गर्गजीने कहा- ब्रह्मन् ! सुदृढ़ राजभवन, तोरण,Nअट्टालिका प्रवेशद्वार, परकोटा और परका अकारण गिरना राजाकी मृत्युका कारण होता है जहाँ दिशाएँ धूलि अथवा धूएँसे व्याप्त दिखायी पड़ती हैं तथा सूर्य, चन्द्रमा और ताराओंका रंग बदल जाता है तो यह भी भय वृद्धिका सूचक है। जहाँ राक्षस दिखायी पड़ते हों, ब्राह्मण विधर्मी हों, ऋतुओंका विपर्यय हो, लोग अपूज्यकी पूजा करते हों और नक्षत्रगण आकाशसे नीचे गिरने लगें तो यह महान् भयका लक्षण है। जहाँ केतुका उदय, ग्रहण, चन्द्र-सूर्यके बिम्बमें छिद्र तथा ग्रह और नक्षत्रों में विकार दिखायी दे, वहाँ भी भयकी सम्भावना कहनी चाहिये। जहाँ स्त्रियाँ आपसमें झगड़ने लगें, बालक बच्चोंको मारने लगे, उचित कार्योंका विनाश होने लगे, शान्तिकमों में आहुति देनेपर भी अग्नि उद्दीप्त न हो, | पिपीलिका और मांसभक्षी पक्षी उत्तर दिशा होकर जायें, भरे हुए घटोंमें रखी हुई वस्तुओंका चूना, हविका नष्ट हो जाना, चारों ओरसे माङ्गलिक वाणियोंका न सुना जाना, लोगों में कास रोगको पीड़ा, जनतामें अकारण हंसी |और गानेकी अभिरुचि, देवता और ब्राह्मणोंके प्रति उचित बर्तावका अभाव, बाजोंका मन्द एवं विकृत स्वरमें बजना, लोगों में गुरु एवं मित्रोंसे द्वेष तथा शत्रुकी पूजामें अभिरुचि, ब्राह्मण, मित्र और माननीय लोगोंका अपमान तथाशान्तिपाठ, माङ्गलिक कार्य और हवनादिमें नास्तिकताका प्रभाव दिखायी पड़े, वहाँका राजा मर जाता है अथवा वह देश विनष्ट हो जाता है ॥ 1-11 ॥
द्विजोत्तम! अब मैं राजाका विनाश उपस्थित होनेपर उत्पन्न होनेवाले निमित्तोंको बतला रहा हूँ, सुनिये। वह राजा सर्वप्रथम ब्राह्मणोंसे द्वेष करने लगता है, ब्राह्मणोंसे विरोध करता है, ब्राह्मणोंकी सम्पत्तिको हड़प लेता है, ब्राह्मणोंके मारनेका उपक्रम करता है, उसे सत्कार्यों के सम्पादनका स्मरण नहीं होता, वह माँगनेपर क्रुद्ध होता है, ब्राह्मणोंकी निन्दामें विशेष रुचि रखता है और प्रशंसाका अभिनन्दन नहीं करता, लोभवश लोगोंपर नया-नया कर लगाता है— ऐसे अवसरपर शचीसहित इन्द्रकी पूजा करनी चाहिये तथा ब्राह्मणोंको भोजन और अन्य देवताओंके उद्देश्यसे बलि प्रदान करना चाहिये। सत्पुरुषों एवं ब्राह्मणोंकी पूजा कर उन्हें दान देना चाहिये । श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको गौएँ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादिका दान, देवताओंकी पूजा तथा हवन करना चाहिये। ऐसा करनेसे पाप शान्त हो जाता है ।। 12-16 ॥