वसुमान्ने कहा- नरेन्द्र ! मैं उपदश्वका पुत्र हूँ और आपसे पूछ रहा हूँ। यदि स्वर्ग या अन्तरिक्षमें मेरे लिये भी कोई विख्यात लोक हों तो बताइये। महात्मन्! मैं आपको पारलौकिक धर्मका ज्ञाता मानता हूँ ॥ 1 ॥
ययातिने कहा- राजन्! पृथ्वी, आकाश और दिशाओंके जितने प्रदेशको सूर्यदेव अपनी किरणोंसे तपाते और प्रकाशित करते हैं, उतने लोक तुम्हारे लिये स्वर्गमें स्थित हैं। वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं॥ 2 ॥ वसुमान् बोले- राजन् ! वे सभी लोक मैं आपके लिये देता हूँ, वे सब आपके हो जायें। धीमन् ! यदि आपको प्रतिग्रह लेनेमें दोष दिखायी देता हो तो एक मुद्रा तिनका मुझे मूल्यके रूपमें देकर मेरे इन सभी लोकोंको आप खरीद लें ॥ 3 ll
ययातिने कहा- राजन् ! मैंने बचपनमें भी कभी इस प्रकार झूठ-मूठकी खरीद-बिक्री की हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। जिसे पूर्ववर्ती अन्य महापुरुषोंने नहीं किया, वह कार्य मैं भी नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि मैं सत्कर्म करना चाहता हूँ ॥ 4 ॥वसुमान् बोले- राजन् ! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वत: अर्पण किये हुए पुण्यलोकोंको ग्रहण कीजिये। नरेन्द्र! निश्चय जानिये कि मैं उन लोकों में नहीं जाऊँगा। वे सब आपके ही अधिकारमें रहें ॥ 5 ॥ शिबिने कहा-तात! मैं उशीनरका पुत्र शिबि आपसे पूछता हूँ। यदि अन्तरिक्ष या स्वर्गमें मेरे भी पुण्यलोक हों तो बताइये क्योंकि मैं आपको उक्त | धर्मका ज्ञाता मानता हूँ ॥ 6 ॥
ययाति बोले नरेन्द्र ! जो जो साधु पुरुष तुमसे कुछ माँगनेके लिये आये, उनका तुमने वाणीसे कौन कहे, मनसे भी अपमान नहीं किया। इस कारण स्वर्गमें तुम्हारे लिये अनन्त लोक विद्यमान हैं जो विद्युत्के समान तेजोमय, भाँति-भाँति के सुमधुर शब्दोंसे युक्त तथा महान् हैं ॥ 7 ॥
शिबिने कहा- महाराज! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वयं अर्पण किये हुए पुण्यलोकोंको ग्रहण कीजिये। तात! उन सबको देकर निश्चय ही में उन लोकोंमें नहीं जाऊँगा जिन लोकोमें आप जा रहे होंगे ॥ 8 ॥
ययाति बोले- नरदेव शिबि! जिस प्रकार तुम इन्द्रके समान प्रभावशाली हो उसी प्रकार तुम्हारे वे लोक भी अनन्त हैं, तथापि दूसरेके दिये हुए लोकमें मैं विहार नहीं कर सकता; इसीलिये तुम्हारे दिये हुएका अभिनन्दन नहीं करता ॥ 9 ॥
अष्टकने कहा- राजन्! यदि आप हममेंसे एक एकके दिये हुए लोकोंको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण नहीं करते तो हम सब लोग अपने पुण्यलोक आपकी सेवामें समर्पित करके नरक (भूलोक) में जानेको तैयार हैं ॥ 10 ॥
ययाति बोले- मैं जिसके योग्य है, उसीके लिये यत्न करो; क्योंकि साधु पुरुष सत्यका ही अभिनन्दन करते हैं। मैंने पूर्वकालमें जो कर्म नहीं किया, उसे अब भी स्वीकार नहीं कर सकता। नरेन्द्रसिंह! मुझ निर्लोभके प्रति तुमलोगोंने जो कुछ कहा है उसका फल वैसे ही निराशापूर्ण नहीं होगा, अपितु इतने बड़े दानके लिये जो उपयुक्त होगा, वह अनन्त फल तुम लोगोंको अवश्य प्राप्त होगा । ll 11-12 ॥अष्टकने पूछा- आकाशमें ये किसके पाँच सुवर्णमय रथ दिखायी देते हैं, जो आकाशमण्डलमें बड़ी ऊँचाईपर स्थित हैं और अग्निशिखाकी भाँति प्रकाशित हो रहे हैं ? ।। 13 ।।
ययाति बोले- ये जो स्वर्णमय रथ चमक रहे हैं, सभी मेरे तथा तुमलोगोंके लिये आये हैं। इन्हींपर आरूढ़ होकर तुमलोग मेरे साथ इन्द्र- लोकको चलोगे ॥ 14 ॥ अष्टक बोले- राजन्! आप रथमें बैठिये और आकाशमें ऊपरकी ओर बढ़िये जब समय होगा तब हम भी आपका अनुसरण करेंगे ॥ 15 ॥
ययाति बोले- हम सब लोगोंने साथ-साथ स्वर्गपर विजय पायी है, इसलिये इस समय सबको वहाँ चलना चाहिये। देवलोकका यह रजोहीन सात्त्विक मार्ग हमें स्पष्ट दिखायी दे रहा है ॥ 16 ॥
शौनकजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर वे सभी नृपश्रेष्ठ उन दिव्य रथोंपर आरूढ़ हो धर्मके बलसे स्वर्गमें पहुँचनेके लिये चल दिये। उस समय पृथ्वी और आकाशमें उनकी प्रभा व्याप्त हो रही थी ॥ 17 ॥
अष्टक बोले- राजन् ! महात्मा इन्द्र मेरे बड़े मित्र हैं, अतः मैं तो समझता था कि अकेला में ही सबसे | पहले उनके पास पहुँचूँगा; परंतु ये उशीनर पुत्र शिवि अकेले सम्पूर्ण वेगसे हम सबके वाहनोंको लाँघकर आगे बढ़ गये हैं, ऐसा कैसे हुआ ? ।। 18 ।।
ययातिने कहा- राजन् ! उशीनरके पुत्र शिबिने ब्रह्मलोकके मार्गकी प्राप्तिके लिये अपना सर्वस्व दान कर दिया था, इसलिये ये तुमलोगों में श्रेष्ठ है नरेश्वर दान, पवित्रता, सत्य, अहिंसा, ही, श्री, क्षमा, समता और दयालुता- ये सभी अनुपम गुण राजा शिविमें विद्यमान हैं। तथा बुद्धिमें भी उनकी समता करनेवाला कोई नहीं है। राजा शिबि ऐसे सदाचारसम्पन्न और लज्जाशील हैं। (इनमें अभिमानकी मात्रा छू भी नहीं गयी है।) इसीलिये शिवि रथारूढ़ हो हम सबसे आगे बढ़ गये हैं ॥ 19-20 ॥
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! तदनन्तर अष्टकने कौतूहलवश इन्द्रतुल्य अपने नाना राजा ययातिसे पुनः प्रश्न किया— 'महाराज! मैं आपसे एक बात पूछता हूँ। आप उसे सच सच बताइये। आप कहाँसे आये हैं, कौन हैं और किसके पुत्र हैं? आपने जो कुछ किया है, उसे करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई क्षत्रिय | अथवा ब्राह्मण इस संसारमें नहीं है ' ॥ 21 ॥ययातिने कहा- मैं नहुषका पुत्र और पूरुका | पिता राजा ययाति हूँ। मैं इस लोकमें चक्रवर्ती नरेश था। तुम सब लोग मेरे अपने हो, अतः तुमसे गुप्त बात भी खोलकर बतलाये देता हूँ मैं तुमलोगोंका नाना हूँ। | (यद्यपि पहले भी यह बात बता चुका हूँ, तथापि पुनः स्पष्ट कर देता है। मैंने इस सारी पृथ्वीको जीत लिया था और पुनः इस समृद्धिशालिनी पृथ्वीको ब्राह्मणोंको दान भी कर दिया था। मनुष्य जब एक सौ सुन्दर पवित्र अथोंका दान करते हैं तब वे पुण्यात्मा देवता होते हैं। मैंने सब तरहके अन्न, गौ, सुवर्ण तथा उत्तम धनसे परिपूर्ण यह प्रशस्त पृथ्वी ब्राह्मणोंको दान कर दी थी एवं सौ अर्बुद (दस अरब ) हाथियोंसहित घोड़ोंका दान भी किया था। सत्यसे ही पृथ्वी और आकाश टिके हुए हैं। इसी प्रकार सत्यसे ही मनुष्य-लोकमें अग्नि प्रज्वलित होती है। मैंने कभी व्यर्थ बात मुँहसे नहीं निकाली है; क्योंकि साधु पुरुष सदा सत्यका ही आदर करते हैं। अष्टक! मैं तुमसे, प्रतर्दनसे, वसुमान्से और शिविसे भी यहाँ जो कुछ कहता हूँ, वह सब सत्य ही है। मेरे मनका यह विश्वास है कि समस्त लोक, मुनि और देवता सत्यसे ही पूजनीय होते हैं। जो मनुष्य हृदयमें ईर्ष्या न रखकर स्वर्गपर अधिकार करनेवाले हम सब लोगोंके इस वृत्तान्तको यथार्थरूपसे श्रेष्ठ द्विजोंके सामने सुनायेगा, वह हमारे ही समान पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेगा ॥ 22- 27 ॥
शौनकजी कहते हैं- राजन् ! राजा ययाति बड़े महात्मा थे और उनके कर्म अत्यन्त उदार थे। उनके श्रेष्ठ मित्ररूपी दौहित्रोंने उनका उद्धार किया और वे सत्कमद्वारा सम्पूर्ण भूमण्डलको व्याप्त करके पृथ्वीको छोड़कर स्वर्गलोकमें चले गये। इस प्रकार मैंने तुमसे नहुष पुत्र राजा ययातिका सारा चरित्र यथार्थरूपसे विस्तारपूर्वक कह सुनाया। यही वंश आगे चलकर पूरुवंशके नामसे विख्यात हुआ, जिसमें तुम मनुष्यों में इन्द्रके समान उत्पन्न हुए हो ॥ 28-29 ॥