शौनकजी कहते हैं— शतानीक! पूरुके ऐसा कहनेपर राजर्षि ययातिने महान् व्रतपरायण शुक्राचार्यका स्मरण कर अपने महात्मा पुत्र पूरुके शरीरमें अपनी वृद्धावस्थाका संक्रमण कराया (और उसकी युवावस्था स्वयं ले ली। नहुषके पुत्र नरश्रेष्ठ ययातिने पूरुकी युवावस्थासे अत्यन्त प्रसन्न होकर अभीष्ट विषय-भोगोंका सेवन आरम्भ किया। उन राजेन्द्रकी जैसी कामना होती, जैसा उत्साह होता और जैसा समय होता, उसके अनुसार वे सुखपूर्वक धर्मानुकूल भोगोंका उपभोग करते थे। वास्तवमें उसके योग्य वे ही थे। उन्होंने यज्ञोंद्वारा देवताओंको श्रद्धोंसे पितरोंको इच्छाके अनुसार अनुग्रह करके दीन दुःखियोंको और मुँहमाँगी भोग्य वस्तुएँ देकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको तृप्त किया। वे अतिथियोंको अन्न और जल देकर, वैश्योंको उनके धन-वैभवकी रक्षा करके, शूद्रोंको दयाभावसे | लुटेरोंको कैद करके तथा सम्पूर्ण प्रजाको धर्मपूर्वक संरक्षणद्वारा प्रसन्न रखते थे। इस प्रकार साक्षात् दूसरे इन्द्रके समान राजा ययातिने समस्त प्रजाका पालन किया। वे राजा सिंहके समान पराक्रमी और नवयुवक थे। सम्पूर्ण विषय उनके अधीन थे और वे धर्मका विरोध न करते हुए उत्तम सुखका उपभोग करते थे। वे नरेश शुभ भोगोंको प्राप्त करके पहले तो तृप्त एवं आनन्दित होते थे, परंतु जब यह बात ध्यानमें आती किये हजार वर्ष भी पूरे हो जायेंगे, तब उन्हें बड़ा खेद होता था। कालतत्त्वको जाननेवाले पराक्रमी राजा ययाति एक-एक कला और काष्ठाकी गिनती कर एक हजार वर्षके समयको अवधिका स्मरण रखते थे। जब उन्होंने देखा कि अब समय पूरा हो गया, तब वे अपने पुत्र पूरुके पास आकर बोले— 'शत्रुदमन पुत्र ! मैंने तुम्हारी जवानीके द्वारा अपनी रुचि, उत्साह और समयके अनुसार विषयोंका सेवन किया; परंतु विषयोंकी कामना उन विषयोंके उपभोग कभी शन्त नहीं होती, अपितु की आहुति पड़नेसे अग्रिकी भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है।इस पृथ्वीपर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब एक मनुष्यके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं, ऐसा |मानकर शान्ति धारण कर लेना चाहिये। पूरो! तुम्हारा भला हो, मैं प्रसन्न हूँ। तुम अपनी यह जवानी ले लो। साथ ही यह राज्य भी अपने अधिकारमें कर लो; क्योंकि तुम मेरा प्रिय करनेवाले पुत्र हो ' ॥ 1-13 ॥
शौनकजी कहते हैं— शतानीक! उस समय नहुषनन्दन राजा ययातिने अपनी वृद्धावस्था वापस ले ली और पूरुने पुनः अपनी युवावस्था प्राप्त कर ली। जब ब्राह्मण आदि वर्णोंने देखा कि महाराज ययाति अपने छोटे पुत्र पुरुको राजाके पदपर अभिषिक्त करना चाहते हैं, तब उनके पास आकर इस प्रकार बोले- 'प्रभो! शुक्राचार्यके नाती और देवयानीके ज्येष्ठ पुत्र यदुके होते हुए उन्हें लाँघकर आप पूरुको राज्य क्यों देते हैं ? यदु आपके ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनके बाद तुर्वसु उत्पन्न हुए। तदनन्तर शर्मिष्ठाके पुत्र क्रमशः द्रुह्यु, अनु और पूरु हैं। ज्येष्ठ पुत्रोंका उल्लङ्घन करके छोटा पुत्र राज्यका अधिकारी कैसे हो सकता है? हम आपको इस बातका स्मरण दिला रहे हैं। आप धर्मका पालन कीजिये ' ॥ 14- 18 ॥ ययातिने कहा- ब्राह्मण आदि सब वर्णके लोग मेरी बात सुनें, मुझे ज्येष्ठ पुत्रको किसी तरह राज्य नहीं देना है मेरे ज्येष्ठ पुत्र यदुने मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया है। जो पिताके प्रतिकूल हो, वह सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें पुत्र नहीं माना गया है। जो माता और पिताकी आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल | चलता है तथा माता-पिताके प्रति पुत्रोचित बर्ताव करता है, वही वास्तवमें पुत्र है। यदुने मेरी अवहेलना की है, तुर्वसु, द्रुह्यु तथा अनुने भी मेरा बड़ा तिरस्कार किया है (और) पूरुने मेरी आज्ञाका पालन किया, मेरी बातको अधिक आदर दिया है, इसीने मेरा बुढ़ापा ले रखा था अतः मेरा यह छोटा पुत्र ही वास्तवमें मेरे राज्य और धनको पानेका अधिकारी है। पूरुने पुत्ररूप होकर मेरी कामनाएँ पूर्ण की हैं। स्वयं शुक्राचार्यने मुझे वर दिया है कि 'जो पुत्र तुम्हारा अनुसरण करे वही राजा एवं समस्त भूमण्डलका पालक हो।' अतः मैं आपलोगोंसे विनयपूर्ण आग्रह करता हूँ कि पूरुको ही राज्यपर अभिषिक्त करें ।। 19 - 25 llप्रजावर्गके लोग बोले- जो पुत्र गुणवान् और सदा माता-पिताका हितैषी हो, वह छोटा होनेपर भी श्रेष्ठतम है। वही सम्पूर्ण कल्याणका भागी होने योग्य है। पूरु आपका प्रिय करनेवाले पुत्र हैं, अतः शुक्राचार्यके वरदानके अनुसार ये ही इस राज्यको पानेके अधिकारी हैं। इस निश्चयके विरुद्ध अब कुछ भी उत्तर नहीं दिया जा सकता ॥ 26-27 ॥
शौनकजी कहते हैं—नगर और राज्यके लोगोंने संतुष्ट होकर जब इस प्रकार कहा, तब नहुषनन्दन ययातिने अपने पुत्र पूरुको ही अपने राज्यपर अभिषिक्त किया। इस प्रकार पूरुको राज्य दे वनवासकी दीक्षा लेकर राजा ययाति तपस्वी ब्राह्मणोंके साथ नगरसे बाहर निकल गये। यदुसे यादव क्षत्रिय उत्पन्न हुए, तुर्वसुकी संतान ( सीमान्तसे लेकर यूनानतकके निवासी) यवन कहलायी, द्रुह्युके पुत्र भोज नामसे प्रसिद्ध हुए और अनुसे म्लेच्छ जातियाँ उत्पन्न हुईं। राजन् ! पूरुसे पौरव वंश चला, जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो। हजारों वर्षोंसे यह राज्य कुरुकुलमें सम्मिलित हो गया है, अर्थात् यह कुरुवंश नामसे प्रसिद्ध हो गया है ॥ 28-31 ॥