ऋषियोंने पूछा- सूतजी! आपने विस्तारपूर्वक राजधर्मका वर्णन तो कर दिया, उसी प्रकार अद्भुत शकुन | एवं स्वप्नदर्शनका भी निरूपण कर दिया। अब आप पुनः भगवान् विष्णुके माहात्म्यका वर्णन कीजिये। किस प्रकार भगवान्ने वामनस्वरूप धारणकर दानवराज बलिको बाँधा था और नापते समय किस प्रकार भगवान्का वह शरीर बढ़कर तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गया था ? ॥ 1-2 ॥
सूतजी कहते हैं— मुनिगण ! इसी वृत्तान्तको | प्राचीनकालमें तीर्थ-यात्राके समय कुरुक्षेत्रके वामनायतनमें अर्जुनने तपस्वी शौनकजीसे पूछा था। जिस समय उन्होंने द्रौपदीके साथ एकान्तमें बैठे हुए युधिष्ठिरके नियमोंका उल्लङ्घन किया था, उस समय वे उस पापकी शान्तिके लिये तीर्थयात्रामें गये हुए थे। उस समय धर्ममय कुरुक्षेत्रके वामनायतनमें पहुँचकर वामनभगवान्का दर्शन कर अर्जुनने इस प्रकार प्रश्न किया था ॥ 3-5॥अर्जुनने पूछा किस फलको प्राप्तिके | लिये वामनभगवान्को पूजा की जाती है? प्राचीनकाल में वराहरूपधारी भगवान् किस कारण पूज्य माने गये और किस निमित्तसे यह क्षेत्र भगवान् वामनको प्रिय हुआ है ? ॥ 6 ॥
शौनकजी बोले- कुरुनन्दन। मैं भगवान् वामन | एवं ज्ञानस्वरूप वराहके माहात्म्यको संक्षेपमें पुनः तुम्हें | बतला रहा है। प्राचीनकालमें दानवद्वारा देवताओंक पराजित हो जानेपर तथा इन्द्रको निर्वासित कर दिये जानेपर देवमाता अपने पुत्रोंके पुनरुत्थानके लिये चिन्ता करने लगीं। राजन्! देवमाता अदितिने एक हजार वर्षोंतक परम दुष्कर तप किया। उस समय वे मौन होकर वायुका आहार करती हुई श्रीकृष्णकी आराधनामें तत्पर थीं। कुरुनन्दन ! वे अपने पुत्रोंको दैत्योंद्वारा तिरस्कृत हुआ देखकर मैं निष्फल पुत्रवाली है इस दुःखसे दुःखी होकर श्रीहरिकी शरणागत हुई। तत्पश्चात् परमार्थको | समझनेवाली अदिति देवाधिदेव, इन्द्रियोंके स्वामी, सर्वव्यापी श्रीहरिको नमस्कार कर अभीष्ट वाणीद्वारा उनकी स्तुति करने लगीं ॥ 7 -11 ॥
अदिति बोलीं- सभीके दुःखोंका नाश करनेवाले आपको नमस्कार है। कमल-मालाधारीको प्रणाम है। | परम कल्याणके भी कल्याणस्वरूप एवं आदिविधाताको अभिवादन है। आप कमलनेत्र, कमलनाभि, लक्ष्मीपति, दमनकर्ता, परमार्थस्वरूप और चक्रधारी हैं, आपको बारंबार नमस्कार है। ब्रह्माकी उत्पत्तिके स्थानस्वरूप एवं आत्मयोनिको प्रणाम है। आप हाथोंमें श और खड्ग धारण करनेवाले एवं स्वर्णरता है, आपको बारंबार अभिवादन है। आप आत्मज्ञान-विज्ञानके योगियोंद्वारा चिन्तनीय, आत्मयोगी, निर्गुण, अविशेष ब्रह्मस्वरूप श्रीहरि है। आप समस्त जगत्में स्थित हैं, परंतु जगत्द्वारा देखे नहीं जाते, आप स्थूल और अति सूक्ष्मस्वरूप हैं आप शार्ङ्ग धनुषधारी देवको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत्को देखते हुए भी मनुष्य जिसे देख नहीं पाते, वह देवता इस जगत्में उन्होंके हृदयमें स्थित हैं। यह सारा जगत् उन्हींमें लीन हो जाता है। जिसका यह समस्त जगत् है और जो समस्त जगत्के आधार हैं. उन्हें बारंबार प्रणाम है। जो आद्य प्रजापतियोंमें अग्रगण्य, प्रभुओंक भी प्रभु परात्पर और देवताओंके स्वामी हैं, उन आदिकर्ता कृष्णकोअभिवादन है जो प्रवृत्ति और निवृत्तिमें अपने कमद्वारा पूजित होते हैं तथा स्वर्ग और अपवर्गके फलदाता हैं, उन गदाधारीको नमस्कार है। जो मनसे चिन्तन किये जानेपर शीघ्र ही पापको नष्ट कर देते हैं, उन आदिकर्ता परात्पर विशुद्ध हरिको प्रणाम है। समस्त प्राणी जिन अविनाशी देवदेवेश्वरको जानकर पुनः जन्म-मरणको नहीं प्राप्त होते, उन्हें अभिवादन है। जो यज्ञपरायण लोगोंद्वारा यज्ञमें यज्ञनामसे पूजित होते हैं, उन सामर्थ्यशाली परमेश्वर यज्ञपुरुष विष्णुको मैं नमस्कार करती हूँ॥ 12-23 ॥
विद्वानोंके स्वामी जो भगवान् वेदवेत्ताओंद्वारा सम्पूर्ण वेदोंमें गाये जाते हैं, उन वेदोंद्वारा जाननेयोग्य विजयशील विष्णुको प्रणाम है। जिससे विश्व उत्पन्न हुआ है और जिसमें यह लीन हो जायगा, उन वेद-मर्यादाके रक्षक महात्मा विष्णुको अभिवादन है जिसके द्वारा ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त इस विश्वका विस्तार हुआ है, उन उपेन्द्रको मायाजालसे उद्धार पानेके लिये मैं नमस्कार करती हूँ। जो ईश्वर जलरूपसे स्थित होकर सम्पूर्ण विश्वका भरण-पोषण करते हैं, उन विश्वेश्वर प्रजापति विष्णुको में प्रणाम करती हूँ। विशुद्ध मन, वचन एवं कर्मद्वारा जिनकी आराधना कर मनुष्य सम्पूर्ण अविद्याको पार कर जाते हैं, उन उपेन्द्रको मैं अभिवादन करती हूँ। जो सभी चराचर जीवोंमें विद्यमान रहकर सुख-दुःखने उत्पन्न हुए दुःख, संतोष और क्रोध आदिके वशीभूत हो निरन्तर नाचते रहते हैं, उन उपेन्द्रको मैं नमस्कार करती है। जो रात्रिजन्य अन्धकारको सूर्यकी तरह असुरमय मूर्तिमान् अन्धकारका विनाश करते हैं, उन उपेन्द्रको मैं प्रणाम करती हूँ। जो कपिल आदि महर्षियोंके रूपमें स्थित होकर ज्ञानदानद्वारा अज्ञानान्धकारको दूर करते हैं, उन उपेन्द्रको मैं अभिवादन करती हैं। जिनके नेत्रस्वरूप चन्द्रमा और सूर्य समस्त संसारके शुभाशुभ कर्मोंको बराबर देखते रहते हैं, उन उपेन्द्रको मैं नमस्कार करती हूँ जिन सर्वेश्वरके लिये मैंने इन सभी विशेषणोंको सत्यरूपसे वर्णन किया है, मिथ्या नहीं, उन अजन्मा एवं उत्पत्ति-विनाशके कारणभूत विष्णुको मैं प्रणाम करतो हूँ। मैंने उनके विषयमें जितनी सत्य बातें कही हैं, जनार्दन उससे भी बढ़कर हैं। इस सत्यके फलस्वरूप मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो जायें । ll 24- 34 llशौनकजीने कहा-इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान् वासुदेव, जो समस्त प्राणियोंके लिये अदर्शनीय हैं, अदिति के समक्ष उपस्थित होकर उनसे इस | प्रकार बोले ।। 35 ।
श्रीभगवान् ने कहा-धर्म अदिते तुम जिन अभीष्ट मनोरथोंको प्राप्त करना चाहती हो उन्हें तुम मेरी कृपासे प्राप्त करोगी, इसमें संदेह नहीं है। महाभाग्यशालिनि। सुनो, तुम्हारे हृदयमें जो वरदान स्थित है उसे शीघ्र ही इच्छानुसार माँग लो। तुम्हारा कल्याण होगा; क्योंकि मेरा दर्शन कभी विफल नहीं होता ।। 36-37 ॥
अदिति बोलीं- भक्तवत्सल देव! यदि आप मेरी भक्तिसे प्रसन्न हैं तो मेरा पुत्र इन्द्र पुनः त्रिलोकीका स्वामी हो जाय। महान् असुरोंद्वारा मेरे पुत्रका राज्य छीन लिया गया है तथा उसके यज्ञभागोंपर भी अधिकार कर लिया गया है। अब आप जैसे वरदानीके प्रसन्न हो जानेपर मेरा पुत्र पुनः उन्हें प्राप्त करे। केशव ! मेरे पुत्रका छीना हुआ राज्य मुझे उतना कष्ट नहीं दे रहा है, जितना सौतेले पुत्रोंद्वारा मेरे पुत्रोंका अपने हिस्सेसे भ्रष्ट हो जाना मेरे हृदयमें चुभ रहा है ॥ 38-40 ॥
श्रीभगवान्ने कहा- देवि! मैंने तुम्हारे इच्छानुसार | तुमपर कृपा की है। मैं अपने अंशसे युक्त कश्यपके सम्पर्क से तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न होऊंगा। इस प्रकार तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न होकर मैं देवताओंके उन सभी शत्रुओंका वध करूँगा। नन्दिनि । अब तुम तपसे निवृत्त हो जाओ ।। 41-42 ।।
आदेति बोली- जगत्कर्ता देवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप मुझपर कृपा कीजिये। केशव मैं आपको गर्भमें धारण करनेमें समर्थ नहीं हो सकती। यह सारा विश्व जिसमें स्थित है तथा जो स्वयं इस विश्वके स्वामी हैं, उन दुर्धर्ष आपको मैं अपने गर्भ में धारण करनेमें सर्वथा असमर्थ हूँ ।। 43-44 ll
श्रीभगवान् ने कहा- महाभागे तुम सच कह रही हो। यह सारा जगत् मुझमें स्थित है, अतः इन्द्रसहित समस्त देवता मेरा भार वहन करनेमें समर्थ नहीं हो सकते, किंतु देवि! मैं देवताओं, असुरों और मनुष्यों सहित सभी लोकोंको, सम्पूर्ण चराचरको तथा कश्यपसहित तुमको धारण करूँगा। तुम्हारा कल्याण हो,अब तुम्हें विकल नहीं होना चाहिये। तुम्हारे गर्भमें मेरे स्थित होनेपर तुम्हें न तो ग्लानि होगी, न खेद होगा। दाक्षायणि! मैं तुमपर ऐसी करूँगा जो दूसरोंके कृपा लिये परम दुर्लभ है। मेरे गर्भमें स्थित रहनेपर तुम्हारे पुत्रोंका जो शत्रु होगा उसके तेजोबलको मैं विनष्ट कर दूँगा। तुम दुःख मत करो ।। 45-48 ll
शौनकजी बोले – कुरुश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर भगवान् तुरंत अन्तर्हित हो गये। समयानुसार अदितिने भी उस गर्भको धारण किया। भगवान् विष्णुके गर्भस्थित होनेपर सारी पृथ्वी डगमगाने लगी, बड़े-बड़े पर्वत काँपने लगे तथा समुद्रमें ज्वार-भाटा उठने लगा । वसुधाधिप अदिति जिधर जिधर जाती थीं और अपना सुन्दर पद रखती थीं, वहाँ-वहाँ भारके कारण पृथ्वी विनम्र हो जाती थी। भगवान् विष्णुके गर्भस्थ होनेपर सभी दैत्योंके तेज बिलकुल मन्द हो गये, जैसा कि भगवान्ने अदितिसे पहले कहा था ॥ 49 - 52 ॥