शौनकजी कहते हैं— शतानीक ! इस प्रकार नहुषनन्दन राजा ययाति अपने प्रिय पुत्र पूरुका राज्याभिषेक करके प्रसन्नतापूर्वक वानप्रस्थ मुनि हो गये। वे वनमें ब्राह्मणोंके साथ | रहकर कठोर व्रतका पालन करते हुए फल मूलका आहार तथा मन और इन्द्रियोंका संयम करते थे, इससे वे स्वर्गलोकमें गये। स्वर्गलोकमें जाकर वे बड़ी प्रसन्नताके साथ सुखपूर्वक रहने लगे और बहुत कालके बाद इन्द्रद्वारा | वे पुनः स्वर्गसे नीचे गिरा दिये गये। स्वर्गसे भ्रष्ट हो पृथ्वीपर गिरते समय वे भूतलतक नहीं पहुँचे, आकाशमें ही स्थिर हो गये, ऐसा मैंने सुना है। फिर यह भी सुननेमें आया है कि वे पराक्रमी राजा ययाति मुनिसमाजमें राजा वसुमान्, अष्टक, प्रतर्दन और शिविसे मिलकर पुनः वहाँसे साधु पुरुषोंक सङ्गके प्रभावसे स्वर्गलोकमें चले गये ॥ 1-5 ॥शतानीकने पूछा-भगवन्! किस कर्मसे वे भूपाल पुनः स्वर्गमें पहुँचे थे? तथा इन्द्रने उन्हें भूतलपर क्यों ढकेल दिया था? विप्रवर में ये सारी बातें पूर्णरूपसे यथावत् सुनना चाहता हूँ। इन ब्रह्मर्षियोंके समीप आप इस प्रसंगका वर्णन करें। कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले अग्रिके समान तेजस्वी राजा ययाति देवराज इन्द्रके समान थे। उनका यश चारों ओर फैला था। देवेश मैं उन सत्यकीर्ति महात्मा ययातिका चरित्र, जो इहलोक और स्वर्गलोकमें सर्वत्र प्रसिद्ध है, सुनना चाहता हूँ ॥ 6-9 ॥
शौनकजी कहते हैं-शतानीक ययातिकी उत्तम कथा इहलोक और स्वर्गलोकमें भी पुण्यदायक है। यह सब पापोंका नाश करनेवाली है, मैं तुमसे उसका वर्णन करता हूँ। नहुष पुत्र महाराज ययातिने अपने छोटे पुत्र पुरुको राज्यपर अभिषिक्त करके यदु आदि अन्य पुत्रोंको सीमान्त ( किनारेके देशों) में रख दिया। फिर बड़ी प्रसन्नताके साथ वे वनमें चले गये। वहाँ फल- मूलका आहार करते हुए उन्होंने दीर्घकालतक निवास किया। उन्होंने अपने मनको शुद्ध करके क्रोधपर विजय पायी और प्रतिदिन देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करते हुए वानप्रस्थाश्रमकी विधिसे शास्त्रीय विधानके अनुसार अग्रिहोत्र प्रारम्भ किया। वे राजा शिलोच्छवृत्तिका आश्रय ले यज्ञशेष अन्नका भोजन करते थे भोजनसे पूर्व वनमें उपलब्ध होनेवाले फल, मूल आदि हविष्यके द्वारा अतिथियोंका आदर-सत्कार करते थे। राजाको इसी वृत्तिसे रहते हुए पूरे एक हजार वर्ष बीत गये। उन्होंने मन और वाणीपर संयम करके तीन वर्षोंतक केवल जलका आहार किया। तत्पश्चात् वे आलस्यरहित हो एक वर्षतक केवल वायु पीकर रहे। फिर एक वर्षतक पाँच अग्रियोंके बीच बैठकर तपस्या की। इसके बाद छः महीनेतक हवा पीकर वे एक पैरसे खड़े रहे। तदनन्तर | पुण्यकीर्ति महाराज ययाति पृथ्वी और आकाशमें अपना यश फैलाकर स्वर्गलोकमें चले गये ॥ 10- 17 ॥