ष कहते हैं। वे मत्स्य और उदककी भाँति आधाराधेयरूपसे प्रवृत्त होते हैं। तब सारा त्रिगुणात्मक जगत् चेतनासे युक्त हो जाता है ll 57-67 ll
उस जगत्की प्रवृत्ति कार्यकारण भावसे उसी प्रकार होती है, जैसे विषय और विषयित्व तथा अर्ध और पद परस्पर घुले-मिले रहते हैं। प्राप्त हुए कालके अनुसार कारणात्मक भेद उत्पन्न हो जाते हैं। तब क्रमशः महत्तत्त्व आदि प्राकृतिक तत्त्व प्रकट होते हैं। उस महत्तत्त्वसे अहंकार और अहंकारले भूतेन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात् उन भूतोंसे परस्पर अनेकों प्रकारके भूत उत्पन्न होते हैं। तब प्रकृतिका कारण तुरंत ही कार्य रूपमें परिणत हो जाता है। जैसे एक ही उल्मुक— मशालसे एक ही साथ अनेकों वृक्ष प्रकाशित हो जाते हैं, उसी प्रकार एक ही कारणसे | एक ही समय अनेकों क्षेत्रज्ञ जीव प्रकट हो जाते हैं।जैसे घने अन्धकारमें सहसा जुगनू चमक उठता है, वैसे ही जुगनूकी तरह चमकता हुआ अव्यक्त प्रकट हो जाता है। वह महात्मा अव्यक्त शरीरमें ही स्थित रहता है और महान् अन्धकारको पार करके बड़ी विलक्षणतासे जाना जाता है। वह विद्वान् अव्यक्त अपनी तपस्याके अन्त समयतक वहीं स्थित रहता है, ऐसा सुना जाता है। वृद्धिको प्राप्त होते हुए उस अव्यक्तके हृदयमें चार प्रकारको बुद्धि प्रादुर्भूत होती है। उन चारोंके नाम हैं-ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य और धर्म उस अव्यक्तके ये प्राकृतिक कर्म अगम्य हैं। महात्मा अव्यक्तके शरीरके चैतन्यसे सिद्धिका प्रादुर्भाव बतलाया जाता है। चूँकि वह पहले-पहल शरीरमें शयन करता है तथा उसे क्षेत्रका ज्ञान प्राप्त रहता है, इसलिये वह शरीरमें शयन करनेसे पुरुष और क्षेत्रका ज्ञान होनेसे क्षेत्रज्ञ कहलाता है। चूँकि वह धर्मसे उत्पन्न होता है, इसलिये उसे धार्मिक भी कहते हैं। प्राकृतिक शरीरमें बुद्धिका संयोग होनेसे वह अव्यक्त चेतन कहलाता है तथा क्षेत्रसे कोई प्रयोजन न होनेपर भी उसे क्षेत्रज्ञ कहा जाता है निवृत्तिके समय क्षेत्र उस अचेतन पुराणपुरुषको जानता है कि यह मेरा भोग्य विषय है ॥ 68- 80 ।।
'ऋषि' धातुका हिंसा और गति अर्थमें प्रयोग होता है इसीसे 'ऋषि' शब्द निष्पन्न हुआ है। चूंकि उसे ब्रह्मासे विद्या, सत्य, तप, शास्त्र ज्ञान आदि समूहोंकी प्राप्ति होती है, इसलिये उसे ऋषि कहते हैं। यह अव्यक्त ऋषि निवृत्तिके समय जब बुद्धि बलसे परमपदको प्राप्त कर लेता है, तब वह परमर्षि कहलाता है। गत्यर्थक' 'ऋषी धातुसे ऋषिनामको निष्पत्ति होती है तथा वह स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिये उसकी ऋषिता मानी गयी है। ब्रह्माके मानस पुत्र ऐश्वर्यशाली वे ऋषि स्वयं उत्पन्न हुए हैं। निवृत्तिमार्गमें लगे हुए वे ऋषि बुद्धिबलसे परम महान् पुरुषको प्राप्त कर लेते हैं। चूँकि वे ऋषि महान् पुरुषत्वसे युक्त रहते हैं, इसलिये महर्षि कहे जाते हैं। उन ऐश्वर्यशाली महर्षियोंको जो मानस एवं औरस पुत्र हुए, वे ऋषिपरक होनेके कारण प्राणियोंमें सर्वप्रथम ऋषि कहलाये। मैथुनद्वारा गर्भसे उत्पन्न हुए ऋषि पुत्रोंको ऋषीक कहा जाता है। चूँकि ये जीवोंको ब्रह्मपरक बनाते हैं इसलिये इन्हें ऋषिक | कहा जाता है। ऋषिकके पुत्रोंको ऋषि पुत्र जानना चाहिये।ये दूसरेसे ऋषिधर्मको सुनकर ज्ञानसम्पन्न होते हैं, इसलिये श्रुतर्षि कहलाते हैं। उनका वह ज्ञान अव्यक्तात्मा, महात्मा, अहंकारात्मा, भूतात्मा और इन्द्रियात्मा कहलाता है ।। 81-883 ॥
इस प्रकार ऋषिजाति पाँच प्रकारसे विख्यात है। भृगू मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलह, ऋतु, मनु, दक्ष वसिष्ठ और पुलस्त्य — ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्माके मानस पुत्र हैं और स्वयं उत्पन्न हुए हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परत्वसे युक्त हैं, इसलिये महर्षि माने गये हैं। अब इन ऐश्वर्यशाली महर्षियोंके पुत्ररूप जो ऋषि हैं, उन्हें सुनिये। काव्य (शुक्राचार्य), बृहस्पति, कश्यप, च्यवन, उतथ्य, वामदेव, अगस्त्य, कौशिक, कर्दम, बालखिल्य, विश्रवा और शक्तिवर्धन ये सभी ऋषि कहलाते हैं, जो अपने तपोबलसे ऋषिताको प्राप्त हुए हैं। अब इन ऋषियोंद्वारा गर्भसे उत्पन्न हुए ऋषीक नामक पुत्रोंको सुनिये। वत्सर, नग्नहू, पराक्रमी भरद्वाज, दीर्घतमा, बृहद्वक्षा, शरद्वान्, वाजिश्रवा, सुचिन्त, शाव, पराशर, शृङ्गी, शङ्खपाद् और राजा वैश्रवण- ये सभी ऋषीक हैं और सत्यके प्रभावसे ऋषिताको प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार जो ईश्वर (परमर्षि एवं महर्षि), ऋषि और ऋषीक नामसे विख्यात हैं, उनका वर्णन किया गया ।। 89-97 ॥
इसी प्रकार अब सभी मन्त्रकर्ता ऋषियोंका नाम पूर्णतया सुनिये। भृगु, काश्यप, प्रचेता दधीचि, आत्मवान्, ऊर्व, जमदग्नि, वेद, सारस्वत, आर्टिषेण च्यवन वीतिहव्य वेधा, वैण्य, पृभु दिवोदास, ब्रह्मवान् गृत्स और शौनक—ये उन्नीस भृगुवंशी ऋषि मन्त्रकर्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। अङ्गिरा, त्रित, भरद्वाज, लक्ष्मण, कृतवाच, गर्ग, स्मृति, संकृति, गुरुवीत, मान्धाता अम्बरीष, युवनाथ पुरुकुत्र स्वश्रव, सदस्यवान्, अजमीढ, अस्वहार्य, उत्कल, कवि, पृषदश्व, विरूप, काव्य, मुगल, उतथ्य, | शरद्वान् वाजश्रवा अपस्यीय सुचिति, वामदेव,ऋषिज, बृहच्छुक्ल, दीर्घतमा और कक्षीवान्ये तैंतीस श्रेष्ठ ऋषि अङ्गिरागोत्रीय कहे जाते हैं। ये सभी मन्त्रकर्ता हैं। अब कश्यपवंशमें उत्पन्न होनेवाले ऋषियोंके नाम सुनिये। कश्यप, सहवत्सार, नैध्रुव, नित्य, असित और देवल- ये छः ब्रह्मवादी ऋषि हैं। अत्रि, अर्धस्वन, शावास्य गविष्ठिर, सिद्धर्षि कर्णक और पूर्वातिथि-ये छः मन्त्रकर्ता महर्षि अत्रिवंशोत्पन्न कहे गये हैं। वसिष्ठ, शक्ति, तीसरे पराशर, इन्द्रप्रमित, पाँचवें भरद्वसु, छठे मित्रावरुण तथा सातवें कुण्डिन- इन सात ब्रह्मवादी ऋषियोंको वसिष्ठवंशोत्पन्न जानना चाहिये ॥ 98- 1103 ॥
गाधि- नन्दन विश्वामित्र, देवरात, बल, विद्वान् मधुच्छन्दा, अघमर्षण, अष्टक, लोहित, भूतकील, अम्बुधि, देवपरायण देवरात, प्राचीन ऋषि धनञ्जय, शिशिर तथा महान् तेजस्वी शालंकायन- इन तेरहोंको कौशिकवंशोत्पन्न ब्रह्मवादी ऋषि समझना चाहिये। अगस्त्य, दृढद्युम्न तथा इन्द्रबाहु ये तीनों परम यशस्वी ब्रह्मवादी ऋषि अगस्त्य कुलमें उत्पन्न हुए हैं। विवस्वान् पुत्र मनु तथा इला-नन्दन राजा पुरुरवा क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न हुए इन दोनों राजर्षियोंको मन्त्रवादी जानना चाहिये। भलन्दक, वासाश्व और संकील वैश्योंमें श्रेष्ठ इन तीनोंको मन्त्रकर्ता समझना चाहिये। इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुलमें उत्पन्न हुए बानवे ऋषियोंका वर्णन किया गया, जिन्होंने मन्त्रोंको प्रकट किया है। अब ऋषि पुत्रोंके विषयमें सुनिये। ये ऋषिपुत्र जो श्रुतर्षि कहलाते हैं, ऋषियोंके पुत्र हैं ।। 111 - 118 ll