सूतजी कहते हैं-ऋषियो। इस प्रकार राजकीय सामग्रियों तथा आहारका परित्याग कर राजा पुरूरवा उस रमणीय आश्रम में निवास करने लगे। वहाँ उन्हें गन्धर्वोके साथ अप्सराओंका क्रीडाविहार भी देखनेको मिलता था। राजा बहुत से फूलोंको तोड़कर उसकी माला चते थे और उन्हें अध्यंसहित पहले भगवान् विष्णुको निवेदित कर पुनः गन्धर्वोको दे देते थे। वे वहाँ पुष्प-चयनमें लगी हुई एवं सुखपूर्वक क्रीडा करती हुई अप्सराओंकी विभिन्न प्रकारकी चेष्टाओंको देखकर भी अनदेखी कर जाते थे। वहाँ पुष्प- चयनमें निरत कोई अप्सरा लता समूहमें उलझ गयी और सखियाँ उसे उसी दशामें छोड़कर चलती बनीं, तब उसके पतिने आकर उसे बन्धन मुक्त किया। किसी अप्सराके शरीरसे कमलकी-सी गन्ध निकल रही थी। इस कारण उसकी निःश्वासवायुसे आकृष्ट होकर भ्रमर उसके ऊपर मँडरा रहे थे। उन भ्रमरोंसे उसका मुख ढक-सा गया था; तब उसके पतिने उसे उस कष्टसे मुक्त किया। किसी अप्सराको आँखें पुष्प रजसे आक्रान्त हो गयीं, तब उसके पतिने अपनी श्वासवायुसे फेंककर उन्हें धूलरहित कर दिया। किसी सुन्दरीने पुष्पोंको एकत्रकर अपने पतिको दे दिया। तत्पश्चात् वह अपने पतिद्वारा गूँथी गयी पुष्पमालाको अपने मस्तकपर रखकर सुशोभित होने लगी। तभीकिसीके पतिने पुष्प चयन करके अपने ही हाथों माला गूंथकर उसे अपनी पत्नीके मस्तकपर रखकर उसे सुसज्जित कर दिया, इससे उसने अपनेको कृतकृत्य मान लिया ॥1-8॥
कोई पतिद्वारा की गयी लतासे फूल तोड़ रही थी, जिससे वह अपने को सभी सखियोंसे सम्पूर्ण गुणों में बढ़-चढ़कर मान रही थी। कुछ सुन्दरी देवाङ्गनाएँ गन्धर्वो के साथ पृथक् पृथक् क्रीडा करती हुई कमलसमूहों के बीचसे राजाको ओर देख रही थीं। कोई सुन्दरी अपने पतिके ऊपर जल उछाल रही थी और किसीके ऊपर उसका पति जल फेंक रहा था, जिससे उसे बड़ी प्रसन्नता हो रही थी कोई देवाना विन मनसे अपने पतिके ऊपर जल उछाल रही थी। पतिके ऊपर जल फेंकनेसे किसीकी चोटी खुल गयी थी, | जिससे उसका मुख बालोंसे ढक गया था। उस समय वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो भ्रमरोंसे घिरी हुई कमलिनी हो। कोई अपने नेत्रोंके समान कमल पुष्पोंसे ढके हुए उस कमलिनीके वनमें छिप गयी थी, जिसे उसके पतिने बड़ी देरके बाद प्रयत्नपूर्वक खोजकर प्राप्त किया किसीको उसका पति गलेमें पड़ी हुई मालाके धागेको पकड़कर जलमें खींच रहा था. किंतु उस धागेके टूटजानेपर जब वह गिर पड़ा, तब वह बड़ी देरतक हँसती रही इस प्रकार राजाने खानसे निवृत्त हुई सभी देव देवियों एवं गन्धर्व-आसराओंद्वारा भगवान् जनार्दनको पूजित होते हुए देखा।। 9- 25 ।।
राजन् वे अप्सराएँ सदा प्रदोषकालमें देवाधिदेव | भगवान् जनार्दनके समक्ष नाना प्रकारके बाजोंके साथ नृत्य करती थीं। एक पहर रात बीत जानेपर वे गुफाके मुखद्वारसे बाहर निकलकर अपने पतियोंके साथ ऐसी सजी-सजायी गुफामें निवास करती थीं, जिसपर अनेकों प्रकारके गन्धवाली लताएं फैली हुई थीं, जिसमेंसे विभिन्न प्रकारकी सुगन्ध निकल रही थी, जो पुष्पसमूहसे सुशोभित थी तथा जिसमें अनेकों विचित्र शय्याएँ बिछी थीं महाराज! इस प्रकार उस पर्वतपर अप्सराओंकी क्रीडाका अवलोकन करते हुए राजा पुरूरवा भगवान् केशवमें मनको एकाग्र करके तपस्या करते रहे। एक दिन यूथ के यूथ गन्धर्व और अप्सराएँ राजाके निकट जाकर उनसे बोली-'शत्रुओंका दमन करनेवाले नरेश! (बड़े सौभाग्यसे) आप इस स्वर्गतुल्य देशमें आ गये हैं, अतः हमलोग आपको मनोऽभिलषित वर प्रदान करेंगी। उन्हें ग्रहणकर यदि आपकी इच्छा हो तो घर चले जाइये अथवा यहीं रहिये' ll 26-37 ॥
राजाने कहा गन्धवों एवं अप्सराओ आपलोग अमित तेजस्वी हैं, इससे आपलोगोंका दर्शन कभी निष्फल नहीं होता, इसलिये आपलोग आज ही मुझे ऐसा वरदान दें, जिससे भगवान् मधुसूदनकी कृपा प्राप्त हो जाय। यहसुनकर वे 'एवमस्तु ऐसा ही होगा- ऐसा कहकर वहाँसे चले गये। तत्पश्चात् राजा पुरूरवा वहाँ एक मासतक भगवान् जनार्दनकी पूजा करते हुए सुखपूर्वक निवास करते रहे। वे सदा गन्धर्वो एवं अप्सराओंके प्रेमपात्र बने रहे। वे लोग राजाके निर्लोभ कर्मसे परम संतुष्ट थे। राजन्। उस मासके बीचमें ही राजा पुरूरवाने हजारों रनोंसे चित्रित उस आश्रममें प्रवेश किया। वहाँ वे एक मासतक केवल जल पीकर तबतक निवास करते रहे, जबतक फागुनमासके शुक्लपक्षकी पूर्णिमा तिथि नहीं आ गयी। राजा पुरुरवाने फाल्गुनमासके शुक्लपक्षको पूर्णिमा तिथिकी रातमें स्वप्नमें उन्हीं देवाधिदेव भगवान् विष्णुद्वारा कहे जाते हुए इस प्रकारके मङ्गलमय शब्दोंको सुना-'राजन्! इस रात्रिके व्यतीत हो जानेपर अत्रिसे तुम्हारी भेंट होगी और उनसे मिलकर तुम कृतकृत्य हो जाओगे। देवराजके समान पराक्रमी राजर्षि पुरुरवाको जब इस प्रकारका स्वप्न दीख पड़ा, तब उन्होंने प्रात: काल उठकर इन्द्रियोंको संयत रखते हुए विधिपूर्वक खान किया और इच्छानुसार भगवान् जनार्दनकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्हें तपोधन महर्षि अत्रिका प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुआ, जिससे वे कृतकृत्य हो गये। तब धर्मात्मा राजाने महर्षि अत्रिसे देवाधिदेव भगवान्द्वारा दिखाये गये स्वप्नके वृत्तान्तको कह सुनाया। उसी समय उन्होंने देवताओंद्वारा कहे हुए इस वचनको फिर सुना 'महोपाल। यह ऐसा ही होगा इसमें तुम्हें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।' इस प्रकार देवाधिदेव भगवान् जनार्दनकी कृपा प्राप्तकर राजाने देवार्चन किया और अग्निमें आहुतियाँ डालो। इस तरह भगवान् केशव के वरदानसे उनकी सारी कामनाएँ पूरी हो गयीं ॥ 38- 48 ॥