मनुने पूछा— भगवन्! अभिषेक होनेके बाद राजाको तुरंत कौन-सा कर्म करना आवश्यक है? वह सब मुझे बतलाइये; क्योंकि आप इसे अच्छी तरह जानते हैं ॥ 1 मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्! राज्यकी रक्षा करनेवाले राजाको चाहिये कि वह अभिषेकके जलसे सिरके भीगते ही सहायकों (मन्त्रियों) की नियुक्ति करे; क्योंकि राज्य उन्होंपर प्रतिष्ठित रहता है।जो छोटे-से-छोटा भी कार्य होता है, वह भी सहायकरहित अकेले व्यक्तिके लिये दुष्कर होता है, फिर राज्य-जैसे महान् उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यके लिये तो कहना ही क्या है ? इसलिये राजाको चाहिये कि जो उत्तम कुलमें उत्पन्न, शूर, उच्च जातिमें उत्पन्न, बलवान् श्रीसम्पत्र, रूपवान् सत्त्वगुणसे युक्त, सज्जन, क्षमाशील, कष्टसहिष्णु महोत्साही, धर्मन, प्रियभाषी, हितोपदेशके कालका ज्ञाता, स्वामिभक्त तथा यशके अभिलाषी हों, ऐसे सहायकों का स्वयं वरण करके उन्हें माङ्गलिक कम नियुक्त करे उसी प्रकार स्वयं राजाको कुछ गुणहीन 1 सहायकोंको भी जान-बूझकर उन्हें यथायोग्य कार्यों में विभागपूर्वक नियुक्त करना चाहिये। राजाको उत्तम कुलोत्पन्न, शीलवान्, धनुर्वेद प्रवीण, हाथी और अवको शिक्षामें कुशल, मृदुभाषी, शकुन और अन्यान्य शुभाशुभ कारणों तथा ओषधियोंको जाननेवाला, कृतज्ञ, शूरतामें प्रवीण, कष्टसहिष्णु, सरल, व्यूह-रचनाके विधानको जाननेवाला, निस्तत्त्व एवं सारतत्त्वका विशेषज्ञ, ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय पुरुषको सेनापति पदपर नियुक्त करना चाहिये ।। 2-10 ll
ऊंचे कदवाला, सौन्दर्यशाली, कार्यकुशल, प्रियवक्ता गम्भीर तथा सबके चित्तको आकर्षित करनेवालेको प्रतिहारी बनाने का विधान है जो सत्यवादी, देशी भाषामें प्रवीण, सामर्थ्यशाली, सहिष्णु, वक्ता, देश कालके विभागको जाननेवाला, देश-कालका जानकार तथा मौकेपर नीतिकी बातें कहनेवाला हो, वह राजाका दूत हो सकता है जो लम्बे कदवाले, कम सोनेवाले, शूर, दृढ़ भक्ति रखनेवाले, धैर्यवान्, कष्टसहिष्णु और हितैषी हों, ऐसे पुरुषोंको राजद्वारा अङ्गरक्षा कार्यमें नियुक्त किया जाना चाहिये जो दूसरोंद्वारा बहकाया न 1 जा सके, दुष्ट स्वभावका न हो, राजामें अगाध भक्ति रखता हो ऐसा पुरुष ताम्बूलधारी हो सकता है, अथवा ऐसे गुणवाली स्त्री भी नियुक्त की जा सकती है। राजाको नीति शास्त्रके छः गुणोंके तत्त्वोंको जाननेवाले, देशी भाषा में प्रवीण एवं नीतिनिपुणको सन्धि विग्राहिक बनाना चाहिये। भृत्योंके कृत-अकृत कार्योंको जाननेवाले, आय-व्ययके जाता, लोकका जानकार और देशोत्पत्तिमें निपुण पुरुषको देशरक्षक बनाना चाहिये।सुन्दर आकृतिवाले, लम्बे कदवाले, राज्यभक्त, कुलीन, शूर-वीर तथा कष्टसहिष्णुको खड्गधारी बनाना चाहिये। शूर बलवान हाथी, घोड़े और रथको विशेषताको जाननेवाला, सभी प्रकारके क्लेशोंको सहन करनेमें समर्थ तथा पवित्र व्यक्ति राजाका धनुर्धारी हो सकता है। शुभाशुभ शकुनको जाननेवाला अश्वशिक्षामें विशारद, अश्वोंके आयुर्वेदविज्ञानको जाननेवाला, पृथ्वीके समस्त भागोंका ज्ञाता, रथियोंके बलाबलका पारखी, स्थिरदृष्टि, प्रियभाषी, शूर-वीर तथा विद्वान् पुरुष सारथिके योग्य | कहा गया है ।। 11-21 ॥
दूसरोंके बहकावे में न आनेवाले, पवित्र, प्रवीण, ओषधियोंके गुण-दोषोंको जाननेवालोंमें श्रेष्ठ, भोजनको विशेषताओंके जानकारको उत्तम भोजनाध्यक्ष कहा जाता है जो भोजनशास्त्रके विधानोंमें कुशल, वंश परम्परासे 1 चले आनेवाले, दूसरोंद्वारा अभेद्य तथा कटे हुए नख केशवाले हों, ऐसे सभी पुरुषोंको चौकेमें नियुक्त करना चाहिये। शत्रु और मित्रमें समताका व्यवहार करनेवाले, धर्मशास्त्रमें विशारद, कुलीन श्रेष्ठ ब्राह्मणको धर्माध्यक्षका पद सौंपना चाहिये। ऊपर कही हुई विशेषताओंसे युक्त ब्राह्मणोंको सभासद् नियुक्त करना चाहिये जो सभी | देशोंकी भाषाओंका ज्ञाता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पटु हो, ऐसा व्यक्ति सभी विभागों में राजाका लेखक कहा गया है जो ऊपरकी शिरोरेखासे पूर्ण, पूर्ण अवयववाले, समश्रेणीमें प्राप्त एवं समान आकृतिवाले अक्षरोंको लिखता है, वह अच्छा लेखक कहा जाता है। नृपश्रेष्ठ ! जो उपाययुक्त वाक्योंमें प्रवीण, सम्पूर्ण शास्त्रोंमें विशारद तथा थोड़े शब्दोंमें अधिक प्रयोजनकी बात कहनेकी क्षमता रखता हो, उसे लेखक बनाना चाहिये। नृपोत्तम! जो वाक्योंके अभिप्रायको जाननेवाला, देश-कालके विभागका ज्ञाता तथा अभेदज्ञ यानी भेद न करनेवाला हो, उसे लेखक बनाना चाहिये। मनुष्यों के हृदयकी बातों तथा भावोंको परखनेवाले, दीर्घकाय, निर्लोभ एवं | दानशील व्यक्तियोंको धर्माधिकारी बनाना चाहिये तथा राजाद्वारा इसी प्रकारके लोगोंको द्वारपालका पद भी सौंपा जाना चाहिये। लोह, वस्त्र, मृगचर्मादि तथा रत्नोंकी परख करनेवाला, अच्छी-बुरी वस्तुओंका जानकार, दूसरोंके बहकावे में न आनेवाला, पवित्र, निपुण एवं सावधान व्यक्तिको धनाध्यक्ष बनाना चाहिये ।।22-32 ॥
राजाद्वारा आय तथा व्ययके सभी स्थानोंपर धनाध्यक्ष के समान गुणवाले पुरुषोंको नियुक्त करना चाहिये। जोपरम्परासे आनेवाला आठों अड़ोंकी चिकित्सको अच्छी तरह जाननेवाला, स्वामिभक्त, धर्मात्मा एवं सत्कुलोत्पन्न हो, ऐसे व्यक्तिको वैद्य बनाना चाहिये। राजन्। उसे प्राणाचार्य जानना चाहिये और सर्वसाधारणकी भाँति उसके वचनोंका सदा पालन करना चाहिये। जो जंगलीजवालोंके रीति रस्मोंका ज्ञाता हस्तिशिक्षाका विशेषज्ञ, सहिष्णुतामें समर्थ हो, ऐसा व्यक्ति राजाका श्रेष्ठ गजाध्यक्ष हो सकता है। उपर्युक्त गुणोंसे युक्त तथा अवस्थामें वृद्ध व्यक्ति राजाका गजारोही होकर सभी कायोंमें श्रेष्ठ कहा गया है। अध-शिक्षा के विधानमें प्रवीण, उनकी चिकित्सामें विशारद तथा स्थिर आसनसे बैठनेवाला व्यक्ति राजाका श्रेष्ठ अश्वाध्यक्ष कहा गया है। जो स्वामिभक्त, शूर-वीर, बुद्धिमान् कुलीन, सभी कार्योंमें उद्यत हो, वह राजाका दुर्गाध्यक्ष कहा गया है। वास्तुविद्याके विधानमें प्रवीण, फुर्तीला, परिश्रमी, दीर्घदर्शी एवं शूर व्यक्तिको श्रेष्ठ कारीगर कहा गया है यन्त्रमुक्त (तोप बन्दूक) आदि, पाणिमुक्त (शक्ति आदि), विमुक्त, मुक्तधारित आदि अस्त्रोंके परिचालनकी विशेषताओंमें सुनिपुण, उद्वेगरहित व्यक्ति श्रेष्ठ अस्वाचार्य कहा गया है। वृद्ध, सत्कुलोत्पन्न, मधुरभाषी, पिता पितामहके समयसे उसी कार्यपर नियुक्त होनेवाले, पवित्र एवं विनीत व्यक्तिको राजाओंके अन्तःपुरके अध्यक्ष-पदपर नियुक्त करना उचित है । 33-42 ॥ इस प्रकार राजाको इन सात अधिकार पदोंपर सभी कार्योंमें भलीभाँति परीक्षा कर सातों व्यक्तियोंको अधिकारी बनाना चाहिये। कार्योंमें नियुक्त किये गये। व्यक्तियोंको उद्योगशील जागरूक तथा पटु होना चाहिये। | राजकुलोत्पन्न! राजाओंके अस्त्रागारमें दक्ष तथा उद्यमशील व्यक्ति होना चाहिये। राजाके कार्योंकी गणना नहीं की जा सकती, अतः राजाको उत्तम, मध्यम तथा अधम कार्योंको भलीभाँति समझ-बूझकर वैसे ही उत्तम, मध्यम एवं अधम पुरुषोंको सौंपना चाहिये। सौंपे गये कार्योंमें परिवर्तन अर्थात् अधमको उत्तम और उत्तमको अधम कार्य सौंप देनेसे राजाका विनाश हो जाता है। राजाको चाहिये कि अपने पुरुषोंके निश्चय, पौरुष, भक्ति, शास्त्रज्ञान, शूरता, कुल और नीतिको जानकर उनका वेतन निश्चित | करे। कोई दूसरा व्यक्ति न जान सके इस अभिप्रायसे राजाअनेकों मन्त्रियोंके साथ अलग-अलग मन्त्रणा करे, परंतु | एक मन्त्रीकी मन्त्रणाको दूसरे मन्त्रियोंपर प्रकट न होने दे। इस संसारमें मनुष्योंको सदा कहीं भी किसीका विश्वास नहीं होता, अतः राजाको एक ही विद्वान् मन्त्रीकी मन्त्रणाका निश्चय नहीं करना चाहिये। अन्यथा दूसरेको बुद्धिके सहारे नियको प्राप्ति हो जाती है। उस अकेले किये गये निश्चयमें भी राजाको चाहिये कि फिरसे विचार कर ले। उसे त्रयीधर्ममें अटल निश्चय रखनेवाले ब्राह्मणोंकी सेवा करनी चाहिये जो नहीं हैं, उन मूर्खोकी पूजा न करे; क्योंकि वे लोकके लिये कण्टकस्वरूप हैं। पवित्र आचरणवाले, वेदवेत्ता, वृद्ध ब्राह्मणोंकी नित्य सेवा करनी चाहिये और उन्हींसे सदा विनम्र होकर विनयकी शिक्षा लेनी चाहिये। ऐसा करनेसे वह (राजा) निःसंदेह सम्पूर्ण वसुन्धराको वशमें कर सकता है। बहुत-से राजा उद्दण्डताके कारण अपने परिजन एवं अनुचरोंके साथ नष्ट हो गये और अनेकों वनस्थ राजाओंने विनयसे पुनः राज्यश्रीको प्राप्त किया। है। राजाओंको वेदवेत्ताओंसे तीनों वेद, शाश्वती दण्डनीति, | आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा आत्मविद्या ग्रहण करनी चाहिये और सर्वसाधारणसे लौकिक वार्ताओंकी सूचना प्राप्त करनी चाहिये। राजाको दिन-रात इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनेकी युक्ति करते रहना चाहिये; क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाओंको वशमें रखनेमें समर्थ हो सकता है। राजाको दक्षिणायुक्त बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये तथा ब्राह्मणोंको धर्मको प्रासिके लिये भोग्य सामग्रियाँ और धन देना चाहिये ॥ 43-56 ॥
बुद्धिमान् कर्मचारियोंद्वारा राज्यसे वार्षिक कर वसूल कराये। उसे सर्वदा स्वाध्यायमें लीन तथा लोगों के साथ पिता और भाईका सा व्यवहार करना चाहिये। राजाको गुरुकुलसे लौटे हुए ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। राजाओंके लिये यह अक्षय ब्राह्म-निधि (कोश खजाना) कही गयी है। चोर अथवा शत्रुगण उसका हरण नहीं कर सकते और न उसका विनाश ही होता है। इसलिये राजाको इस अक्षय ब्राह्म-निधि (खजाने ) का संचय अवश्य करना चाहिये। राजाको चाहिये कि वह अपने उत्तम, मध्यम तथा अधम अनुचरोंद्वारा प्रजाको बुलाकर उनका पालन करे और अपने क्षात्रधर्मका स्मरण कर संग्रामसे कभी विचलित न हो।युद्धविमुख न होना, प्रजाओंका परिपालन तथा ब्राह्मणोंकी शुश्रूषा—ये तीनों धर्म राजाओंके लिये परम कल्याणकारी है। उसी प्रकार दुर्दशाग्रस्त, असहाय और वृद्धोंक तथा विधवा स्त्रियोंके योगक्षेम एवं जीविकाका प्रबन्ध करना चाहिये। राजाको वर्णाश्रमकी व्यवस्था विशेषरूपसे करनी चाहिये तथा अपने धर्मसे भ्रष्ट हुए लोगोंको पुनः अपने | अपने धर्मो में स्थापित करना चाहिये। चारों आश्रमोंपर भी उसी प्रकारकी देख-रेख रखनी चाहिये। राजाके लिये उचित है कि यह अतिथिके लिये अन्न, तैल और पात्रोंको व्यवस्था स्वयं करे एवं सम्माननीय व्यक्तियोंका अपमान न करे तथा तपस्वीके लिये अपने सभी कर्मोंको तथा राज्य एवं अपने आपको समर्पित कर दे और देवताके समान चिरकालतक उनकी पूजा करे। मनुष्यके द्वारा सरल (सुमति) और कुटिल (कुमति) दो प्रकारकी बुद्धियोंको जानना चाहिये। उनमें कुटिल बुद्धिको जान लेनेपर उसका सेवन न करे, किंतु यदि आ गयी हो तो उसे दूर हटा दे। राजाके छिद्रको शत्रु न जान सके, किंतु वह शत्रुके छिद्रको जान ले वह कछुएकी भाँति अपने अङ्गोंको छिपाये रखे और अपने छिद्रकी रक्षा करे। | अविश्वसनीय व्यक्तिका विश्वास न करे और विश्वसनीयका भी बहुत विश्वास न करे; क्योंकि विश्वाससे उत्पन्न हुआ भय मूलको भी काट डालता है ॥ 57-68 ॥
राजाको चाहिये कि वह यथार्थ कारणको प्रकाशित करके दूसरोंको अपनेपर विश्वस्त करे। वह बगुलेकी भाँति अर्थका चिन्तन करे, सिंहकी तरह पराक्रम करे, भेड़ियेके समान लूट-पाट कर ले, खरगोशकी तरह छिपा रहे तथा शूकरके सदृश दृढ़ प्रहार करनेवाला हो। राजा मोरकी भाँति विचित्र आकारवाला, कुत्तेकी तरह अनन्यभक्त तथा कोकिलकी भाँति मृदुभाषी हो। नरश्रेष्ठ! राजाको चाहिये कि वह सर्वदा कौएकी भाँति सशङ्कित रहे। वह गुप्त स्थानपर निवास करे, पहले बिना परीक्षा किये भोजन, शय्या, वस्त्र, पुष्प, अलंकार एवं अन्यान्य सामग्रियोंको न ग्रहण करे। विश्वस्त पुरुषोंद्वारा पहले बिना परीक्षा किये हुए मनुष्योंकी भीड़ तथा अज्ञात जलाशय में प्रवेश न करे। दुष्ट हाथी एवं बिना सिखाये घोड़ेपर न चढ़े, न बिना जानी हुई स्त्रीके साथ समागम करे और न देवोत्सवमें निवास करे। धर्मज्ञ राजाको सर्वदा राजलक्ष्मी (चिह्न) से सुसम्पन्न, दोनरक्षक औरउद्यमी होना चाहिये। पृथ्वीको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले राजाको सर्वदा सम्मानित एवं पालित उत्तम अनुचरोंको | सहायक बनाना चाहिये। वह प्राणियोंको यथायोग्य कर्मोमें नियुक्त करे। उसे धर्म कार्योंमें धर्मात्माओंको, युद्धकमोंमें शूरवीरोंको, अर्थ- कार्योंमें उसके विशेषज्ञोंको, सच्चरित्रोंको सर्वत्र स्त्रियोंके मध्य में नपुंसकको और भीषण कर्मोमें निर्दयको नियुक्त करना चाहिये। रविनन्दन। राजाको धर्म, अर्थ, काम और नीतिके कार्योंमें गुप्त पारिश्रमिक देकर अनुचरोंको परीक्षा करनी चाहिये उत्तीर्ण होनेवालेको श्रेष्ठ गुप्तचर बनाये और उनके कार्योंकी देखरेख करनेवालोंको उनका अध्यक्ष बनाये। राजन्! इस प्रकार राजाको राज्यके कार्योंका संचालन करना चाहिये। राजाको सर्वथा उम्र कमवाला नहीं होना चाहिये। नरेश्वर! राजाके जो पापाचरणद्वारा सिद्ध होनेवाले कर्म हैं, उन्हें सत्पुरुष नहीं करते, अतः राजाको भी उनका परित्याग कर देना चाहिये क्योंकि राजाओंके लिये क्रूर कर्माचरण उचित नहीं है। राजाको चाहिये कि जिस कार्यमें जिसकी विशेष कुशलता है, उसे उसी कार्यमें परीक्षा लेकर नियुक्त करे; किंतु पिता-पितामहसे चले आते हुए नौकरोंको सभी कर्मोंमें नियुक्त करे, परंतु अपने जातीय कार्यों में उन्हें न रखे ।।69-836॥
महाभाग! राजाको पारिवारिक कार्योंमें परीक्षा करके मनुष्योंको नियुक्त करना चाहिये; क्योंकि वे उसके कल्याण करनेवाले होते हैं। अनुचरोंका संग्रह करनेकी भावनासे राजाको चाहिये कि जो अनुचर दूसरे राजाकी ओरसे उनके यहाँ आयें चाहे वे दुष्ट हो अथवा सज्जन, उन्हें प्रयत्नपूर्वक अपने यहाँ आश्रय दे; किंतु दुष्टको समझकर राजा उसका विश्वास न करे, परंतु जनसंग्रहको इच्छासे उसे भी जीविका | देनी चाहिये। राजाको चाहिये कि दूसरे देशसे आये हुए व्यक्तिका विशेष स्वागत करे और 'यह मेरे देशमें आया है' ऐसा समझकर उसका अधिक सम्मान करे। नराधिप ! राजाको अधिक नौकर नहीं रखना चाहिये। साथ ही जो | पहले अपने पदसे पृथक कर दिये गये हों, ऐसे नौकरोंको किसी प्रकार भी नियुक्त न करे। नरशार्दूल! शत्रु, अग्नि, विष, सर्प तथा नंगी तलवार- ये सब एक ओर हैं तथा क्रुद्ध अनुचर एक ओर हैं (अर्थात् दोनों समान हैं) राजाको चाहिये कि गुप्तचरद्वारा नित्य उन अनुचरोंके चरित्रकी जानकारी प्राप्त कर उनमें गुणवानोंका सत्कार और निर्गुणोंका अनुशासन करता रहे। राजन्! इसी कारण राजालोग | सर्वदा चारचक्षु (अर्थात् गुप्तचर ही जिनकी आँखें हैं ऐसा)कहलाते हैं। अपने देशमें या पराये देशमें ज्ञानी, निपुण, निर्लोभी और कष्टसहिष्णु गुप्तचरोंको नियुक्त करना चाहिये। जिन्हें साधारण जनता न पहचानती हो, जो सरल दिखायी पड़ते हों, जो एक-दूसरेसे परिचित न हों तथा वणिक्, मन्त्री, ज्योतिषी, वैद्य और संन्यासीके वेशमें भ्रमण करनेवाले हों, राजा ऐसे गुप्तचरोंको नियुक्त करे। राजा एक गुप्तचरकी बातपर, यदि वह अच्छी लगनेवाली भी हो तो भी विश्वास न करे। उस समय उसे दो गुप्तचरोंकी बातोंपर उनके आपसी सम्बन्धको जानकर ही विश्वास करना चाहिये। यदि वे दोनों आपसमें अपरिचित हों तो विश्वास करना चाहिये। इसीलिये राजाको गुप्त रहनेवाले चरोंको नियुक्त करना चाहिये ॥ 84 - 94 ॥
राज्यके मूलाधार गुप्तचर ही हैं, क्योंकि गुप्तचर ही राजाके नेत्र हैं। अतः राजाको गुप्तचरोंकी भी यत्नपूर्वक परीक्षा करनी चाहिये। राज्यमें अनुचरोंका अनुराग एवं वैर तथा प्रजाके गुण और अवगुण - राजाओंके ये सभी कार्य गुप्तचरोंपर ही निर्भर हैं, अतः उनके प्रति यत्नशील रहना चाहिये। राजाको यह बात सर्वदा ध्यानमें रखनी चाहिये कि लोकमें मेरे किस कामसे सभी लोग अनुरक्त रहेंगे और किस कामसे विरक्त हो जायँगे। इसे समझकर राजाको लोकमें अनुरागजनक कार्यका सम्पादन और विरागोत्पादक कर्मका विशेषरूपसे त्याग करना चाहिये सूर्यकुलचन्द्र चूँकि राजाओंकी लक्ष्मी उनकी प्रजाओंके अनुरागसे उत्पन्न होनेवाली होती है, इसलिये श्रेष्ठ राजाओंको पृथ्वीपर मानवोंके प्रति प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त अनुराग करना चाहिये ॥ 95-99॥