मत्स्यभगवान्ने कहा—–मनु महाराज ! अब मैं आपसे राजाके अनुचरोंको उनके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, यह बतला रहा हूँ, आप इसे सुनिये।रविनन्दन । राजाद्वारा राजकार्यमें नियुक्त व्यक्तिको चाहिये कि वह कार्यको सब तरहसे जानकर यथाशक्ति उसका पालन करे। राजा जो बात कह रहे हों, उसे वह प्रयत्नपूर्वक सुने, बीचमें उनकी बात काटकर अपनी बात न कहे। जनसमाजमें राजाके अनुकूल एवं प्रिय बातें कहनी चाहिये, किंतु एकान्तमें बैठे हुए राजासे अप्रिय बात भी कही जा सकती है, यदि वह हितकारी हो। राजन्! जिस समय राजाका चित्त स्वस्थ हो, उस समय दूसरोंके हितकी बातें उससे कहनी चाहिये। अपने स्वार्थकी बात राजासे स्वयं कभी भी न कहे, अपने मित्रोंसे कहलाये। सभी कार्यों में कार्यका दुष्प्रयोग न हो, इसकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये तथा नियुक्त होनेपर धनका थोड़ा भी अपव्यय न होने दे। राजाके सम्मानकी उपेक्षा न करे, सर्वदा राजाके प्रियकी चिन्ता करे, राजाकी वेश-भूषा, बात-चीत एवं आकार-प्रकारकी नकल न करे। राजाके लीला-कलापोंका भी अनुकरण न करे, वह राजाके अभीष्ट विषयोंको सर्वथा छोड़ दे। ज्ञानवान् पुरुषको राजाके समान अथवा उससे बढ़कर भी अपनी वेशभूषा नहीं बनानी चाहिये। द्यूतक्रीड़ा आदिमें तथा अन्यत्र भी राजाकी अपेक्षा अपने कौशलका प्रदर्शन करे और उसी प्रसङ्गमें अपनी कुशलता दिखाकर राजाकी विशेषता प्रकट करे। राजन्! राजाकी आज्ञाके बिना अन्तःपुरके अध्यक्षों, शत्रुओंके दूतों तथा | निकाले हुए अनुचरोंके निकट न जाय। अपने प्रति राजाकी स्नेहहीनता तथा अपमानको प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखे और राजाकी जो गोपनीय बात हो, उसे सर्वसाधारणके सम्मुख प्रकट न करे ॥ 1-10 ॥
नृपोत्तम! राजपुरुष राजाद्वारा कही गयी गुप्त या प्रकट बातको सर्वसाधारणके समक्ष कभी न सुनाये । ऐसा करनेसे वह राजाका विरोधी हो जाता है। जिस समय राजा दूसरे व्यक्तिसे किसी कामके लिये कहें, उस समय बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शीघ्रतापूर्वक स्वयं उठकर राजासे कहे कि 'मैं क्या करूँ ?' कार्यकी अवस्थाको देखकर जैसा करना उपयुक्त हो, वैसा ही करना चाहिये क्योंकि सदा एक-सा करते रहनेपर निश्चित ही वह राजाकी दृष्टिमें हेय हो जाता है। राजाको प्रिय लगनेवाली बातोंको भी उनके सामने बार-बार न कहे, न उठाकर हँसे और न भृकुटी ही ताने। न बहुत बोले, न एकदम चुप ही रहे, न असावधानी प्रकट करे और न कभी आत्मसम्मानी होनेका भाव हो प्रदर्शित करे।राजाके दुष्कर्मकी चर्चा कभी नहीं करना चाहिये। राजाद्वारा दिये गये वस्त्र, अस्त्र और अलंकारको धारण करे। ऐश्वर्यकी कामना करनेवाले भृत्यको उन वस्त्रादि सामग्रियोंको उदारतावश दूसरेको नहीं देना चाहिये। (राजाके सम्मुख यदि कभी भोजन करनेका अवसर आये तो) न अधिक भोजन करे और न दिनमें शयन करे। जिससे प्रवेश करनेका निर्देश नहीं है, उस द्वारसे कभी प्रवेश न करे और अयोग्य स्थानपर स्थित राजाकी ओर न देखे। राजाके दाहिने या बायें पार्श्वमें बैठना चाहिये। सम्मुख या पीछेकी ओर बैठना निन्दित है। राजाके समीप जमुआई लेना, थूकना, खखारना, खाँसना, क्रोधित होना, आसनपर तकिया लगाकर बैठना, भृकुटी चढ़ाना, वमन करना या उद्गार निकालना- ये सभी कार्य नहीं करने चाहिये। बुद्धिमान् भृत्य राजाके सम्मुख अपने गुणोंकी श्लाघा न करे। अपने गुणको सूचित करनेके लिये युक्तिपूर्वक दूसरेको ही प्रयुक्त करना चाहिये। अनुचरोंको हृदय निर्मल करके | परम भक्तिके साथ राजाओंके प्रति नित्य सावधान रहना चाहिये। राजाके अनुचरोंको शठता, लोभ, छल, नास्तिकता, क्षुद्रता, चञ्चलता आदिका नित्य परित्याग कर देना | चाहिये। शास्त्रज्ञ एवं विद्याभ्यासियोंसे स्वयं अपना सम्पर्क स्थापित करके ऐश्वर्य बढ़ानेवाली राजसेवाको अपनी | समृद्धिके लिये करनी चाहिये। राजाके पुत्र, प्रिय परिजन और मन्त्रियोंको नमस्कार करना चाहिये, किंतु उनके मन्त्रियोंका कभी विश्वास न करे ।। 11-25॥
बिना पूछे राजासे कुछ न कहे, यदि कहे भी तो जो राजाके हितके रूपमें सुनिश्चित हितकर और यथार्थ बात हो वह कहे। अनुचरोंको नित्य राजाकी मनोदशाका पता लगाते रहना चाहिये। मनोभावोंको समझनेवाला अनुचर ही अपने स्वामीकी सुखपूर्वक सेवा कर सकता है। अपने कल्याणकी कामना करनेवाले अनुचरको राजाके अनुराग और विरागका पता लगाते रहना चाहिये। विरक्त राजाको छोड़ दे और अनुरक्तकी सेवामें सदा तत्पर रहना चाहिये; क्योंकि विरक्त राजा उसका नाश कर विपक्षियोंको उन्नत बनाता है, आशाको बढ़ाकर उसके फलका नाश कर देता है, क्रोधका अवसर न रहनेपर भी वह क्रुद्ध ही दिखायी पड़ता है तथा प्रसन्न होकर भी | कुछ फल नहीं देता, हर्षयुक्त बातें करता है और जीविकाकाउच्छेद कर देता है। प्रसंगकी बातोंसे प्रसन्न होकर भी वह पूर्ववत् सम्मान नहीं करता, सभी सेवाओंमें उपेक्षा व्यक्त करता है। कोई बात छिड़नेपर बीचमें दोष प्रकट करता है और वहीं वाक्यको काट देता है। गुणोंका कीर्तन करनेपर भी विमुख ही लक्षित होता है। काम करते समय दृष्टि दूसरी ओर घुमा लेता है- ये सभी विरक्त राजाके लक्षण हैं। अब अनुरक्त राजाके लक्षण सुनिये ॥ 26-33 ॥
अनुरक्त राजा भृत्योंको देखकर प्रसन्न होता है, | उसकी बातको आदरपूर्वक ग्रहण करता है और कुशलमङ्गल पूछकर आसन देता है। एकान्तमें अथवा अन्तःपुरमें भी उसे देखकर कभी संशय नहीं करता और उसकी कही हुई बातें सुनकर प्रसन्न होता है। उसके द्वारा कही हुई अप्रिय बातोंका भी अभिनन्दन करता है और उसकी थोड़ी-सी भी भेंट आदरपूर्वक स्वीकार करता है। दूसरी कथाके प्रसङ्गपर उसका स्मरण करता है और सर्वदा उसे | देखकर प्रसन्न रहता है। सूर्यकुलोत्पन्न! ऐसे अनुरक्त राजाकी सेवा करनी चाहिये। किंतु पूर्वकालमें सेवा किये गये विरक्त राजाका भी आपत्तिकालमें त्याग नहीं करना चाहिये। जो मनुष्य अपने निर्गुण एवं अनुपम मित्र, भृत्य तथा विशेषरूपसे स्वामीको आपत्तिके अवसपर नहीं छोड़ते, वे देवता-वृन्दोंके द्वारा सेवित देवराज इन्द्रके धामको जाते हैं ।। 34-38 ॥