ऋषियोंने पूछा- सूतजी! आपद्वारा कहा गया अन्धक वधका प्रसङ्ग तो हमलोगोंने यथार्थरूपसे सुन लिया, अब हमलोग वाराणसीका माहात्म्य सुनना चाहते हैं। ब्रह्मपुत्र सूतजी! वाराणसीमें परम कान्तिमान् भगवान् पिङ्गलको गणेशत्वको प्राप्ति कैसे हुई? अन्नदाता कैसे बने और क्षेत्रपाल कैसे हो गये? तथा वे शंकरजीके प्रेमपात्र कैसे बने ? आपके द्वारा कहे गये इस सारे प्रसङ्गको सुननेके लिये हमलोगोंकी उत्कट अभिलाषा है ॥ 1-3 ॥सूतजी कहते हैं ऋषियो पिंगलको जिस प्रकार गणेशत्व, लोकोंके लिये अन्नदत्व और वाराणसी-जैसा स्थान प्राप्त हुआ था वह प्रसङ्ग बतला रहा हूँ, सुनिये। प्राचीनकालमें हरिकेश नामसे विख्यात एक सौन्दर्यशाली यक्ष हो गया है, जो पूर्णभद्रका पुत्र था। वह महाप्रतापी, ब्राह्मणभक्त और धर्मात्मा था। जन्मसे ही उसकी शंकरजीमें प्रगाढ़ भक्ति थी। वह तन्मय होकर उन्हींको नमस्कार करनेमें उन्होंकी भक्ति करनेमें और उन्होंके ध्यानमें तत्पर रहता था। वह बैठते, सोते, चलते, खड़े होते, घूमते तथा खाते-पीते समय सदा शिवजीके ध्यानमें ही मग्न रहता था। इस प्रकार शंकरजीमें लीन मनवाले उससे उसके पिता पूर्णभद्रने कहा- 'पुत्र! मैं तुम्हें अपना पुत्र नहीं मानता। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम अन्यथा ही उत्पन्न हुए हो; क्योंकि यक्षकुलमें उत्पन्न होनेवालोंका ऐसा आचरण नहीं होता। तुम गुह्यक हो । राक्षस ही स्वभावसे क्रूर चित्तकाले मांसभक्षी, सर्वभक्षी और हिंसापरायण होते हैं। महात्मा ब्रह्माद्वारा ऐसा ही निर्देश दिया गया है। तुम ऐसा मत करो क्योंकि तुम्हारे लिये ऐसी वृत्ति नहीं बतलायी गयी है। गृहस्थ भी अन्य आश्रमोंका कर्म नहीं करते। इसलिये तुम मनुष्यभावका परित्याग करके यक्षोंके अनुकूल विविध कर्मोंका आचरण करो। यदि तुम इस प्रकार विमार्गपर ही स्थित रहोगे तो मनुष्यसे उत्पन्न हुआ ही समझे जाओगे। अतः तुम यक्षजातिके अनुकूल विविध कर्मोंका ठीक-ठीक आचरण करो। देखो, मैं भी निःसंदेह वैसा ही आचरण कर रहा हूँ॥4-13 ॥
सूतजी कहते हैं ऋषियो प्रतापी पूर्णभद्रने अपने उस पुत्रसे इस प्रकार (कहा; किंतु जब उसपर कोई प्रभाव पड़ते नहीं देखा, तब वह पुनः कुपित होकर) बोला- 'पुत्र ! तुम शीघ्र ही मेरे घरसे निकल जाओ और जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहाँ चले जाओ। 'तब वह हरिकेश गृह तथा सम्बन्धियोंका त्याग कर निकल पड़ा और वाराणसीमें आकर अत्यन्त दुष्कर तपस्यामें संलग्न हो गया। वहाँ वह इन्द्रियसमुदायको संयमित कर सूखे का और पत्थरकी भाँति निश्चल हो एकटक स्थाणु (ठूंठ) की तरह स्थित हो गया। इस प्रकार निरन्तर तपस्यामें लगे रहनेवाले हरिकेशके एक सहस दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये। उसके शरीरपर विमवट जम गयी। बड़के समान कठोर और सुई-जैसे पतले एवं तीखे मुखवाली चीटियोंने उसमें छेद कर उसे खा डाला।इस प्रकार वह मांस, रुधिर और चमड़ेसे रहित हो अस्थिमात्र अवशेष रह गया, जो कुन्द, शङ्ख और चन्द्रमाके समान चमक रहा था। इतनेपर भी वह भगवान् शंकरका ध्यान कर ही रहा था। इसी बीच पार्वती देवीने शंकरसे निवेदन किया ॥ 14-20 ॥ भगवान् देवीने कहा- देव! मैं इस उद्यानको पुनः देखना चाहती हूँ। साथ ही इस क्षेत्रका माहात्म्य सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है; क्योंकि यह आपको परम प्रिय है और इसके श्रवणका फल भी उत्तम है। इस प्रकार भवानीद्वारा निवेदन किये जानेपर परमेश्वर शंकर प्रश्नानुसार सारा प्रसंग यथार्थरूपसे कहनेके लिये उद्यत हुए। तदनन्तर पिनाकधारी देवेश्वर भगवान् शंकर पार्वतीके साथ वहाँसे चल पड़े और देवीको उस उद्यानका दर्शन कराते हुए बोले । ll 21-23 ।।
देवाधिदेव शंकरने कहा—प्रिये! यह उद्यान खिले हुए नाना प्रकारके गुल्मोंसे सुशोभित है। यह लताओंके विस्तारसे अवनत होनेके कारण मनोहर लग रहा है। इसमें चारों ओर पुष्पोंसे लदे हुए प्रियङ्गुके तथा भली भाँति खिली हुई कैटीली केतकीके वृक्ष दीख रहे हैं। यह सब ओर तमालके गुल्मों, सुगन्धित कनेर और मौलसिरी तथा फूलोंसे लदे हुए अशोक और पुंनागके उत्तम वृक्षोंसे, जिसके पुष्पोंपर भ्रमरसमूह गुजार कर रहे हैं, व्याप्त है। कहीं पूर्णरूपसे खिले हुए कमलके परागसे धूसरित अङ्गवाले पक्षी सुन्दर कलनाद कर रहे हैं, कहीं सारसोंका दल बोल रहा है। कहाँ मतवाले चालकोंकी मधुर बोली सुनायी पड़ रही है। कहीं चक्रवाकोंका शब्द गूँज रहा है। कहीं यूथ के यूथ कलहंस विचर रहे हैं। कहीं नादनिनादित हो रहा है। कहीं झुंड के झुंड मतवाले भरि गुनगुना रहे हैं। कहाँ मदसे मतवाली हुई देवाङ्गनाएँ सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पोंका सेवन कर रही हैं। कहीं सुन्दर पुष्पोंसे आच्छादित आमके वृक्ष और वाओंसे आच्छादित तिलकके वृक्ष शोभा पा रहे हैं।कहीं विद्याधर, सिद्ध और चारण राग अलाप रहे हैं तो कहाँ अप्सराओंका दल उन्मत्त होकर नाच रहा है। इसमें नाना प्रकारके पक्षी प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। यह मतवाले हारीतसमूहसे निनादित है। कहीं-कहीं झुंड के झुंड मृगके जोड़े सिंहकी दहाड़से व्याकुल मनवाले होकर इधर-उधर भाग रहे हैं। कहीं ऐसे तालाब शोभा पा रहे हैं, जिनके तटपर नाना प्रकारके सुन्दर कमल खिले हुए हैं । ll 24-30 ॥
यह घने बेंतकी लताओं एवं नीलमयूरोंसे सुशोभित और मदसे उन्मत्त हुए पक्षिसमूहोंके नादसे मनोरम लग रहा है। इसके खिले हुए वृक्षोंकी शाखाओंमें मतवाले भरे छिपे हुए हैं और उन शाखाओंके प्रान्तभाग नये किसलयोंकी शोभासे सुशोभित हैं। कहीं सुन्दर वृक्ष हाथियोंके दाँतोंसे क्षत-विक्षत हो गये हैं। कहीं लताएँ मनोहर वृक्षोंका आलिङ्गन कर रही हैं। कहीं भोगसे अलसाये हुए मयूरगण मन्दगतिसे विचरण कर रहे हैं। कहीं किम्पुरुषगण निवास कर रहे हैं। जो कबूतरोंकी ध्वनिसे निनादित हो रहे थे, जिनका उज्ज्वल मनोहर रूप है, जिनपर बिखरे हुए पुष्पसमूह हासकी छटा दिखा रहे हैं और जिनपर अनेकों देवकुल निवास कर रहे हैं, उन गगनचुम्बी मनोहर शिखरोंसे सुशोभित हो रहा है। खिले हुए कमल और अगुरुके सहस्रों वितानोंसे युक्त जलाशयोंसे जिसका देवमार्ग सुशोभित हो रहा है। उन मार्गोंपर पुष्प बिखरे हुए हैं और वह विचित्र भक्तिसे युक्त पक्षियोंसे सेवित गुल्मों और वृक्षोंसे युक्त है। जिनके अग्रभाग ऊँचे हैं, जिनकी शाखाओंका प्रान्तभाग नीले पुष्पोंके गुच्छोंके भारसे झुके हुए हैं तथा जिनकी शाखाओंके | अन्तर्भागमें लीन मतवाले भ्रमरसमूहोंकी श्रवण-सुखदायिनी मनोहर गीत हो रही है, ऐसे अशोकवृक्षोंसे युक्त है। रात्रिमें यह अपने खिले हुए तिलक वृक्षोंसे चन्द्रमाकी चाँदनीके साथ एकताको प्राप्त हो जाता है। कहीं वृक्षोंकी छायामें सोये हुए, सोकर जगे हुए तथा बैठे हुए | हरिणसमूहोंद्वारा काटे गये दूर्वाङ्कुरोंके अग्रभागसे युक्तहै। कहीं हंसोंके पंख हिलानेसे चञ्चल हुए कमलोंसे युक्त, निर्मल एवं विस्तीर्ण जलराशि शोभा पा रही है। कहीं जलाशयोंके तटपर उगे हुए फूलोंसे सम्पन्न कदलीके लतामण्डपोंमें मयूर नृत्य कर रहे हैं। कहीं झड़कर गिरे हुए चन्द्रकयुक्त मयूरोके पंखोंसे भूतल अनुरञ्जित हो रहा है। जगह-जगह पृथक् पृथक् यूथ बनाकर हर्षपूर्वक विलास करते हुए मतवाले हारीत पक्षियोंसे युक्त वृक्ष शोभा पा रहे हैं। किसी प्रदेशमें सारङ्ग जातिके मृग बैठे। हुए हैं। कुछ भाग विचित्र पुष्पसमूहोंसे आच्छादित है। कहीं उत्पन्न हुई किनाएँ हर्षपूर्वक सुमधुर गीत अलाप रही हैं, जिनसे वृक्षखण्ड मुखरित हो रहा है ॥ 31-37 ॥
कहीं वृक्षोंके नीचे मुनियोंके आवासस्थल बने हैं, जिनकी भूमि लिपी पुती हुई है और उनपर पुष्प बिखेरा हुआ है। कहीं जिनमें जड़से लेकर अन्ततक फल लदे हुए हैं, ऐसे विशाल एवं ऊंचे कटहलके वृक्षोंसे युक्त है। कहीं खिली हुई अतिमुक्तक लताके बने हुए सिद्धोंके गृह शोभा पा रहे हैं, जिनमें सिद्धाङ्गनाओंके स्वर्णमय नूपुरोंका सुरम्य नाद हो रहा है। कहीं मनोहर प्रियंगु वृक्षोंकी मंजरियोंपर भँवरे मँडरा रहे हैं। कहीं भ्रमर-समूहोंके पंखोंके आघातसे कदम्बके पुष्प नीचे गिर रहे हैं। कहीं पुष्पसमूहका स्पर्श | करके बहती हुई व बड़े-बड़े वृक्षोंके ऊपरकी शाखाओंको झुका दे रही है, जिनके आघातसे बाँसोंके झुरमुट भूतलपर गिर जा रहे हैं। उन गुल्मोंके अन्तर्गत हरिणियोंका समूह छिपा हुआ है। इस प्रकार यह उपवन मोहग्रस्त प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। यहीं कहीं चन्द्रमाकी किरणों सरीखे उज्वल मनोहर तिलकके वृक्ष कहीं सिंदूर, कुंकुम और कुसुम्भ-जैसे लाल रंगवाले अशोकके वृक्ष, कहीं स्वर्णके समान पीले एवं लम्बी शाखाओंवाले कनेरके वृक्ष और कहीं खिले हुए कमलके पुष्प शोभा पा रहे हैं। इस उपवनकी भूमि कहीं चाँदीके पत्र- जैसे श्वेत, कहीं मूँगे सरीखे लाल और कहीं स्वर्ण-सदृश पीले पुष्पोंसे आच्छादित है। कहीं नागके वृक्षोंपर पक्षिगण चहचहा रहे हैं। कहाँ लाल अशोककी डालियाँ पुष्प गुच्छोंके भारसे झुक गयी हैं। रमणीय एवं श्रमहारी पवन शरीरका स्पर्श करके बह | रहा है। उत्फुल्ल कमलपुष्पोंपर भरे गुञ्जार कर रहे हैं।इस प्रकार समस्त भुवनोंके पालक जगदीश्वर शंकरने अपने प्रिय गणेश्वरोंको साथ लेकर उस विविध प्रकारके विशाल वृक्षोंसे युक्त तथा उन्मत्त और हर्ष प्रदान करनेवाले उपवनको हिमालयकी पुत्री पार्वतीदेवीको दिखाया ॥ 38- 44 ॥
देवीने पूछा- देव! अनुपम शोभासे युक्त इस उद्यानको तो आपने दिखला दिया। अब आप पुनः इस क्षेत्रके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन कीजिये इस क्षेत्रका तथा अविमुक्तका माहात्म्य सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है, अतः आप पुनः मुझसे वर्णन कीजिये ।। 45-46 ।।
देवाधिदेव शंकर बोले- देवि! मेरा यह वाराणसी क्षेत्र परम गुहा है। यह सर्वदा सभी प्राणियोंके मोक्षका कारण है। देवि! इस क्षेत्रमें नाना प्रकारका स्वरूप धारण करनेवाले नित्य मेरे लोकके अभिलाषी मुक्तात्मा जितेन्द्रिय सिद्धगण मेरा व्रत धारण कर परम योगका अभ्यास करते हैं। अब इस नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त, अनेकविध पक्षियोंद्वारा निनादित, कमल और उत्पलके पुष्पोंसे भरे हुए सरोवरोंसे सुशोभित और अप्सराओं तथा गन्धर्वोद्वारा सदा संसेवित इस शुभमय उपवनमें जिस हेतुसे मुझे सदा निवास करना अच्छा लगता है, उसे सुनो। मेरा भक्त मुझमें मन लगाकर और सारी क्रियाएँ मुझमें समर्पित कर इस क्षेत्रमें जैसी सुगमतासे मोक्ष प्राप्त कर सकता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त कर सकता। यह मेरी महान् दिव्य नगरी गुह्यसे भी गुह्यतर है। ब्रह्मा आदि जो सिद्ध मुमुक्षु हैं, वे इसके विषयमें पूर्णरूपसे जानते हैं। अतः यह क्षेत्र मुझे परम प्रिय है और इसी कारण |इसके प्रति मेरी विशेष रति है। चूंकि मैं कभी भी इस विमुक्त क्षेत्रका त्याग नहीं करता, इसलिये वह महान् क्षेत्र अविमुक्त नामसे कहा जाता है। नैमिष, कुरुक्षेत्र, गङ्गाद्वार और पुष्करमें निवास करने तथा स्नान करनेसे यदि मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तो इस क्षेत्रमें वह प्राप्त हो जाता है, इसीलिये यह उनसे विशिष्ट है। प्रयागमें अथवा मेरा आश्रय ग्रहण करनेसे काशीमें मोक्ष प्राप्त हो जाता है ॥ 47-56 ॥यह तीर्थश्रेष्ठ प्रयागसे भी महान् कहा जाता है। महातपस्वी जैगीषव्य मुनि यहाँ परा सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। मुनिश्रेष्ठ जैगीषव्य इस क्षेत्रके माहात्म्यसे तथा भक्तिपूर्वक मेरी भावना करनेसे योगियोंके स्थानको प्राप्त कर लिये हैं। वहाँ नित्य मेरा ध्यान करनेसे योगाग्रि अत्यन्त उद्दीप्स हो जाती है, जिससे देवताओंके लिये भी परम दुर्लभ कैवल्य पद प्राप्त हो जाता है। यहाँ सम्पूर्ण सिद्धान्तोंके | ज्ञाता एवं अव्यक्त चिह्नवाले मुनियोंद्वारा देवों और दानवोंके लिये दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लिया जाता है। मैं ऐसे मुनियोंको सर्वोत्तम भोग, ऐश्वर्य, अपना सायुज्य और मनोवाञ्छित स्थान प्रदान करता हूँ। महायक्ष कुबेर, जिन्होंने अपनी सारी क्रियाएँ मुझे अर्पित कर दी थीं, इस क्षेत्रमें निवास करनेके कारण ही गणाधिपत्यको प्राप्त हुए हैं। देवि! जो संवर्तनामक ऋषि होंगे, वे भी मेरे ही भक्त हैं। वे यहीं मेरी आराधना करके सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करेंगे। पद्माक्षि! जो योगसम्पन्न, धर्मके नियामक और वैदिक कर्मकाण्डके प्रवर्तक होंगे, महातपस्वी मुनिश्रेष्ठ पराशरनन्दन महर्षि व्यास भी इसी क्षेत्रमें निवास करेंगे। सुव्रते! देवर्षियोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु, वायु, सूर्य, देवराज इन्द्र तथा जो अन्यान्य देवता हैं, सभी महात्मा मेरी ही उपासना करते हैं। दूसरे भी योगी, सिद्ध, गुप्त रूपधारी एवं महाव्रती अनन्यचित्त होकर यहाँ सदा मेरी उपासना करते हैं । ll 57-67 ।।
अलर्क भी मेरी कृपासे इस पुरीको प्राप्त करेंगे। वे नरेश इसे पहलेकी तरह चारों वर्णों और आश्रमोंसे युक्त, समृद्धिशालिनी और मनुष्योंसे परिपूर्ण कर देंगे। तत्पश्चात् चिरकालतक भक्तिपूर्वक मुझमें प्राणोंसहित अपना सर्वस्व समर्पित करके मुझे ही प्राप्त कर लेंगे। सुन्दर अली देखि तभी से इस क्षेत्रमें निवास करनेवाले जो भी मत्परायण मेरे भक्त, चाहे वे गृहस्थ हों अथवा संन्यासी, मेरी कृपासे परम दुर्लभ मोक्षको प्राप्त कर लेंगे। जो मनुष्य धर्मत्यागका प्रेमी और विषयोंमें आसक्त चित्तवाला भी हो, वह भी यदि इस क्षेत्रमें प्राणत्याग करता है तो उसे पुनः संसारमें नहीं आना पड़ता। सुव्रते! फिर जो ममतारहित, धैर्यशाली पराक्रमी, जितेन्द्रियव्रतधारी आरम्भरहित, बुद्धिमान् और आसविहीन हैं, वे सभी मुझमें मन लगाकर यहाँ शरीरका त्याग करके मेरी कृपासे परम मोक्षको ही प्राप्त हुए हैं। हजारों जन्मोंमें योगका अभ्यास करनेसे जो मोक्ष प्राप्त होता है, वह परम मोक्ष यहाँ मरनेसे ही प्राप्त हो जाता है। देवि! मैंने तुमसे इस अविमुक्त क्षेत्रके इस उत्तम, गुह्य एवं महान् फलको संक्षेपरूपसे वर्णन किया है। महेश्वरि भूतलपर इससे बढ़कर सिद्धिदाता दूसरा कोई गुहा स्थान नहीं है। इसे जो योगेश्वर एवं योगके ज्ञाता हैं, वे ही जानते हैं। यही परमोत्कृष्ट स्थान है, यही परम कल्याणकारक है, यही परब्रह्म है और यही परमपद है। गिरिराजपुत्रि मेरी रमणीय वाराणसीपुरी तो सदा त्रिभुवनकी सारभूता है। अनेकों प्रकारके पाप करनेवाले मानव भी यहाँ आकर पापके नष्ट हो जानेसे पापमुक्त हो सुशोभित होने लगते है। देवि विचित्र वृक्षों, गुल्मों, लताओं और सुगन्धित पुष्पोंसे युक्त यह क्षेत्र मेरे लिये सदा प्रियतम कहा जाता है। वेदाध्ययनसे रहित मूर्ख प्राणी भी यदि यहाँ मरते हैं तो परम पदको प्राप्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ll 68-79 ll
सूतजी कहते हैं- ऋषियो! इसी बीच महादेवजीने गिरिराजकुमारी पार्वतीदेवीसे भक्तराज पक्षको कृपारूप वर प्रदान करनेके लिये यों कहा- 'भामिनि ! वह मेरा भक्त है। वरारोहे! तपस्यासे उसके पाप नए हो चुके हैं. अतः भुवनेश्वरि वह अब हमलोगोंसे वर प्राप्त करनेका अधिकारी हो गया है।' तदनन्तर ऐसा कहकर जगदीश्वर महादेव पार्वतीदेवीके साथ उस स्थानके लिये चल पड़े, जहाँ धमनियोंसे व्यास दुर्बल यक्ष वर्तमान था यहाँ पहुँचकर पार्वती देवी दृष्टि घुमाकर उस गुग्रककी ओर देखने लगी, जिसका शरीर श्वेत रङ्गका हो गया था, चमड़ा गल गया था और अस्थिपंजर नसोंसे आबद्ध था। तब उस गुझकको दिखलाती हुई देवीने महादेवजीसे कहा- 'शंकर! इस प्रकारकी घोर तपस्यामें निरत इसे आप जो वर नहीं प्रदान कर रहे हैं, इस कारण देवतालोग आपको जो अत्यन्त निष्ठुर बतलाते हैं, वह सत्य ही है। महादेव! इस पुण्यक्षेत्रमें भलीभाँति उपासना करनेपर भी इस यक्षकुमारको इस प्रकारका महान् कष्ट कैसे प्राप्त हुआ? अतः परमेश्वर कृपा करके इसे शीघ्र ही वरदान दीजिये। देव! मनु आदि परमर्षि ऐसा कहते हैं कि सदाशिव चाहे रुष्ट हों अथवा तुष्ट-दोनों प्रकारसे उनसे सिद्धि, । भोगकी प्राप्ति, राज्य तथा अन्तमें मोक्षकी प्राप्ति होती ही है।'ऐसा कहे जानेपर जगदीश्वर महादेव पार्वतीके साथ उस स्थानके निकट गये जहाँ धमनियोंसे व्याप्त कृशकाय यक्ष स्थित था। (उनकी आहट पाकर यक्ष उनके चरणोंपर गिर पड़ा।) इस प्रकार उस हरिकेशको भक्तिपूर्वक चरणोंमें पड़ा हुआ देखकर शिवजीने उसे दिव्य चक्षु प्रदान किया जिससे वह शंकरका दर्शन कर सके। तदनन्तर यक्षने महादेवजीके आदेश से धीरेसे अपने दोनों नेत्रोंको खोलकर गणसहित वृषध्वज महादेवजीको सामने उपस्थित देखा ॥80-90 ॥
देवाधिदेव शंकरने कहा—यक्ष! अब तुम कष्टरहित होकर मेरी ओर देखो। मैं तुम्हें पहले वह वर देता हूँ जिससे तुम्हारे शरीरका वर्ण सुन्दर हो जाय तथा तुम त्रिलोकीमें देखनेयोग्य हो जाओ ॥ 91 ॥
सूतजी कहते हैं- ऋषियो तत्पश्चात् वरदान पाकर वह अक्षत शरीरसे युक्त हो चरणोंपर गिर पड़ा, फिर मस्तकपर हाथ जोड़कर सम्मुख खड़ा हो गया और बोला- 'भगवन्! आपने मुझसे कहा है कि 'मैं वरदाता हूँ' तो मुझे ऐसा वरदान दीजिये कि आपमें मेरी अनन्य एवं अटल भक्ति हो जाय। मैं अक्षय अन्नका दाता तथा लोकोंके गणोंका अधीश्वर हो जाऊँ, जिससे आपके अविमुक्त स्थानका सर्वदा दर्शन करता रहूँ। देवेश! मैं आपसे यही उत्तम वर प्राप्त करना चाहता हूँ ॥ 92-95 ll
देवदेवने कहा- यक्ष ! तुम जरा-मरणसे विमुक्त, सम्पूर्ण रोगोंसे रहित, सबके द्वारा सम्मानित धनदाता गणाध्यक्ष होओगे। तुम सभीके लिये अजेय, योगैश्वर्यसे युक्त, लोकोंके लिये अन्नदाता, क्षेत्रपाल, महाबली, महान् पराक्रमी, ब्राह्मणभक्त मेरा प्रिय त्रिजधारी दण्डपाणि तथा महायोगी होओगे। उद्भ्रम और सम्भ्रम- ये दोनों गण तुम्हारे सेवक होंगे। ये उद्धम और सम्भ्रम तुम्हारी आज्ञासे लोकका कार्य करेंगे ॥ 96- 99 ॥ सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! इस प्रकार देवेश भगवान् महेश्वर वहाँ उस यक्षको गणेश्वर बनाकर उसके साथ अपने निवासस्थानको लौट गये ॥ 100 ॥