सूतजी कहते हैं-ऋषियो! अतिशय पुण्यमय अविमुक्तक्षेत्रमें आस्तिक, शुभ दर्शनवाले एवं हर्षगद्गद वाणीसे युक्त उन ऋषियोंको (इस आश्चर्यजनक आख्यानको सुनकर ) महान् आश्चर्य हुआ तब उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ स्कन्दजीसे कहा— भगवन्! आप ब्राह्मण-भक्त, महादेवजीके पुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणोंके प्रिय,ब्रह्ममें स्थित, ब्रह्मज्ञ, स्वयं ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मेन्द्र, ब्रह्मलोककर्ता, ब्रह्मकृत् ब्रह्मचारी, ब्रह्मासे भी पुरातन, ब्रह्मवत्सल, ब्रह्माके समान सृष्टिकर्ता और ब्रह्मतुल्य हैं, आपको नमस्कार है। इस अतिशय पवित्र कथाको सुनकर हम ऋषिगण कृतार्थ हुए। हमने उस परम तत्त्वको जान लिया, जिसे जानकर अमरत्व (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। आपका कल्याण हो, अब हमलोग पृथ्वीलोकमें शिवजी के उस निवासस्थानपर जा रहे हैं, जहाँ सभी जीवोंकि आत्मस्वरूप सामर्थ्यशाली शिव स्थाणुरूपमें स्थित हैं। वे यहाँ सभी प्राणियों के कल्याणको कामनासे उम्र तपस्यायें संलग्न हैं। वे अपनेको योगयुक्त कर रुद्रभावापन्न शरीरका आश्रयण किये हुए हैं और अपने समान गुणोंसे युक्त आत्मभूत गुझकोंसे घिरे हुए विराजमान हैं॥ 1-7॥ गणेश्वर! अब हमलोग ब्रह्मादि देवों, महर्षियों और सिद्धोंसे आज्ञा लेकर परम भक्तिपूर्वक आपकी कृपासे अविमुक्तक्षेत्रमें नियमपूर्वक सुनिश्चितरूपसे निवास करना चाहते हैं। पूर्वकथित गुणोंसे सम्पन्न इस अविमुक्तमें जो धर्मशील, क्रोधजयी, आसक्तिरहित, जितेन्द्रिय और ध्यानयोगपरायण मनुष्य निवास करते हैं, ये अविनाशिनी परम सिद्धिको प्राप्त होते हैं योगसिद्ध योगिगण भक्तिपूर्वक योग और मोक्षको देनेवाले, सर्वव्यापी सनातन एवं गुह्य महादेवकी उपासना करते हैं। सात ब्रह्मर्षियोंने अविमुक्त क्षेत्रमें आकर महेश्वरकी कृपासे योगको प्राप्तकर भवसायुज्यको प्राप्त किया है। ज्ञानिगण इस अविमुक्तको परम क्षेत्र मानते हैं, किंतु भवकी मायासे विमोहित अज्ञानीलोग इसे नहीं जानते। शिव एवं शिवभक्तिपरायण ऋषिगण शिवजीकी आज्ञासे अविमुक्तमें शरीरका त्यागकर शान्तिपूर्वक योगकी गतिको प्राप्त हो गये । ll 8-14 ॥
सभी श्मशानोंमें यह अविमुक्त गुह्य स्थान कहा गया है। मनुष्य संसारमें योगके विना मोक्षको नहीं प्राप्त कर सकते, किंतु अविमुक्तमें निवास करनेवालोंके लिये योग और मोक्ष- दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं। परमेश्वरि इस अविमुक्तक्षेत्रका एक ही प्रभाव है कि इसी जन्म में और यहीं उत्तम गतिको प्राप्त किया जा सकता है।किसी समय असीम प्रतापी व्यास अविमुक्तमें निवास करते हुए प्रयत्नपूर्वक घूमते रहनेपर भी कहीं भी भिक्षा नहीं पा सके। तब वे भूखसे पीड़ित होकर क्रोधपूर्वक भयंकर शाप देनेका विचार करने लगे। इस प्रकार एक एक दिन करते व्यासके छः मास बीत गये, (तब वे सोचने लगे कि) क्या कारण है कि इस नगरमें मुझे भिक्षा नहीं मिल रही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, ब्राह्मणी, विधवा, संस्कृता या असंस्कृता, वृद्धा कोई भी नारी या कोई भी प्राणी और ब्राह्मण मुझे भिक्षा नहीं दे रहा है आश्चर्य है। अतः मैं यहाँ के निवासी तीर्थ और नगर सभीको ऐसा शाप दे रहा हूँ कि यह तीर्थ अतीर्थ हो जाय अब मैं नगरको शाप दे रहा हूँ- यहाँ तीन पीढ़ीतक लोगोंकी विद्या नहीं रहेगी, तीन पीढ़ीतक धन नहीं रहेगा और तीन पीढ़ीतक मित्रता स्थिर नहीं रहेगी। अविमुक्तमें निवास करनेवाले सभी मनुष्योंके पुण्यकमोंमें विघ्न उत्पन्न हो जायगा, जिससे उन्हें सिद्धि नहीं मिल सकेगी। उस समय देवदेव उमापति व्यासके हृदयको जानकर भयभीत हो गये। तब वे अपनी प्रिया गौरीसे बोले- 'देवि! इस नगरमें जैसी घटना घटित होनेवाली है, वह कह रहा हूँ, मेरी बात सुनो। श्रीकृष्णद्वैपायन क्रोधवश शाप देनेके लिये उद्यत हो गये हैं' ॥ 15 – 25 ॥
देवीने पूछा- भगवन्! व्यासजी क्रुद्ध होकर शाप देनेके लिये क्यों उद्यत हैं? वे किसके द्वारा क्रुद्ध किये गये हैं? उनका क्या अप्रिय कर दिया गया, जिससे वे शाप दे रहे हैं ? || 26 ॥
देवाधिदेव महादेवने कहा— प्रिये! व्यासजीने अनेक वर्षोंतक कठोर तपस्या की है। वरानने। ये मौन धारणकर ध्यानपरायण हो बारह वर्षोंतक तपस्यामें लीन रहे। तदनन्तर भूख लगनेपर ये भिक्षा माँगनेके लिये यहाँ आये हैं। किंतु भामिनि ! किसीने इन्हें आधा ग्रास भी भिक्षा नहीं दी। इस प्रकार भगवान् व्यासमुनिके छः महीने बीत गये। इसी कारण इस समय ये क्रोधसे अभिभूत होकर शाप देनेको उद्यत हो गये हैं। प्रिये! कृष्णद्वैपायन व्यासको साक्षात् नारायण समझो, अतः जबतक ये शाप नहीं दे देते, तभीतक इस विषयमें कोई उपाय सोच लो कौन है. जो इनके शापसे नहीं डरता, चाहे वह साक्षात् ब्रह्मा ही | क्यों न हो ! ये मनुष्यको देवता और देवताको मनुष्यकर सकते हैं। वरानने! हम दोनों मनुष्य होकर यहाँ गृहस्थाश्रममें निवास कर रहे हैं, अतः उन्हें संतुष्ट करनेवाली भिक्षा समर्पित करें ।। 27 32 ॥ तब महादेव शिवद्वारा इस प्रकार कही जानेपर देवीने मनुष्यका वेश धारण कर व्यासको दर्शन दिया. और इस प्रकार कहा- 'ऐश्वर्यशाली श्रेष्ठ साधो! आइये, आइये, भिक्षा ग्रहण कीजिये। महामुने! सम्भवतः आपने मेरे घरपर कभी आनेकी कृपा नहीं की है।' यह सुनकर व्यासजी प्रसन्नचित्त हो भिक्षा ग्रहण करनेके लिये आये। तब देवीने व्यासजीको छः रसोंसे समन्वित अमृतके समान भिक्षा प्रदान की। मुनिने पहले वैसी न खायी हुई भिक्षाको खाया। तत्पश्चात् भिक्षाको खाकर प्रसन्नचित्त हुए व्यासजी कुछ विचार करने लगे। तदुपरान्त कमलदलनेत्र व्यासजीने वरदाता शिव और देवी पार्वतीकी वन्दना की और इस प्रकार कहा— 'विशाल नेत्रोंवाली देवि! वाराणसीमें महादेव, पार्वतीदेवी, गङ्गा नदी, स्वादिष्ट भोजन और शुभगति- सभी सुलभ हैं, फिर यहाँका निवास किसे अच्छा नहीं लगेगा!' ऐसा कहकर व्यासजी हृदयको आनन्द देनेवाली भिक्षाको सोचते हुए, नगरीका अवलोकन करते हुए घूमने लगे। तदनन्तर उन्होंने महादेव और देवी पार्वतीको अपने समक्ष उपस्थित देखा। तब देवाधिदेव महादेवने घरके आँगनमें अवस्थित व्याससे यह कहा 'महामुने! आप अतिशय क्रोधी स्वभावके हैं, अतः आपको इस क्षेत्रमें निवास नहीं करना चाहिये।' यह सुनकर व्यासजी आश्चर्यचकित हो गये और महादेवजीसे इस प्रकार बोले ॥ 33–41 ।।
व्यासजीने कहा- भगवन्! चतुर्दशी और अष्टमीको मुझे यहाँ निवास करनेकी अनुमति दीजिये। अच्छा, ऐसा ही हो' यों अनुमति देकर शिवजी वहीं अन्तर्धान हो गये। फिर तो वहाँ न कहीं कोई घर था, न वह देवी थीं और न महादेव ही थे। वे कहाँ चले गये, कुछ भी समझमें न आया। प्राचीनकालमें इस प्रकार तीनों लोकोंमें विख्यात महातपस्वी व्यास इस क्षेत्रके सभी गुणोंको जानकर उसीके पास (गङ्गाजीके पूर्वतटपर दक्षिणकी ओर) निवास करने लगे। इस प्रकार व्यासको वहाँ स्थित जानकर | पण्डितगण इस क्षेत्रकी प्रशंसा करते हैं ॥ 42-44 ॥अविमुक्तक्षेत्रके सभी गुणका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है? देवता और ब्राह्मणसे विद्वेष करनेवाले, देवभक्तिकी विडम्बना करनेवाले, ब्राह्मणोंकी हत्या करनेवाले, किये हुए उपकारको न माननेवाले, निक्षेए अकर्मण्य, लोकद्वेषी, गुरुद्वेषी, तीर्थस्थानोंको दूषित करनेवाले, सदा पापमें रत तथा इनके अतिरिक्त जो निषिद्ध कर्मक आचरण करनेवाले हैं-उन सबके लिये यहाँ स्थान नहीं है; क्योंकि यहाँ दण्डनायक अवस्थित हैं। यहाँ श्रेष्ठ दण्डनायकको इसकी रक्षाके लिये नियुक्त किया गया है। सभी वर्णाश्रमियों तथा अनेक प्रकारके जन्तुओंसे भरे हुए इस क्षेत्रमें नायकके परामर्शसे यथाशक्ति गन्ध, पुष्प, धूप आदिसे पूजन करनेके पश्चात उन्हें नमस्कार करके ईश्वरके अनुग्रहसे बहुत से लोग गणेश्वरकी गतिको प्राप्त हो गये हैं। अनेकों वेष और विभिन्न रूप धारण करनेवाले सभी दिव्य देव, शिवमें श्रद्धासम्पन्न एवं शिवभक्ति परायण हो जिस अक्षय श्रेष्ठ स्थानकी कामना करते हैं, वह उन्हें प्राप्त हो जाता है। यह श्रेष्ठ नगर अमरावतीसे भी विशिष्ट है। इस अविमुक्तनगरका उत्तरी भाग ब्रह्मलोकसे भी अधिक प्रतिष्ठित है। यह शिवजीके तपोबल और उनकी योगमहिमासे निर्मित है, | अतः इसके समान ब्रह्मलोक तथा स्वर्ग भी नहीं है। यह मनोरम, अभिलाषाको पूर्ण करनेवाला, रोगरहित, तेज और तपस्यासे परे तथा योगयुक्त है। इस अविमुक्तक्षेत्रमें देवाधिदेव शंकर सदा विराजमान रहते हैं। जो लोग सभी प्रकारके तप, व्रत, नियम, सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान, सभी प्रकारके दान और सभी प्रकारके यज्ञानुष्ठानसे जो पुण्य प्राप्त करते हैं, वह अविमुक्तनगरमें प्राप्त हो जाता है। अतीत या वर्तमानमें ज्ञानसे या अज्ञानसे किये गये उनके सभी पाप क्षेत्रके दर्शनमात्रसे विनष्ट हो जाते हैं । ll 45-55 ॥
अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखकर शान्तचित्तसे की गयी तपस्यासे एवं विहित कर्मोंके आचरणसे जो फल मिलते हैं, वह सब अविमुक्तनगरमें जितेन्द्रियको प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य अविमुक्तनगरमें आकर शिवलिङ्गकी पूजा करता है, उसका सैकड़ों करोड़ कल्पोंमें भी पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसे लोग अमर और अविनश्वर रूपमें शिवके समीप क्रीड़ा करते हैं। यह अविमुखनगर अन्य स्थानों और तीर्थोंका प्रकाश संवित्स्वरूप है इसमें संदेह नहीं है जो अविमुक्तनगरमें महादेवकी पूजा और स्तुति करते हैं, वे सभी पापोंसे विनिर्मुक्त होकर अजर-अमर हो जातेहैं। सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले जो यज्ञ हैं, वे सभी पुनर्जन्म प्रदान करनेवाले हैं; किंतु जो अविमुक्तनगरमें शरीरका त्याग करते हैं, उनका संसारमें पुनः आगमन नहीं होता। ग्रह, नक्षत्र और तारागणोंको समयानुसार पतनका भय बना रहता है, किंतु अविमुक्तमें मरनेवालोंका पतन कभी नहीं होता। जो इस उत्तम क्षेत्रमें मरते हैं, उनका सैकड़ों-करोड़ों कल्पोंमें क्या हजारों करोड़ कल्पोंमें भी पुनरागमन नहीं होता। जो कालक्रमानुसार संसार-सागरमें भ्रमण करते हुए अविमुक्तनगरमें आ जाते हैं, वे परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं ॥ 56-63 ॥
जो मनुष्य हाहाकारमय एवं ज्ञानरहित भयंकर कलियुगको जानकर अविमुक्तका परित्याग नहीं करते, वे ही इस भूतलपर कृतार्थ हैं। जो अविमुक्तनगरमें जाकर यदि यहाँसे चला जाता है तो सभी प्राणी ताली बजाकर उसकी हँसी उड़ाते हैं। देवि! जो मानव भूतलपर क्रोध और लोभसे ग्रस्त हैं, वे ही दण्डनायककी | मायासे मोहित होकर इस नगरसे चले जाते हैं। जो मनुष्य जप-ध्यानसे रहित, ज्ञानशून्य और दुःखसे संतप्त हैं, उनकी गति वाराणसी है। विश्वेश्वरके इस आनन्द- काननमें दशाश्वमेध, लोलार्क, केशव, बिन्दुमाधव और पाँचवीं जो परमश्रेष्ठ मणिकर्णिका कही गयी है— ये पाँचों तीर्थोंके सार कहे गये हैं। इन्हीं श्रेष्ठ तीर्थोंसे अविमुक्तकी प्रशंसा होती है। परमेश्वरी देवि ! इस क्षेत्रकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ही जन्ममें मनुष्य परमश्रेष्ठ मोक्षको प्राप्त कर लेता है। द्विजगण! अविमुक्तक्षेत्रके विषयमें महादेवजीने पार्वतीसे जो बात कही थी, वह सभी मैंने आप लोगोंसे वर्णन कर दिया ।। 64-71 ॥