मत्स्यभगवान्ने कहा— राजन् ! राजाको अपने पुत्रकी रक्षा करनी चाहिये। उसकी शिक्षाके लिये पहरेदारोंकी देख-रेखमें एक ऐसे आचार्यकी नियुक्ति करनी चाहिये, जो उसे धर्म, काम एवं अर्थशास्त्र, धनुर्वेद तथा रथ एवं हाथीकी सवारीकी शिक्षा दे और सदा व्यायाम कराये। साथ ही उसे शिल्पकलाएँ भी सिखलाये। उसपर ऐसा प्रभाव पड़े कि वह गुरुजनोंके सम्मुख असत्य एवं अप्रिय बात न बोले। उसके शरीरकी रक्षाके व्याजसे रक्षक नियुक्त कर दे। इसे क्रोधी, लोभी और तिरस्कृत व्यक्तियोंकी संगतिमें नहीं जाने देना चाहिये। उसे इस प्रकार जितेन्द्रिय | बनाना चाहिये कि जिससे वह युवावस्था आनेपरइन्द्रियोंद्वारा अत्यन्त दुर्गम सत्पुरुषोंके मार्गसे अपकृष्ट न किया जा सके जिस राजकुमार स्वभाववश गुणाधान करना अशक्य हो उसे गुप्तस्थानमें सुखपूर्वक अवरुद्ध कर देना चाहिये, क्योंकि उद्दण्ड राजकुमारसे युक्त कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। राजाको सभी अधिकारोंपर सुशिक्षित व्यक्तिको नियुक्त करना चाहिये। प्रथमतः उसे छोटे पदपर नियुक्त करे, तत्पश्चात् क्रमशः अधिक शिक्षितकर ऊँचे | पदोंपर भी पहुँचा दे। राजसिंह राजाको शिकार, मद्यपान तथा यूतक्रीड़ाका परित्याग कर देना चाहिये क्योंकि पूर्वकालमें इनके सेवनसे बहुत से राजा नष्ट हो चुके हैं, जिनकी गणना नहीं कही जा सकती। राजाके लिये व्यर्थ घूमना तथा विशेषकर दिनमें शयन करना वर्जित है। राजाको कटुवचन बोलना और कठोर दण्ड देना ये दोनों कर्म नहीं करना चाहिये। राजाको परोक्षमें किसीकी निन्दा करना उचित नहीं है ॥1-10॥
राजाको दो प्रकारके अर्थदोषोंसे बचना चाहिये एक अर्थका दोष और दूसरा अर्थ सम्बन्धी दोष अपने दुर्गके परकोटोंका तथा मूलदुर्ग आदिकी उपेक्षा और अस्तव्यस्तता—ये अर्थके दोष कहे गये हैं। उसी प्रकार कुदेश और कुसमयमें दिया गया दान, कुपात्रको दिया गया दान और असत्कर्मका प्रचार-ये अर्थ-सम्बन्धी दोष कहे गये हैं। राजाको आदरसहित काम, क्रोध, मद, मान, लोभ तथा हर्षका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये। राजाको इनपर विजय प्राप्त करनेके पश्चात् अनुचरोंको जीतना चाहिये। इस प्रकार अनुचरोंको जीतनेके बाद पुरवासियों और देशवासियोंको अपने अधिकारमें करें। उनको जीतनेके पश्चात् बाहरी शत्रुओंको परास्त करे। तुल्य, आभ्यन्तर और कृत्रिम भेदसे बाह्य शत्रुओंको अनेकों प्रकारका समझना चाहिये। उनमेंसे क्रमशः एक एकको बढ़कर समझना चाहिये और उनको जीतनेमें यत्नशील रहे। महाभाग मित्र तीन प्रकारके होते हैं प्रथम वे हैं जो पिता पितामह आदिके कालसे मित्रताका व्यवहार करते चले आ रहे हैं। दूसरे वे हैं, जो शत्रुके शत्रु हैं तथा तीसरे वे हैं, जो किन्हीं कारणोंसे पीछे मित्र बनते हैं। इन तीनों मित्रोंमें प्रथम मित्र उत्तम होता है, उसका आदर करना चाहिये। धर्मज्ञ! स्वामी, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, सेना, कोश तथा मित्र- ये राज्यके सात अङ्ग कहे गये हैं। इस सप्ताङ्गयुक्त राज्यका भी मूल स्वयं राजा कहा गया है। राज्यका तथा राज्याङ्गोंका मूल होनेके कारण वह प्रयत्नपूर्वक रक्षणीय है । ll 11-20 ॥फिर राजके द्वारा राज्यके शेष छः अङ्गको प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जानी चाहिये। जो मूर्ख इन छः अङ्गमेंसे किसी एकके साथ द्रोह करता है उसे राजाको शीघ्र ही मार डालना चाहिये। राजाको कोमल वृत्तिवाला नहीं होना चाहिये; क्योंकि कोमल वृत्तिवाला राजा पराजयका भागी होता है। साथ ही अधिक कठोर भी नहीं होना चाहिये; क्योंकि अधिक कठोर शासकसे लोग उद्विग्न हो जाते हैं। जो लोकद्वयापेक्षी राजा समयपर मृदु तथा समयपर कठोर हो जाता है, वह दोनों लोकोंपर विजयी हो जाता है। राजाको अपने अनुचरोंके साथ परिहास नहीं करना चाहिये; क्योंकि उस समय आनन्दमें निमग्न हुए राजाका अनुचरगण अपमान कर बैठते हैं। राजाको सभी प्रकारके व्यसनोंसे दूर रहना चाहिये, किंतु लोकसंग्रहके लिये उसे कुछ ऊपरसे अच्छी बातोंका व्यसन करना उचित है गर्वीले एवं नित्य ही उद्धत स्वभाववाले राजासे लोग कठिनतासे अनुकूल होनेके कारण विरक्त हो जाते हैं, अतः राजाको सभीसे मुसकानपूर्वक बातें करनी चाहिये। महाभाग यहाँतक कि प्राणदण्डके अपराधीको भी वह भृकुटि न दिखलाये। धार्मिक श्रेष्ठ! राजाको महान् लक्ष्ययुक्त होना चाहिये क्योंकि सारी पृथ्वी स्थूललक्ष्य रखनेवाले राजाके अधीन हो जाती है। राजाको सभी कार्योंके निर्वाहमें विलम्ब नहीं करना चाहिये; क्योंकि विलम्ब करनेवाले राजाके कार्य निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। केवल अनुराग, दर्प, आत्मसम्मान, द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय कार्योंमें दीर्घसूत्री प्रशंसित माना गया है॥ 21-300 ll
नृपोत्तम! राजाको सदा अपनी मन्त्रणा गुप्त रखनी चाहिये क्योंकि प्रकट मन्त्रणावाले राजाको निश्चय ही सभी आपत्तियाँ प्राप्त होती हैं। महाभाग ! जिस राजाके कार्योंको आरम्भके समय नहीं, अपितु पूरा होनेपर ही लोग जान पाते हैं उसके वशमें वसुंधरा हो जाती है। मन्त्र ही सर्वदा राज्यका मूल है, अतः मन्त्रभेदके भयसे राजाओंको उसे सदा सुरक्षित रखना चाहिये मन्त्रज्ञ मन्त्रीद्वारा दिया गया मन्त्र सभी सम्पत्तियों तथा सुखोंको देनेवाला होता है। मन्त्रके छलसे बहुत-से राजा विनष्ट हो चुके हैं। आकृति, संकेत, गति, चेष्टा, वचन, नेत्र तथा मुखके विकारोंसे अन्तःस्थित मनोभावोंका पता लगता है। राजपुत्र! जिस राजाके मनका इन उपर्युक्त उपायोंद्वारा कुशल लोग भी पता न लगा सकें, वसुंधरा उसके वशमें | सदा बनी रहती है॥ 31- 36 ॥राजाको कभी केवल एक व्यक्तिके या एक ही साथ अनेक लोगोंके साथ मन्त्रणा नहीं करनी चाहिये। | राजा जिसको परीक्षा न की गयी हो ऐसी विषम नौकापर सवार न हो। राजाके जो भूमिविजेता शत्रु हों, उन सबको सामादि उपायोंद्वारा वशमें लाना चाहिये। अपने राष्ट्रकी रक्षामें तत्पर राजाका यह कर्तव्य है कि वह उपेक्षाके कारण प्रजाओंको दुर्बल न होने दे। जो अज्ञानवश असावधानी से अपने राष्ट्रको दुर्बल कर देता है, वह शीघ्र ही भाई-बन्धुओंसहित राज्य एवं जीवनसे च्युत हो जाता है। महाभाग ! जिस प्रकार पालतू बछड़ा बलवान् होनेपर कार्य करनेमें समर्थ होता है उसी तरह पालन-पोषणकर समृद्ध किया हुआ राष्ट्र भी भविष्य में कार्यक्षम हो जाता है। जो अपने राष्ट्रके ऊपर अनुग्रहकी दृष्टि रखता है, वस्तुतः वही राज्यकी रक्षा कर सकता है। जो उत्पन्न हुई प्रजाओंकी रक्षा करता है, वह महान् फलका भागी होता है। राजा राष्ट्रसे सुवर्ण, अम और सुरक्षित पृथ्वी प्राप्त करता है। माता और पिताके समान अपने राष्ट्रकी रक्षामें तत्पर रहनेवाला नृपति विशेष प्रयत्नसे नित्यप्रति स्वकीय एवं परकीय दोनों ओरसे होनेवाली बाधाओंसे अपने राष्ट्रकी रक्षा करें। अपनी इन्द्रियोंको संवत तथा गुप्त रखे और सर्वदा उनका प्रयोग गोपनीय रूपसे करे, तभी उनसे उत्तम फल प्राप्त होता है जीवनके सभी कार्य देव और पौरुष- इन दोनोंके अधिकारमें रहते हैं उन दोनोंमें दैव तो अचिन्त्य है, किंतु पौरुषमें क्रिया विद्यमान रहती है। इस प्रकार पृथ्वीका पालन करनेवाले राजाके प्रति प्रजाका परम अनुराग हो जाता है। प्रजाके अनुरागसे राजाको लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है तथा लक्ष्मीवान् राजाको ही परम यशको प्राप्ति होती है ।। 37-47॥