ईश्वरने कहा- नारद! इसके बाद मैं सर्वश्रेष्ठ रौप्याचल अर्थात् रजतशैलका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका दान करनेसे मनुष्य सर्वश्रेष्ठ चन्द्रलोकको प्राप्त करता है। दस हजार पल चाँदीसे बना हुआ रजताचल उत्तम, पाँच हजार पलसे बना हुआ मध्यम और ढाई हजार पलसे बना हुआ अधम कहा गया है। यदि दाता ऐसा करनेमें असमर्थ हो तो उसे अपनी शक्तिके अनुसार बीस पलसे कुछ अधिक चाँदीद्वारा पर्वतका निर्माण कराना चाहिये। उसी प्रकार प्रधान पर्वतके चतुर्थांशसे विष्कम्भपर्वतोंकी भी कल्पना करनेका विधान है। पहलेकी तरह चाँदीके द्वारा मन्दर आदि पर्वतोंका निर्माण कर उनके नितम्बभागको सोनेसे सुशोभित कर दे। उनपर लोकपालोंकी स्वर्णमयी मूर्ति स्थापित कर उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और सूर्यकी मूर्तियोंसे भी संयुक्त कर दे। तत्पश्चात् बुद्धिमान् दाता इन सबकी विधिपूर्वक अर्चना करे। सारांश यह है कि अन्य पर्वतोंमें जो उपकरण चाँदीके होते हैं, वे सभी इसमें सुवर्णके होने चाहिये।शेष हवन, जागरण आदि सारे कार्य धान्यपर्वतकी भाँति ही करे। तत्पश्चात् प्रातःकाल वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा गुरु और ऋत्विजोंका पूजन कर रजताचल गुरुको और विष्कम्भपर्वत ऋत्विजोंको दान कर दे। उस समय मत्सररहित हो हाथमें कुश लेकर इस मन्त्रका पाठ करे- 'रजताचल! तुम पितरोंको तथा श्रीहरि, सूर्य, इन्द्र और शिवको परम प्रिय हो, इसलिये शोकरूपी संसार सागरसे मेरी रक्षा करो।' जो मानव इस प्रकार निवेदन कर श्रेष्ठ रजताचलका दान करता है, वह दस हजार गो-दानका फल प्राप्त करता है। वह विद्वान् चन्द्रलोकमें गन्धर्वों, किन्नरों और अप्सराओंके समूहों से पूजित होकर प्रलयकालतक निवास करता है ॥ 1-10॥