नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी। इसके बाद मैं प्रयागके माहात्म्यका वर्णन कर रहा हूँ जिसे पूर्वकालमें महर्षि मार्कण्डेयने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरसे कहा था। जब महाभारत युद्ध समाप्त हो गया और कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको राज्य प्राप्त हो गया, इसी बीच कुन्ती नन्दन महाराज युधिष्ठिर भाइयोंके शोकसे अत्यन्त दुःखो होकर बारम्बार इस प्रकार चिन्तन करने लगे- 'हाय ! जो राजा दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका स्वामी था,वह हमलोगोंको अनेकों बार कष्टमें डालकर अपने सभी सहायकोंके साथ कालके गालमें चला गया। श्रीकृष्णका आश्रय लेनेके कारण केवल हम पाँच पाण्डव ही शेष रह गये हैं। गोविन्द ! हमलोगोंने भीष्म, द्रोण, महाबली कर्ण और पुत्रों एवं भाइयोसमेत राजा दुर्योधनको मारकर जो अन्य शूर मानी नरेश थे उन सबका भी संहार कर डाला, ऐसी परिस्थितिमें हमें राज्यसे क्या लेना है, अथवा भोगों एवं जीवनसे ही क्या प्रयोजन है? 'हाय धिकार है, महान् कष्ट आ पड़ा' - ऐसा सोचकर राजा युधिष्ठिर व्याकुल हो गये और निश्चेष्ट एवं उत्साहरहित हो कुछ देरतक नीचे मुख किये बैठे ही रह गये। जब राजा युधिष्ठिरको पुनः चेतना प्राप्त हुई तब वे इस प्रकार सोचने लगे-'ऐसा कौन-सा विनियोग (प्रायश्चित्त), नियम (व्रतोपवास) अथवा तीर्थ है, जिसका सेवन करनेसे मैं शीघ्र ही इस महापातकके पापसे मुक्त हो सकूँगा, अथवा जहाँ निवास कर मनुष्य सर्वोत्तम विष्णुलोकको प्राप्त कर सकता है। इसके लिये मैं श्रीकृष्णसे कैसे पूछें क्योंकि उन्होंने ही तो मुझसे ऐसा कर्म करवाया है। दादा धृतराष्ट्रसे भी किसी प्रकार नहीं पूछ सकता; क्योंकि उनके सौ पुत्र मार डाले गये हैं।' ऐसा सोचकर धर्मराज युधिष्ठिर व्याकुल हो गये। उस समय सभी पाण्डव भ्रातृ शोकमें निमग्र होकर रुदन कर रहे थे। उस समय राजा युधिष्ठिरके समीप जो अन्य महात्मा पुरुष आये थे तथा कुन्ती, द्रौपदी एवं अन्यान्य जो लोग आ गये थे, वे सभी रोते हुए युधिष्ठिरको घेरकर पृथ्वीपर पड़ गये ll 1-12 ॥
उस समय महर्षि मार्कण्डेय वाराणसीमें निवास कर रहे थे। उन्हें जिस प्रकार युधिष्ठिर दुःखी और व्याकुल हो रो रहे थे, ये सारी बातें (योगबलसे) ज्ञात हो गयीं। तब महातपस्वी मार्कण्डेय थोड़े ही समय में हस्तिनापुर जा पहुँचे और राजद्वारपर उपस्थित हुए। उन्हें आया हुआ देखकर द्वारपालने तुरंत राजाको सूचना देते | हुए कहा- 'महाराज! ये महामुनि मार्कण्डेय आपसे मिलनेके लिये दरवाजेपर खड़े हैं।' यह सुनते ही धर्म-पुत्र युधिष्ठिर शीघ्रतापूर्वक दरवाजेपर आ पहुँचे ।। 13-15 ll
युधिष्ठिरने कहा- महाभाग ! आपका स्वागत है। महामुने! आपका स्वागत है। महामुने! आपका दर्शन करके आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मैंने अपने कुलका उद्धार कर दिया तथा आज मेरे पितर संतुष्ट हो गये। आपका जो यह (आकस्मिक) दर्शन प्राप्त हुआ, | इससे आज मेरा शरीर पवित्र हो गया ॥ 16-17 ।।नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी ! तत्पश्चात् महात्मा युधिष्ठिरने मार्कण्डेय मुनिको सिंहासनपर बैठाकर पादप्रक्षालन आदि अर्चाविधिके अनुसार उनकी पूजा की। तब पूजनसे संतुष्ट हुए मुनिवर मार्कण्डेयने राजा युधिष्ठिरसे पूछा- 'राजन्! तुम किसलिये रो रहे थे ? किसने तुम्हें व्याकुल कर दिया ? तुम्हें कौन-सी बाधा सता रही है? तुम्हारा कौन-सा अमङ्गल हो गया ? यह सब हमें शीघ्र बतलाओ' ।। 18-19 ।।
युधिष्ठिरने कहा - महामुने! राज्यकी प्राप्तिके लिये हमलोगोंने जैसा जैसा व्यवहार किया है, वही सब सोचकर मैं चिन्ताके वशीभूत हो गया हूँ ॥ 20 ॥
मार्कण्डेयजी बोले- महाबाहु राजन्! क्षात्रधर्मकी व्यवस्था तो सुनो। इसके अनुसार रणस्थलमें युद्ध करते हुए बुद्धिमान् के लिये पाप नहीं बतलाया गया है, तब फिर राजधर्मके अनुसार विशेषरूपसे युद्ध करनेवाले क्षत्रियके लिये तो पापकी बात ही क्या है। हृदयमें ऐसा विचारकर युद्धसे उत्पन्न हुए पापकी भावनाको छोड़ दो। तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने मुनिवर मार्कण्डेयको सिर झुकाकर प्रणाम किया और विनम्रतापूर्वक समस्त पापोंका विनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न किया ll 21 - 23 ॥
युधिष्ठिरने पूछा- महाप्राज्ञ ! आप तो नित्य त्रैलोक्यदर्शी हैं, अतः मैं आपसे पूछ रहा हूँ। आप संक्षेपमें कोई ऐसा साधन बतलाइये, जिसका पालन करनेसे पापसे छुटकारा मिल सके ॥ 24 ॥
मार्कण्डेयजी बोले- महाबाहु राजन्! सुनो, पुण्यकर्मा मनुष्योंके लिये प्रयाग-गमन ही सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला सर्वश्रेष्ठ साधन है ॥ 25 ॥