ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जिन चारों युगोंका प्रवर्तन हुआ है, उनकी सृष्टि और संख्याके विषयमें हमलोग विस्तारपूर्वक सुनना चाहते हैं ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो । पृथ्वी और आकाशके प्रसङ्गसे मैंने पहले ही इन चारों युगोंका वर्णन कर दिया है, फिर भी (यदि आपलोगोंकी उनको सुननेकी अभिलाषा है तो) संख्यापूर्वक उनके प्रमाणको विस्तारके साथ समूचे रूपमें बतला रहा हूँ सुनिये। लौकिक प्रमाणके द्वारा मानवीय वर्षका आश्रय लेकर उसीके अनुसार गणना करके चारों युगोंका प्रमाण बतला रहा हूँ। पंद्रह निमेष (आँखके खोलने और मूँदनेका समय) की एक काष्ठा और तीस काष्ठाकी एक कला मानी जाती है। तीस कलाका एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूर्तके रात-दिन दोनों होते हैं। सूर्य मानवीय लोकमें दिन-रातका विभाजन करते हैं। उनमें रात्रि जीवोंके शयन करनेके लिये और दिन कर्ममें प्रवृत्त होनेके लिये है। पितरोंके रात-दिनका एक लौकिक मास होता है। उनमें रात-दिनका विभाग है। पितरोंके लिये कृष्णपक्ष दिन है और शुक्लपक्ष शयन करनेके लिये रात्रि है। मनुष्योंके तीस मासका पितरोंका एक मास कहा जाता है। इस प्रकार तीन सौ साठ मानव मासका एक पितृवर्ष होता है। यह गणना | मानवीय गणनाके अनुसार की जाती है। मानवीय गणनाके अनुसार एक सौ वर्ष पितरोंके तीन वर्षके बराबर माने गये हैं। इस प्रकार पितरोंके बारहों महीनोंकी संख्या बतलायी जा चुकी है। लौकिक प्रमाणके अनुसार जिसे एक मानव वर्ष कहते हैं, नहीं देवताओंका एक दिन-रात होता है ऐसी वैदिकी श्रुति है॥ 2-9 ॥
मानवीय वर्षके अनुसार जो देवताओंके रात-दिन होते हैं, उनमें भी पुनः विभाग हैं। उनमें उत्तरायणको देवताओंका दिन और दक्षिणायनको रात्रि कहा जाता है। इस प्रकार दिव्य रात-दिनकी गणना बतलायी जा चुकी ।| तोस मानवीय वर्षोंका एक दिव्य मास बतलाया जाता है। इसी प्रकार सौ मानवीय वर्षोंका तीन दिव्य मास माना गया है। यह दिव्य गणनाकी विधि कही जाती है । मानुषगणनाके अनुसार तीन सौ साठ वर्षोंका एक दिव्य (देव) वर्ष कहा गया है मानुषगणनाके अनुसार तीन हजार तीस वर्षोंका एक सप्तर्षि वर्ष होता है। नौ हजार नब्बे मानुष वर्षोका एक 'ध्रुव-संवत्सर' कहलाता है। छियानवे हजार मानुपवर्षोंका एक हजार दिव्य वर्ष होता है- ऐसा गणितज्ञ लोग कहते हैं। द्विजवरो। इस प्रकार ऋषियोंद्वारा दिव्य गणनाके अनुसार यह गणना बतलायी गयी है। इसी दिव्य प्रमाणके अनुसार युग संख्याकी भी कल्पना की गयी है। ऋषियोंने इस भारतवर्ष में चार युग बतलाये हैं। उन चारों युगोंके नाम हैं- कृत, त्रेता, द्वापर और कलि । इनमें सर्वप्रथम कृतयुग, तत्पश्चात् त्रेता, तब द्वापर और कलियुग आनेको परिकल्पना की गयी है। उनमें कृतयुग चार हजार (दिव्य) वर्षोंका बतलाया जाता है। इसी प्रकार चार सौ वर्षोंकी उसकी संध्या और चार सौ वर्षोंका संध्यांश होता है। इसके अतिरिक्त संध्या और संध्यांशसहित अन्य तीनों युगों में हजारों और सैकड़ोंको संख्यामें एक चतुर्थांश कम हो जाता है ।। 10-20 ll
इस प्रकार युगसंख्या- ज्ञाता लोग त्रेताका प्रमाण तीन हजार वर्ष, उसकी संध्याका प्रमाण तीन सौ वर्ष और संध्याके बराबर ही संध्यांशका प्रमाण तीन सौ वर्ष बतलाते हैं। द्वापरका प्रमाण दो हजार वर्ष और उसकी संध्या तथा संध्यांशका प्रमाण दो-दो सौ अर्थात् चार सौ वर्षोंका होता है। कलियुग एक हजार वर्षोंका बतलाया गया है तथा उसकी संध्या और संध्यांश मिलकर दो सौ वर्षोंके होते हैं। इस प्रकार कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- ये चार युग होते हैं और इनकी काल संख्या बारह हजार दिव्य वर्षोंकी बतायी गयी है। अब मानुषवर्षके अनुसार इन युगों में कितने वर्ष होते हैं, उसे सुनिये। इनमें कृतयुग सत्रह लाखअट्ठाईस हजार वर्षोंका कहा जाता है। इसी मानुष गणनाके अनुसार त्रेतायुगकी वर्ष संख्या बारह लाख छानबे हजार बतलायी गयी है। द्वापरयुग आठ लाख चौंसठ हजार मानुष वर्षोंका होता है मानुषगणनाके अनुसार कलियुगका मान चार लाख बत्तीस हजार वर्षोंका कहा गया है। चारों युगोंकी यह अवस्था मानव गणनाके अनुसार बतलायी गयी है। इस प्रकार संध्या और संध्यांशसहित चारों युगोंको संख्या बतलायी जा चुकी ll 21-28 ॥
( अब मन्वन्तरका वर्णन करते हैं। इन कृतयुग, त्रेता आदि युगोंकी यह चौकड़ी जब एकहत्तर बार बीत जाती है, तब उसे एक मन्वन्तर कहते हैं। अब मन्वन्तरकी वर्षसंख्या मानुषगणना के अनुसार सुनिये मानव-वर्षके अनुसार एक मन्वन्तरकी वर्ष संख्या एकतीस करोड़ दस लाख बत्तीस हजार आठ सौ अस्सी वर्ष छः महीनेकी बतलायी जाती है। अब मैं दिव्य गणनाके अनुसार मन्वन्तरका वर्णन कर रहा हूँ। एक मनुका कार्यकाल एक लाख चालीस हजार दिव्य वर्षोंका बतलाया जाता है। मन्वन्तरका समय युग वर्णनके साथ ही कहा जा चुका है। चारों युगोंकी यह चौकड़ी जब क्रमश: एकहत्तर बार बीत जाती है, तब उसे एक मन्वन्तर कहते हैं। कालतत्त्वको जाननेवाले विद्वान् मन्यन्तरके चौदह गुने कालको एक कल्प बतलाते हैं। इसके बाद सारी सृष्टिका विनाश हो जाता है, जिसे महाप्रलय कहते हैं। महाप्रलयका समय कल्पके समय से दुगुना होता है। इस प्रकार कृतयुग, त्रेता आदि चारों युगोंकी वर्ष संख्या बतलायी जा चुकी। अब मैं त्रेता, द्वापर और कलियुगकी सृष्टिका वर्णन कर रहा हूँ। कृतयुग और त्रेता—ये दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं, अतः इनका पृथक् रूपसे वर्णन नहीं किया जा सकता। इसी कारण इन दोनों युगोंके वर्णनका अवसर क्रमशः प्राप्त होनेपर भी मैंने आपलोगों से नहीं कहा। साथ ही उस समय ऋषि वंशका प्रसङ्ग छिड़ जानेपर चित्त व्याकुल हो उठा था। उस समय जो नहीं कहा था, वह शेषांश अब त्रेतायुगके वर्णन प्रसङ्गमें कह रहा हूँ, सुनिये ॥29 - 396 ॥
त्रेतायुग आदिमें जो मनु और सप्तर्षिगण थे, उन लोगोंने ब्रह्माकी प्रेरणासे श्रौत और स्मार्त धर्मोका वर्णन किया था। उस समय सप्तर्षियोंने दार-सम्बन्ध (विवाह), अग्निहोत्र, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदकी संहिता आदि अनेकविध श्रौत धर्मोका विवेचन किया था। उसी प्रकार स्वायम्भुव मनुने वर्णों एवं आश्रमोंके धर्मोसे युक्त परम्परागत आचार-लक्षणरूप स्मार्त-धर्मका वर्णन किया था त्रेतायुगके आदिमें उत्कृष्ट तपस्यावाले उन सप्तर्षियों तथा मनुके हृदयमें वे मन्त्र सत्य, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-ज्ञान, तपस्या तथा ऋषि परम्पराके अनुक्रमसे बिना सोचे विचारे ही दर्शनों एवं तारकादिद्वारा एक ही बारमें स्वयं प्रकट हो गये थे। वे ही मन्त्र आदि कल्पमें देवताओंके हृदयोंमें स्वयं उद्भूत हुए थे। वह मन्त्रयोग हजारों गत कल्पोंमें सिद्धों तथा अन्यान्य लोगोंके लिये भी प्रमाणरूपमें प्रयुक्त होता था। वे मन्त्र पुनः उन देवताओंकी प्रतिमाओं में भी उपस्थित हुए। इस प्रकार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद सम्बन्धी जो मन्त्र हैं, वे सप्तर्षियोंद्वारा कहे गये हैं। स्मार्तधर्मका वर्णन तो मनुने किया है। त्रेतायुगके आदिमें ये सभी वेद धर्मके सेतु-स्वरूप थे, किंतु द्वापरयुगमें आयुके न्यून हो जानेके कारण उनका विभाग कर दिया गया है। ऋषि अपने धर्मसे परिपूर्ण हैं। वे तपमें निरत हो रात-दिन वेदाध्ययन करते थे। ब्रह्माने सर्वप्रथम प्रत्येक युगमें युगधर्मानुसार इनका साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया है। वे योगानुकूल वेदवादसे स्खलित होकर अपने धर्मसे विकृत हो जाते हैं। त्रेतायुगमें ब्राह्मणोंका धर्म जपयज्ञ, क्षत्रियोंका यज्ञारम्भ, वैश्योंका हविर्यज्ञ और शूद्रोंका सेवायज्ञ कहा जाता था। उस समय सभी वर्णके लोग उन्नत, धर्मात्मा, क्रियानिष्ठ, संतानयुक्त, समृद्ध और सुखी थे परस्पर प्रेमपूर्वक ब्राह्मण क्षत्रियोंके लिये और क्षत्रिय वैश्योंके लिये सब प्रकारका विधान करते थे तथा शूद्र वैश्योंका अनुवर्तन करते थे। उनके स्वभाव सुन्दर थे तथा उनके धर्म वर्ण एवं आश्रमके अनुकूल होते थे ॥ 40 - 523 ॥
समूचे कार्यकालमें मानसिक संकल्प वचन और हाथसे प्रारम्भ किये गये कर्म सिद्ध होते थे। त्रेतायुगमें आयु, रूप, बल, बुद्धि, नीरोगता और धर्मपरायणता ये सभी गुण सर्वसाधारण लोगों में भी विद्यमान थे।ब्रह्माने स्वयं इनके लिये की व्यवस्था की भी तथा ब्रह्मा के मानसिक पुत्र ऋषियोंद्वारा संहिताओं, मन्त्रों, नीरोगता और धर्मपरायणताका विधान किया गया था। उसी समय देवताओंने यज्ञकी भी प्रथा प्रचलित की थी। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें सम्पूर्ण यज्ञिय साधनों सहित याम शुक्ल, जग, विश्व तथा महान तेजस्वी देवराज इन्द्रके रथ देवताओंने सर्वप्रथम इन यहाँका प्रचार किया था। उस समय सत्य, जप, तप और दान-ये ही प्रारम्भिक धर्म कहलाते थे जब इन धर्मोका द्वारा प्रारम्भ होता था और अधर्मकी शाखाएँ बढ़ने लगती थीं, तब त्रेतायुगमें ऐसे शूरवीर चक्रवर्ती सम्राट् उत्पन्न होते थे, जो दीर्घायुसम्पन्न, महाबली, दण्ड देनेवाले, महान् योगी, यज्ञपरायण और ब्रह्मनिष्ठ थे, जिनके नेत्र कमलदलके समान विशाल और सुन्दर, मुख भरे-पूरे और शरीर सुसंगठित थे, जिनकी छाती सिंहके समान चौड़ी थी, जो महान् पराक्रमी और मतवाले गजराजकी भाँति चलनेवाले और महान् धनुर्धर थे, वे सभी राजलक्षणोंसे परिपूर्ण तथा न्यग्रोध (बरगद) सदृश मण्डलवाले थे। यहाँ दोनों बाहुओंको ही न्यग्रोध कहा जाता है तथा व्योममें फैलायी हुई बाहुओंका मध्यभाग भी न्यग्रोध कहलाता है। उस व्योमकी ऊँचाई और विस्तारवाला 'न्यग्रोधपरिमण्डल' कहलाता है, अतः जिस प्राणीका शरीर व्योमके बराबर ऊँचा और विस्तृत हो, उसे न्यग्रोधपरिमण्डल* कहा जाता है। पूर्वकालके स्वायम्भुव मन्वन्तरमें चक्र (शासन, अज्ञाद भी), रथ, मणि, भार्या, निधि, अश्व और गज ये सातों (चल) रत्न कहे गये हैं। दूसरा चक्र (अचल) रथ, मणि, खड्ग, धनुष, रत्न, झंडा और खजाना - ये स्थिर (अचल) सप्तरल हैं। (सब मिलकर ये ही राजाओंके चौदह रत्न हैं।) बीते हुए एवं आनेवाले सभी मन्वन्तरोंमें भूतलपर चक्रवर्ती सम्राट् विष्णुके अंशसे उत्पन्न होते हैं ll 53-65 ll
इस प्रकार भूत, भविष्य और वर्तमानमें जितने त्रेतायुग हुए होंगे और हैं, उन सभीमें चक्रवर्ती सम्राट् उत्पन्न होते हैं। उन भूपालोंके बल, धर्म, सुख और धन-ये चतुर्भद्र चारों अत्यन्त अद्भुत और माङ्गलिक होते हैं। उनको अर्थ धर्म, काम, यश और विजय ये सभी सरपर अविरोध भावसे प्राप्त होते हैं।प्रभुशक्ति और बलसे सम्पन्न वे नृपतिगण ऐश्वर्य, अणिमा आदि सिद्धि, शाखज्ञान और तपस्यामे ऋषियोंसे भी बढ़-चढ़कर होते हैं इसलिये वे सम्पूर्ण देव-दानवों और मानवों को बलपूर्वक पराजित कर देते हैं। उनके शरीरमें स्थित सभी लक्षण दिये होते हैं उनके सिरके बाल ललाटतक फैले रहते हैं। उनकी जीभ बड़ी स्वच्छ और स्निग्ध होती है। उनकी अङ्गकान्ति लाल होती है। उनके चार दाढ़े होते हैं। वे उत्तम वंशमें उत्पन्न ऊर्ध्वरेता, आजानुबाहु, जालहस्त हाथोंमें जालचिह्न तथा बैल आदि देश चिहयुक्त परिणाहमात्र लम्बे होते हैं। उनके कंधे सिंहके समान मांसल और वे यज्ञपरायण होते हैं। उनके पैरोंमें चक्र और मत्स्यके तथा हाथोंमें शङ्ख और पद्मके चिह्न होते हैं। वे बुढ़ापा और व्याधिसे रहित होकर पचासी हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं। वे चक्रवर्ती सम्राट् अन्तरिक्ष, समुद्र, पाताल और पर्वत इन चारों स्थानोंमें एकाकी एवं स्वच्छन्दरूपसे विचरण करते हैं। यज्ञ, दान, तप और सत्यभाषण- ये त्रेतायुगके प्रधान धर्म कहे गये हैं। ये धर्म वर्ण एवं आश्रमके विभागपूर्वक प्रवृत्त होते हैं। इनमें मर्यादाकी स्थापनाके निमित्त दण्डनीतिका प्रयोग किया जाता है। त्रेतायुगमें एक वेद चार भागों में विभक्त होकर विधान करता है। उस समय सभी लोग हृष्ट-पुष्ट, नीरोग और सफल मनोरथ होते हैं। वे प्रजाएँ तीन हजार वर्षोंतक जीवित रहती हैं और पुत्र-पौत्रसे युक्त होकर क्रमशः मृत्युको प्राप्त होती हैं। यही त्रेतायुगका स्वभाव है। अब उसकी संध्याके विषयमें सुनिये। इसकी संध्यामें युग-स्वभावका एक चरण रह जाता है। उसी प्रकार संध्यांशमें संध्याका चतुर्थांश शेष रहता है अर्थात् उत्तरोत्तर परिवर्तन होता जाता है ।। 66-78 ॥