सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इस प्रकार समरभूमिमें प्रमथगणोंद्वारा घायल किये गये त्रिपुरवासी देवशत्रु दानव भयभीत होकर त्रिपुरमें लौट गये। उस समय प्रमथोंने त्रिपुरके फाटकको भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। जैसे नष्ट हुए दाँतोंवाले सर्प, टूटे हुए सींगोंवाले साँड़, डैनेरहित पक्षी और क्षीण जलवाली नदियाँ शोभाहीन हो जाती हैं, उसी प्रकार देवताओंके प्रहारसे दैत्यवृन्द मृतप्राय हो गये थे। उनके मुख विकृत हो गये थे और वे खिन्न मनसे कह रहे थे कि अब क्या किया जाय ? तब कमल-सदृश मुखवाले दैत्योंके चक्रवर्ती सम्राट् मय दैत्यने उन मलिन मनवाले दैत्योंसे कहा- 'दैत्यो! इसमें सन्देह नहीं है कि तुमलोगोंने पहले युद्धभूमिमें देवताओं सहित प्रमथगणोंके साथ भयंकर युद्ध करके उन्हें संतुष्ट किया है, किंतु पीछे तुमलोग देवसेनासे पीड़ित और प्रमर्थक प्रहारसे अत्यन्त घायल होकर भगवत नगरमें भाग आये हो निस्संदेह देवगण प्रकटरूपमें हमलोगोंका अप्रिय कर रहे हैं, इसी कारण ये महान् भाग्यशाली दैत्य इस समय भागकर पर्वतीय वनोंमें छिप रहे हैं। अहो ! कालका बल महान् है ! अहो! यह काल किसी प्रकार जीता नहीं जा सकता। कालके ही प्रभावसे त्रिपुर-जैसे दुर्गपर यह अवरोध उत्पन्न हो गया है।'मेघकी भाँति कड़कते हुए मयके इस प्रकार विषाद करनेपर सभी दैत्य उसी प्रकार निस्तेज हो गये, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेपर अन्य ग्रह मलिन हो जाते हैं॥ 19॥
इसी समय वर्षाकालीन मेघकी तरह शरीरधारी बावलीके रक्षक दैत्य यमराज- सदृश भयंकर मयके निकट आकर हाथ जोड़कर (अभिवादन करके) खड़े हो गये और इस प्रकार बोले— 'दैत्यनायक! आपने अमृतरूपी जलसे भरी हुई जिस गुप्त बावलीका निर्माण किया था, जो नील कमल वनसे व्याप्त थी तथा जिसमें मछलियाँ और विभिन्न प्रकारके भी कमल भरे हुए थे, उसे वृषभरूपधारी किसी देवताने पी लिया। इस समय वह बावली मूच्छित हुई सुन्दरी स्त्रीकी भाँति दीख रही है।' बावलीके रक्षकोंकी बात सुनकर दानवराज मय कष्ट है-ऐसा कई बार कहकर दैत्योंसे इस प्रकार बोला
'दानवो! मेरे द्वारा मायाके बलसे रची हुई बावलीको यदि किसीने पी लिया तो निश्चय समझो कि हमलोग नष्ट हो गये और त्रिपुरको भी गया हुआ ही समझो। हाय! जो देवताओंद्वारा बार-बार मारे गये दैत्योंको जीवन-दान देती थी, वह बावली पी ली गयी ! यदि वह सचमुच पी ली गयी तो (निश्चय ही) उसे पीताम्बरधारी विष्णुने ही पीया होगा। भला, गदाधारी अजेय विष्णुको छोड़कर दूसरा कौन ऐसा समर्थ है, जो मेरी मायाद्वारा गुप्त एवं अमृतरूपी जलसे भरी हुई बावलीको पी सकेगा? भूतलपर दैत्योंकी गुप्त से गुप्त बात विष्णुसे अज्ञात नहीं है। मेरी वरप्राप्तिकी कुशलता, जिसे विद्वान् लोग नहीं जान सके, विष्णुसे छिपी नहीं है। हमारा यह देश सुन्दर और समतल है। यह वृक्ष और पर्वतसे रहित है। फिर भी मरुद्गण इसे नूतन जलसे परिपूर्ण करके हमलोगोंको बाधा पहुँचा रहे हैं। इसलिये यदि तुमलोगों को स्वीकार हो तो हमलोग सागरके ऊपर स्थित हो जायें और वहाँसे प्रमयों के वायुके समान महान् वेगको सहन करें। सागरकी उस बाढ़में इनका सारा उद्योग उत्साहहीन हो जायगा और उस विशाल रथका मार्ग रुक जायगा । इसलिये युद्ध करते समय, शत्रुओंको मारते समय और भयभीत होकर भागते समय हमलोगोंके लिये यह सागर आकाशकी भाँति शरणदाता हो जायगा।' ऐसा कहकर दैत्यराज मय दानव तुरंत त्रिपुरसहित नदियोंके बन्धुस्वरूप सागरकी ओर प्रस्थित हुआ।फिर तो वह श्रेष्ठ त्रिपुर नामक नगर अगाध जलवाले सागरके ऊपर मँडराने लगा। उसके फाटक और आभूषणादि सहित तीनों पुर यथास्थान स्थित हो गये ॥ 10- 23 ॥
इस प्रकार त्रिपुरके दूर हट जानेपर त्रिपुरारि भगवान् शंकरने वेदवादमें निपुण ब्रह्मसे इस प्रकार कहा- ऐश्वर्यशाली | पितामह! दानवगण हमलोगोंसे भलीभाँति डर गये हैं, इसलिये वे भागकर विशाल सागरकी शरणमें चले गये। पितामह! त्रिपुरसहित वे दानव जिस मार्गसे गये हैं, उसी मार्गसे आप शीघ्र ही मेरे रथको वहाँ पहुँचाइये।' तब आयुधधारी देवगण हर्षपूर्वक सिंहनाद करके और उस देवरथको चारों ओरसे घेरकर पश्चिम सागरकी ओर चल पड़े। तत्पश्चात् देवगण देवश्रेष्ठ भगवान् शंकरको चारों ओरसे घेरकर सिंहनाद करते हुए शीघ्र ही दानवोंके निवासस्थान सागरकी ओर प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचने पर सुन्दर पताकाओंसे विभूषित तथा ढोल नगारे और शहुके शब्दोंसे निनादित त्रिपुरको देखकर अनेकों सेनाओंसे सम्पन्न देवगण बादलोंकी तरह गर्जना करने लगे। उधर असुरश्रेष्ठ मयके पुरमें भी दानवोंके सिंहनादके साथ-साथ मेघ गर्जनाके सदृश मृदंगों का भयंकर एवं गम्भीर शब्द हो रहा था, जो क्षुब्ध हुए महासागरको गर्जनाके समान प्रतीत हो रहा था। तदनन्तर देवताओंके आश्रयस्थान प्रत्युत्पन्नमति त्रिभुवनपति शंकर शत्रुओंका शिकार करनेके लिये उद्यत हो गये। तब उन्होंने सहसा शत्रुओंको त्रिपुरमें प्रवेश करते देखकर देवताओं और गणक सेनानायक इन्द्रसे इस प्रकार कहा— 'देवताओं और गणेश्वरोंके नायक इन्द्र! आपलोग मेरी यह बात सुनें। दानवलोग अपने निवासस्थान त्रिपुरमें घुस गये हैं, अतः आप यम, वरुण, कुबेर, कार्तिकेय तथा गणेश्वरोंको साथ लेकर इनका संहार करें। तबतक मैं भी इन्हें मार रहा हूँ। आप शत्रुसेनापर प्रहार करते हुए समुद्रके उस स्थानतक बढ़ते चलें जहाँ तीनों पर स्थित है। यह देखकर जन उन दैत्योंको यह विदित हो जायगा कि सामर्थ्यशाली शंकर उस श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो पुनः त्रिपुरका विनाश करनेके लिये समुद्रतटपर आ गये हैं, तब वे लवणसागरके ऊपर निकल आयेंगे तब आप वज्रसहित मुसलों एवं बाणोंकी | वर्षा करते हुए दानवेन्द्रोंसहित त्रिपुरपर आक्रमण कर दें।सुरश्रेष्ठ! उस समय मैं भी इस श्रेष्ठ रथपर बैठा हुआ असुरेन्द्रोंका वध करनेके लिये उद्यत आपलोगोंके पीछे रहूँगा। अनघ ! मैं सर्वथा आपलोगोंके सुखका विधान करता रहूँगा।' इस प्रकार शंकरजीके वचनोंसे प्रेरित होकर एक हजार नेत्रोंवाले इन्द्र, जिनके नेत्र प्रफुल्ल कमलके सदृश सुन्दर थे, त्रिपुरके विनाशकी इच्छासे उद्यत होकर आगे बढ़े ॥ 24-36 ll