ईश्वरने कहा – नारद! अब मैं एक अन्य तृतीयाका भी वर्णन कर रहा हूँ जो पापोंका विनाश करनेवाली है, तथा जिसे पुराकल्पके ज्ञातालोग 'रस कल्याणिनी' के नामसे जानते हैं। माघका महीना आनेपर शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको प्रातः काल व्रतीको गोदुग्ध और तिलमिश्रित जलसे स्नान करना चाहिये। (इस प्रकार स्वयं शुद्ध होकर) फिर देवीकी मूर्तिको मधु और गन्ने के रससे स्नान करावे। तत्पश्चात् सुगन्धित जलसे शुद्ध स्नान कराकर कुङ्कुमका अनुलेप करे। पूजनमें दक्षिणाङ्गकी पूजा कर लेनेके पश्चात् वामाङ्गकी पूजा करनेका विधान है। 'ललितायै नमः' से देवीके दोनों चरणों तथा दोनों गुल्फोंकी अर्चना करे । 'शान्त्यै नमः ' से जंघाओं और जानुओंका, 'श्रियै नमः' से ऊरुओंका,'मदालसायै नमः' से कटिभागका, 'अमलायै नमः ' से उदरका 'मदनवासिन्यै नमः' से दोनों स्तनोंका 'कुमुदायै नमः 'से कंधोंका, 'माधव्यै नमः 'से भुजाओं और भुजाओंके अग्रभागका 'कमलायै नमः' से मुख और मुसकानका, 'रुद्राण्यै नमः' से भौहों और ललाटका, 'शङ्कराय नमः' से बालोंका 'विश्ववासिन्यै नमः 'से मुकुटका और 'कान्त्यै नमः' से सिरका पूजन करे। पुनः (पूजनका अन्य क्रम बतलाते हैं -) 'मदनायै नमः' से ललाटकी, 'मोहनायै नमः' से दोनों भौहोंकी, 'चन्द्रार्धधारिण्यै नमः ' से दोनों नेत्रोंकी, 'तुष्ट्यै नमः' से मुखको, 'उत्कण्ठिन्यै नमः' से कष्टको 'अमृतायै नमः' से दोनों स्तनोंकी, रम्भायै नमः 'सेवार्थी कुक्षिकी, 'विशोकायै नमः 'से कटिभागकी, 'मन्मथाधिष्ण्यै नमः' से हृदयको, 'पाटलायै नमः' से उदरको 'सुरतवासिन्यै नमः से कटिप्रदेशकी 'चम्पकप्रियायै नमः' से करुओंकी, 'गौर्यै नमः' से जंघाओं और जानुओंकी, 'गायत्र्यै नमः' से घुटनोंकी, 'धराधरायै नमः' से दोनों चरणोंकी और 'विश्वकायै नमः' से सिरकी पूजा करके 'भवान्यै नमः', 'कामिन्यै नमः', 'कामदेव्यै नमः', 'जगत्प्रियायै नमः' कहकर चरणोंमें प्रणिपात (प्रणाम) करना चाहिये ॥ ll 1-11॥ इस प्रकार विधि-विधानके साथ देवीकी पूजा
करके एक द्विज-दम्पतिका भी पूजन करना चाहिये। उस समय प्रती अहंकाररहित हो अर्थात् विनम्रतापूर्वक उन्हें मधुर अत्र और जलका भोजन कराकर दो श्वेत वस्त्रोंसे परिवेष्टित एवं स्वर्णनिर्मित कमलसहित जलसे भरा हुआ बड़ा प्रदान करे फिर चन्दन और पुष्पमाला आदिसे उनकी अर्चना करे, तथा इस प्रकार कहे- 'इस व्रतसे कुमुदा देवी प्रसन्न हो। ऐसा कहकर उस दिन लवण व्रत ग्रहण करे अर्थात् नमक खाना छोड़ दे। इसी विधिसे प्रत्येक मासमें सदा देवीकी अर्चना करनी चाहिये। व्रतीको मायमें नमक और फाल्गुनमें गुड़ नहीं खाना चाहिये। चैत्रमें तेल और पोलो सरसों (या राई) तथा वैशाखमें मधु वर्जित है। ज्येष्ठमासमें पानक (एक प्रकारका पेय पदार्थ या ताम्बूल), आषाढ़में जीरा, आवणमें दूध और भाद्रपदमें दही निषिद्ध है। इसी प्रकार आश्विनमें घी और कार्तिकमें मधुका निषेध किया गया है। मार्गशीर्षमें धनिया और पौषमें शकर वर्जित है।इस प्रकार इन महीनोंके क्रमसे प्रत्येक मासमें व्रतकी समाप्तिके समय सायंकालकी वेलामें उपर्युक्त पदार्थोंसे भरा हुआ एक करवा पूर्णपात्रसहित ब्राह्मणको दान करे इसी तरह चेत रंगके लड्डू, गोझिया, पूरी, पेवर, पूआ, आटेका बना हुआ पूआ, मण्डक (एक प्रकारका पिष्टक), दूध, शाक, दही मिश्रित अत्र, इण्डरी (एक प्रकारको रोटी) और अशोकवर्तिका (सेंवई ) - इन पदार्थोंको माघ आदि मासक्रमसे करवाके ऊपर रखकर दान करनेका विधान है। फिर कुमुदा, माधवी, गौरी, रम्भा, भद्रा, जया, शिवा, उमा, रति, सती, मङ्गला, रतिलालसा प्रसन्न हों—ऐसा कहकर माघ आदि सभी मासोंमें क्रमशः कीर्तन करना चाहिये ॥ 12-213॥
सभी मासोंके व्रतमें पञ्चगव्यका प्राशन (भक्षण) बतलाया गया है। इन सभी व्रतोंमें उपवास करनेका विधान है। यदि उपवास करनेमें असमर्थ हो तो रात्रिमें एक बार तारिकाओंके निकल आनेपर भोजन किया जा सकता है। वर्षान्तमें पुनः माघमास आनेपर गौरीकी एक सोनेकी मूर्ति बनवाये जो अँगूठेके बराबर लम्बी हो वह चार भुजाओं और ललाटमें चन्द्रमासे युक्त हो। उसे पञ्चरत्रोंसे विभूषित और दो श्वेत वस्त्रोंसे आच्छादित कर दे। फिर करवामें शक्कर भरकर उसीके ऊपर उस मूर्तिको स्थापित करके रुद्राक्षको माला और कमण्डलुसहित ब्राह्मणको दान कर दे। उसी प्रकार गौके जोड़ेको, जिनका रंग श्वेत और मुख सुवर्णसे मढ़ा हुआ हो, जो श्वेत वस्त्रसे आच्छादित हों, अन्य वस्त्र और पात्रके सहित दान करके 'भवानी प्रसन्न हों' यों कहकर प्रार्थना करनी चाहिये। जो मनुष्य इस विधिके अनुसार रसकल्याणिनीव्रतका अनुष्ठान करता है, वह उसी क्षण समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और नौ अरब एक हजार वर्षोंतक कष्टमें नहीं पड़ता। गौरि इसी प्रकार जो मनुष्य प्रत्येक मासमें स्वर्णनिर्मित कमलका दान करता है वह हजारों अग्निष्टोम यज्ञोंका जो फल होता है, उसे प्राप्त कर लेता है। वरानने। सधवा स्त्री, कुमारी अथवा विधवा | स्त्री-कोई भी यदि इस व्रतका अनुष्ठान करती है तो वह भी उस फलको प्राप्त होती है, साथ ही सौभाग्य और | आरोग्यसे सम्पन्न होकर गौरी-लोकमें पूजित होती है।इस प्रकार जो मनुष्य प्रसङ्गवश इस व्रतको पढ़ता, सुनता अथवा दूसरेको सुनाता है, वह कलियुगके पापोंसे मुक्त होकर पार्वती-लोकमें जाता है तथा जो मनुष्योंकी हित कामनासे इस व्रतका अनुष्ठान करनेके लिये सम्मति देता है, वह इन्द्रके विमानमें स्थित होकर अक्षयकालतक | नायक नेताका पद प्राप्त करता है । ll 22- 29 ॥