शौनकजीने कहा- अर्जुन। यह जगत् पहले दिव्य हिरण्मय अण्डके रूपमें था। यह प्रजापतिकी मूर्ति है ऐसी वैदिकी श्रुति है। एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर सर्वव्यापी एवं लोकोंके जन्मदाता विष्णुने उस अण्डके ऊर्ध्व मुखका भेदन किया और पुनः लोकसृष्टिके लिये उसके अधोमुखको भी फोड़ दिया। फिर उस अण्डको आठ भागों में विभक्त कर दिया। तत्पश्चात् विभागकर्ता विष्णुने जगत्का भी विभाजन किया। विश्वस्रष्टा भगवानद्वारा किया गया जो ऊपरका छिद्र था, वह विवरके आकारवाला आकाश और जो नीचेका छिद्र था, वह रसातल हुआ। भगवान्ने पूर्वकालमें लोकसृष्टिकी कामनासे जिस अण्डको उत्पन्न किया था, उससे जो जल टपका था, वह स्वर्णमय सुमेरु पर्वत हुआ और हजारों पर्वतोंके संयोगसे विशाल पृथ्वी विषमा अर्थात् ऊँची-नीची हो गयी। उस समय अनेकों योजन विस्तृत उन भारी पर्वतसमूहोंसे पीड़ित हुई पृथ्वी व्याकुल हो गयी। महामते। तब पृथ्वी जो स्वर्णमय तेजसे युक्त, महान् बलसे सम्पन्न और नारायणस्वरूप था, उस दिव्य हिरण्मय अण्डको धारण करनेमें असमर्थ होकर उसे त्यागकर नीचेकी ओर जाने लग; क्योंकि वह उन भगवान्के तेजसे पीड़ित हो रही थी तब भगवान् मधुसूदनने पृथ्वीको नीचे प्रवेश करती हुई देखकर लोककल्याण भावनासे उसके उद्धारका विचार किया ॥ 1-10॥
श्रीभगवान्ने कहा यह तपस्विनी पृथ्वी मेरे तेजको प्राप्तकर ( धारण करनेमें असमर्थ हो) कीचड़ में फँसी हुई दुबली गौकी भाँति रसातलमें प्रवेश कर रही है ।। 11 ।।
पृथ्वीने कहा जो तीन परामें पृथ्वीको नाप लेनेवाले वामनरूप, अमित पराक्रमी महावराहरूप, सुरश्रेष्ठ तथा लक्ष्मी, धनुष, चक्र, खड्ग और गदा धारण करनेवाले हैं, ऐसे | आपको नमस्कार है। देव श्रेष्ठ! आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये।प्रभो! आपके शरीरसे जगत् उत्पन्न हुआ है, पुष्कर द्वीपकी उत्पत्ति हुई है और ब्रह्मा प्रकट हुए हैं, आप सभी लोकों और प्राणियोंके सनातन पुरुष माने जाते हैं। आपकी कृपासे ये देवराज इन्द्र स्वर्गका उपभोग कर रहे हैं। जनार्दन आपके क्रोधसे बलवान् बलि जीता गया है। आप धाता, विधाता और संहर्ता हैं। आपमें समस्त जगत् प्रतिष्ठित है। मनु प्रजापति, यम, अग्नि, पवन, मेम, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, समुद्र, वृक्ष, पर्वत, नदियाँ, धर्म, काम, यह यज्ञको क्रियाएँ विद्या जाननेयोग्य अन्य बातें, जीवगण, लज्जा, ही, श्री, कीर्ति, धैर्य, क्षमा, पुराण, वेद, वेदाङ्ग, सांख्य, योग, जन्म, मरण, जंगम, स्थावर भूत और भविष्यत् ये सभी तीनों लोकोंमें | आपके प्रभावसे आच्छादित हैं। आप देवताओंको उत्तम फल देनेवाले, स्वर्गकी रमणियोंके लिये सुन्दर पल्लवरूप, सभी लोगोंके मनको प्रिय लगनेवाले, सभी जीवोंके मनके हरणकर्ता, विमानरूपी अनेक वृक्षोंसे युक्त, मेघोंके जलरूप मधु टपकानेवाले, दिव्य लोकरूप महान् स्कन्धवाले, सत्यलोकरूप शाखाओंसे युक्त, सागररूप रस, रसातलकी तरह जलके आश्रयस्थान, ऐरावतरूप वृक्षसे युक्त तथा जन्तुओं और पक्षियोंसे सुसेवित हैं। 12–21 ॥ आप शील, सदाचार और श्रेष्ठ गन्धसे युक्त, सर्वलोकमय वृक्ष, बारह आदित्योंसे युक्त द्वीप, ग्यारह रुद्ररूप नगर, आठों वसुरूप पर्वत, त्रिलोकीरूप जलसे परिपूर्ण महासागर, सिद्ध और साध्यरूप लहरोंसे युक्त, गरुड़रूप वायुसे सेवित, दैत्यसमूहरूप महान् ग्राह, राक्षस और नागरूपी मछलियोंसे व्याप्त ब्रह्मरूप महान् धैर्यसम्पन्न, स्वर्गकी अप्सरारूप रत्नसे विभूषित हैं। आप बुद्धि, लक्ष्मी, लज्जा और कान्तिरूपी नदियोंसे नित्य सुशोभित तथा कालके योगसे उत्पन्न होनेवाले महापर्वके समय वेगपूर्वक प्रयागमें गमन करनेवाले हैं। नारायण आप अपने योगरूपी महापराक्रमसे सम्पन्न महासागर हैं और पुनः आप ही काल बनकर निर्मल जलसे जगत्को आह्लादित करते हैं। आपने तीनों लोकोंकी सृष्टि की है और आपसे ही उनका संहार होता है। आपके द्वारा नियुक्त किये गये सभी योगी आपमें ही प्रविष्ट होते हैं। देव ! आप प्रत्येक युगमें प्रलयाग्नि और प्रत्येक युगमें प्रलयकालीन मेघ हैं तथा मेरा भार | उतारनेके लिये आप प्रत्येक युगमें अवतीर्ण होते हैं।आप कृतवर्ण तामें चम्पक-पुष्प सदृश पीतवर्ग, द्वापर में रक्तवर्ण और कलियुगमें श्यामवर्ण हो जाते हैं। वेदज्ञ! युग-संधियोंक प्राप्त होनेपर आप विवर्णताको धारण करते हैं और सभी धर्मो में विपरीतता उत्पन्न कर देते हैं। आप प्रकाशित होते, प्रवाहित होते, तपते, रक्षा करते और चेष्टा करते हैं। आप क्रोध करते, शान्ति धारण करते, उद्दीप्त करते और वर्षा करते हैं। आप हँसते, स्थिर रहते मरते और जागते रहते हैं तथा प्रलयकालमै काल बनकर सभी जीवोंको निःशेष कर देते हैं॥ 22-32 ॥
फिर अपनेको शेष बचा हुआ देखकर पुनः आप उसकी वृद्धि करते हैं। युगान्तकी अग्निमें सभी भूतोंके दग्ध हो जानेपर एकमात्र आप शेष रहते हैं, इसलिये आप 'शेष' नामसे पुकारे जाते हैं। ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण आदि देवता उत्पत्ति और पतनसे युक्त हैं, किंतु आप अपने स्थानसे च्युत नहीं होते, इसलिये 'अच्युत' कहलाते हैं। चूँकि आप ब्रह्मा, इन्द्र, यम, रुद्र और वरुणका निग्रहपूर्वक हरण करते हैं, इसलिये यहाँ 'हरि' कहे जाते हैं। देव आप अपने शरीर, यश, श्री और विराट् शरीरद्वारा सभी जीवाँका विस्तार करते हैं, इसलिये 'सनातन' हैं। चूँकि ब्रह्मा आदि देवगण और उम्र तेजस्वी मुनिगण आपका अन्त नहीं जान पाते, इसीलिये आप 'अनन्त' कहे जाते हैं। सैकड़ों करोड़ कल्पोंमें भी न तो आप क्षीण होते हैं। और न नष्ट होते हैं, इसलिये विनाशरहित होनेके कारण आप 'अक्षर' कहे गये हैं। आप सम्पूर्ण चराचर जगत्को स्तम्भित किये रहते हैं, इसीलिये जगत्का विष्टम्भन करनेके कारण 'विष्णु' कहे जाते हैं। आप सचराचर त्रिलोकीको नित्य अवरुद्ध करके स्थित रहते हैं तथा आप ही यक्षों एवं गन्धर्वोके नगरोंसे सम्पन्न और महान् नागोसे युक्त चराचरसहित त्रिलोकीमें प्रवेश करके उसे व्याप्त किये। रहते हैं, इसीलिये स्वंय ब्रह्माने आपको 'विष्णु' नामसे अभिहित किया है। तत्त्वदर्शी ऋषियोंने जलका नाम "नारा' कहा है और वह पूर्वकालमें आपका निवासस्थान था, इसीसे आप 'नारायण' कहे जाते हैं। विष्णो! प्रत्येक युगमें नष्ट हुई गोरूपिणी पृथ्वीको तत्त्वतः आप ही प्राप्त करते हैं, इसीलिये ऋषिगण आपको 'गोविन्द' नामसे पुकारते हैं। तत्त्वज्ञानमें निपुणजन इन्द्रियोंको हृषीक कहते हैं और आप उन इन्द्रियोंके शासक हैं, अतः 'हृषीकेश' कहे जाते हैं॥ 33-44 3 ॥युगान्तके समय ब्रह्मा आदि सभी प्राणी आपमें निवास करते हैं और आप प्राणियोंमें निवास करते हैं, इसीलिये आप 'वासुदेव' कहलाते हैं। प्रत्येक कल्पमें आप पुनः पुनः प्राणियोंको आकर्षित करते हैं, इसीलिये तत्त्वज्ञानविशारदोंने आपको 'संकर्षण' कहा है। आपके प्रभावसे देवता, असुर और राक्षस अपने-अपने व्यूहों में स्थित रहते हैं तथा आप सभी धर्मोके विशेषज्ञ हैं, अतः 'प्रद्युम्न' नामसे कहे जाते हैं। चूँकि सभी प्राणियोंमें कोई भी आपका निरोध करनेवाला नहीं है, इसीलिये महर्षियोंने पहलेसे ही आपका 'अनिरुद्ध' नाम रख दिया है। आप विश्वको धारण करते हैं, आप ही जगत्का संहार भी करते हैं, आप ही प्राणियोंको धारण करते हैं और आप ही भुवनका पालन-पोषण करते हैं। आप अपने तेज और बलसे जो कुछ धारण करते हैं, उसीको पीछे मैं भी धारण करती हूँ। आपके द्वारा धारण न की हुई वस्तुको मैं धारण नहीं करती। ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिसे आपने इस जगत्में धारण न किया हो। नारायण देव! आप ही प्रत्येक युगमें संसारकी कल्याण-भावनासे मेरे ऊपर पड़नेवाले असहनीय भारको दूर करते हैं। मैं आपके ही तेजसे आक्रान्त हो रसातलमें पहुँच गयी हूँ। सुरश्रेष्ठ! मैं आपकी शरणागत हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये । मैं दुरात्मा दानवों एवं राक्षसोंसे पीड़ित होकर नित्य आप सनातनकी ही शरणमें जाती हूँ। देव! मेरे लिये भय तभीतक रहता है, जबतक मैं मनसे आप ककुद्मीकी शरणमें नहीं आती हूँ। मैंने सैकड़ों बार ऐसा देखा है। इन्द्रसहित समस्त देवगण आपकी समानता करनेमें समर्थ नहीं हैं। आप ही उस परम तत्त्वके ज्ञाता हैं। इसके बाद अब मुझे कुछ नहीं कहना है ।। 45-56 ॥
शौनकजीने कहा—तदनन्तर शार्ङ्गधनुष और चक्र धारण करनेवाले भगवान् विष्णुने पृथ्वीपर प्रसन्न होकर उसके यथेष्ट मनोरथको पूर्ण कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने कहा— 'महादेवि! जो मनुष्य इस उत्तम माधवीय स्तोत्रको धारण करेगा, उसका कभी पराभव नहीं होगा। वह पापरहित वैष्णव लोकोंको प्राप्त होगा। यह उत्तम माधवीय स्तोत्र सभी आश्चर्योंसे परिपूर्ण है। वेदाध्यायी पुरुष और मुनि इससे प्रसन्न हो जाते हैं। धरणि। तुम भय मत करो। | कल्याणि तुम मेरे सामने शान्ति धारण करो मैं तुम्हें मनसेप्सित उचित स्थान प्राप्त कराऊंगा' ll 57-61 ॥शौनकजीने कहा— तदनन्तर भगवान् विष्णुने मनमें | दिव्य स्वरूपका चिन्तन किया और सोचने लगे कि मैं कौन-सा रूप धारणकर इस पृथ्वीका उद्धार करूँ। ऐसा सोचते हुए उन्हें जलक्रीडाकी रुचि उत्पन्न हो गयी, इसलिये उन्होंने शूकरका शरीर धारण किया। वह रूप सभी प्राणियोंके लिये अजेय, वाड्मय, ब्रह्मस्वरूप, सौ योजनोंमें विस्तृत, उससे दुगुना ऊँचा, नील मेघके समान) कान्तिमान्, मेघोंकी गड़गड़ाहटके सदृश शब्दसे युक्त, पर्वतके समान सुदृढ़, भयंकर, श्वेत एवं तीखे अग्रभागवाले दाढ़ोंसे युक्त, बिजली एवं अग्निको भाँति कान्तिमान्, सूर्यके समान तेजस्वी, मोटे एवं चौड़े कंधेसे सुशोभित, गर्वीले सिंहकी-सी चालवाला, मोटे एवं ऊँचे कटिभागसे सम्पन्न और वृषभके लक्षणोंसे युक्त था। तब अजेयः भगवान् विष्णुने ऐसा विशाल वाराह स्वरूप धारणकर | पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये रसातलमें प्रवेश किया। उन महातपस्वी भगवान् वराहके वेद चारों पैर थे, यज्ञ स्तम्भ उनकी दाढ़ें थीं, यज्ञ उनके दाँत थे, यज्ञका कुण्ड उनका मुख था, अग्नि उनकी जीभ थी, कुश उनके रोएँ थे, ब्रह्म उनका मस्तक था, दिन और रात उनके नेत्र थे, वेदोंके छः अङ्ग कानके आभूषण थे, घृताहुति उनकी नासिका थी, स्रुवा उनका थूथुन था, सामवेदका उच्चस्वर शब्द था, वे सत्य और धर्मसे युक्त, श्रीसम्पन्न और कर्मरूप पराक्रमसे सत्कृत थे। प्रायश्चित्त उनके भीषण नख और पशुगण जानु भाग थे। यज्ञ उनकी आकृति थी उद्गीथद्वारा किया गया हवन उनका लिङ्ग था, बीज और ओषधियाँ महान् फल थीं, वायु उनका अन्तरात्मा, यज्ञ अस्थिविकार, सोमरस रक्त, वेद कंधे और हवि गन्ध था। वे भगवान् हव्य तथा कव्यके विभाग करनेवाले थे। प्राग्वंश उनका शरीर था। वे कान्तिमान् और अनेकों दीक्षाओंसे दीक्षित थे। दक्षिणा उनका हृदय था, वे परम योगी और महान् यज्ञमय महापुरुष थे। उपाकर्म उनके होंठोंके फलक, प्रवार्य सम्पूर्ण आभूषण, समस्त वेद गमन-मार्ग और गोपनीय उपनिषदें उनकी आसन थीं। छाया उनकी पत्नी थी ये मणिशृङ्गके समान ऊँचे थे। ऐसे वराह भगवान्ने रसातलमें जाकर दूबी हुई पृथ्वीका लोकहितकी कामनासे अपने दाढ़ोंके अग्रभागपर रखकर उद्धार किया ।। 62-74 ॥इसके बाद पृथ्वीको धारण करनेवाले वराहभगवान्ने पहले मनसे धारण की हुई वसुंधराको अपने स्थानपर लाकर छोड़ दिया। उनके धारण करनेसे पृथ्वीने भी शान्ति-लाभ किया और उन कल्याणकारी भगवान्को नमस्कार किया। इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान्ने प्राणियोंके हित करनेकी इच्छासे यज्ञवराहरूप धारणकर सागरके जलमें निमग्न हुई पृथ्वीदेवीका उद्धार किया था। इस प्रकार पृथ्वीका उद्धार कर कमलनयन भगवान् विष्णुने जगत्की स्थापनाके लिये पृथ्वीको विभक्त करनेका विचार किया। इस प्रकार अचिन्त्य पराक्रमी, अनुपम पुरुषार्थी, सुरश्रेष्ठ श्रेष्ठ वराहका रूप धारण करनेवाले भगवान् वृषाकपिने * रसातलमें गयी हुई पृथ्वीका बलपूर्वक अपनी एक दाढद्वारा उद्धार किया था ॥ 75–79 ।।