सूतजी कहते हैं—ऋषियो! अब मैं गृहनिर्माणके उस समयका निर्णय बतला रहा हूँ, जिस शुभ समयको जानकर मनुष्यको सर्वदा भवनका आरम्भ करना चाहिये। जो मनुष्य चैत्रमासमें घर बनाता है, वह व्याधि, वैशाखमें घर बनानेवाला धेनु और रत्न तथा ज्येष्ठमें मृत्युको प्राप्त होता है। आषाढ़में नौकर, रत्न और पशु समूहकी और श्रावणमें नौकरोंकी प्राप्ति तथा भाद्रपदमें हानि होती है। आश्विनमें घर बनानेसे पत्नीका नाश होता है। कार्तिक मासमें धन-धान्यादिकी तथा मार्गशीर्षमें श्रेष्ठ भोज्यपदार्थोंकी प्राप्ति होती है। पौधमें चोरोंका भय और माघमासमें अनेक प्रकारके लाभ होते हैं, किंतु अग्निका भी भय रहता है। फाल्गुनमें सुवर्ण तथा अनेक पुत्रोंकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार समयका फल एवं बल बतलाया जाता है। गृहारम्भमें अश्विनी, रोहिणी, मूल, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, स्वाती, हस्त और अनुराधा- ये नक्षत्र प्रशस्त कहे गये हैं। रविवार और मङ्गलवारको छोड़कर शेष सभी दिन शुभदायक हैं। व्याघात, शूल, व्यतीपातः अतिगण्ड, विष्कम्भ, गण्ड, परिघ और वज्र इन योगों में गृहारम्भ नहीं करना चाहिये। श्वेत, मैत्र, माहेन्द्र, गान्धव, अभिजित, रौहिण, वैराज और सावित्र- इन मुहूर्तोंमें गृहारम्भ करना चाहिये। चन्द्रमा और सूर्यके बलके साथ-ही-साथ शुभ लग्नका भी निरीक्षण करना चाहिये। सर्वप्रथम अन्य कार्योंको छोड़कर स्तम्भारोपण करना चाहिये। यही विधि प्रासाद, कूप एवं बावलियोंके लिये भी मानी गयी है ॥ 1-10 ॥पहले भूमिकी परीक्षाकर फिर बादमें वहाँ गृहका निर्माण करना चाहिये। श्वेत, लाल, पीली और काली-इन चार वर्णोवाली पृथिवी क्रमशः ब्राह्मणादि चारों वर्णोंके लिये प्रशशंसित मानी गयी है। इसके बाद उसके स्वादकी परीक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मणके लिये मधुर स्वादवाली, क्षत्रियके लिये कड़वी, वैश्यके लिये तिक्त तथा शूद्रके लिये कसैली स्वादवाली पृथ्वी उत्तम मानी गयी है। तत्पश्चात् भूमिकी पुनः परीक्षाके लिये एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे सब ओरसे भलीभाँति लीप-पोतकर स्वच्छ कर दे। फिर एक कच्चे पुरवेमें घी भरकर उसमें चार बत्तियाँ जला दे और उसे उसी में रख दे। उन बत्तियोंकी लौ क्रमशः चारों दिशाओंको ओर हों। यदि पूर्व दिशाकी बत्ती अधिक कालतक जलती रहे तो ब्राह्मणके लिये उसका फल शुभ होता है। इसी प्रकार क्रमशः उत्तर, पश्चिम और दक्षिणकी बत्तियोंको क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रोंके लिये कल्याणकारक समझना चाहिये। यदि वह वास्तुदीपक चारों दिशाओंमें जलता रहे तो प्रासाद एवं साधारण गृह निर्माणके लिये वहाँको भूमि सभी वर्णों के लिये शुभदायिनी है। एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर उसे उसी मिट्टीसे पूर्ण करते समय इस प्रकार परीक्षा करे कि यदि मिट्टी | शेष रह जाय तो श्रीकी प्राप्ति होती है, न्यून हो जाय तो हानि होती है तथा सम रहनेसे समभाव होता है। अथवा भूमिको | हलद्वारा जुतवाकर उसमें सभी प्रकारके बीज बो दे। यदि वे बीज तीन, पाँच तथा सात रातोंमें अङ्कुरित हो जाते हैं तो उनके फल इस प्रकार जानने चाहिये। तीन रातवाली भूमि उत्तम, पाँच रातवाली भूमि मध्यम तथा सात रातवाली कनिष्ठ है। कनिष्ठ भूमिको सर्वथा त्याग देना चाहिये। इस प्रकार भूमि | परीक्षा कर पञ्चगव्य और ओषधियोंके जलसे भूमिको साँच दे और सुवर्णकी सलाईद्वारा रेखा खींचकर इक्यासी कोष्ठ बनावे (कोष्ठ बनानेका ढंग इस प्रकार है) पिष्टकसे चुपड़े हुए सूतसे दस रेखाएँ पूर्वसे पश्चिम तथा दस रेखाएँ उत्तरसे दक्षिणकी ओर खींचे। सभी प्रकारके वास्तु विभागों में इस नव-नव (949) अर्थात् इक्यासी' कोष्ठका वास्तु | जानना चाहिये। वास्तुशास्त्रको जाननेवाला सभी प्रकारके वास्तुसम्बन्धी कार्योंमें इसका उपयोग करे। 11-21 ॥ फिर उन कोष्ठोंमें स्थित पैंतालीस देवताओंकी पूजा करे। उनमें बत्तीसकी बाहरसे तथा तेरहकी भीतरसे पूजाकरनी चाहिये। मैं उनके नाम और स्थान बतला रहा हूँ, आपलोग सुनिये। (इन्हें जानकर ) मनुष्यको ईशान आदि कोणोंमें हविष्यद्वारा उन-उन देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। शिखी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृश, अन्तरिक्ष, वायु, पूषा, वितथ, बृहत्क्षत, यम, गन्धर्व, भृङ्गराज, मृग, पितृगण, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, जलाधिप, असुर, शोष, पाप, रोग, अहि, मुख्य, भल्लाट, सोम, सर्प, अदिति और दिति—ये बत्तीस बाह्य देवता हैं। बुद्धिमान् पुरुषको ईशान आदि चारों कोनोंमें स्थित इन देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। अब वास्तु चक्रके भीतरी देवताओंके नाम सुनिये आप, सवित्र जय, | रुद्र- ये चार चारों ओरसे तथा मध्यके नौ कोष्ठोंमें ब्रह्मा और उनके समीप अन्य आठ देवताओंकी भी पूजा करनी चाहिये। (ये सब मिलकर मध्यके तेरह देवता होते हैं।) ब्रह्माके चारों ओर स्थित ये आठ देवता, जो क्रमशः पूर्वादि दिशाओंमें दो-दोके क्रमसे स्थित रहते हैं, साध्यनामसे कहे जाते हैं उनके नाम सुनिये अर्यमा, सविता, विवस्वान्, विबुधाधिप, मित्र, राजयक्ष्मा, पृथ्वीधर तथा आठवें आपवत्स आप, आपवत्स, पर्जन्य, | अग्नि तथा दितिये पाँच देवताओंके वर्ग हैं। (इनकी पूजा अग्निकोणमें करनी चाहिये।) उनके बाहर बीस देवता हैं जो दो पदोंमें रहते हैं अर्बमा, विवस्वान् मित्र और पृथ्वीधर ये चार ब्रह्माके चारों ओर तीन तीन पदोंमें स्थित रहते हैं ।। 22-33 ॥
अब मैं उनके वंशोंको पृथक्-पृथक् संक्षेपमें कह रहा हूँ। वायुसे लेकर रोगपर्यन्त, पितृगणसे शिखीपर्यन्त, मुख्यसे भृशपर्यन्त, शोषसे वितथपर्यन्त, सुग्रीवसे अदितिपर्यन्त तथा मृगसे पर्जन्यपर्यन्त—ये ही वंश कहे जाते हैं। कहीं-कहीं मृगसे लेकर जयपर्यन्त वंश कहा गया है। पदके मध्यमें इनका जो सम्पात है, वह पद, मध्य तथा सम नामसे प्रसिद्ध है त्रिशूल और कोणगामी मर्मस्थल कहे जाते हैं, जो सर्वदा स्तम्भन्यास और तुलाकी विधिमें वर्जित माने गये हैं। मनुष्यके लिये यत्नपूर्वक देवताके पदोंपर कीलें गाड़ना, जूठन फेंकना तथा चोटें पहुँचाना वर्जित है। यह वास्तु चक्र, सर्वत्र पितृवर्गीय वैश्वानरके अधीन माना गया है।उसके मस्तकपर अग्नि और मुखमें जलका निवास है, दोनों स्कन्धोंपर पृथ्वीधर तथा अर्थमा अधिष्ठित हैं। बुद्धिमान्को वक्ष:स्थलपर आपवासकी पूजा करनी चाहिये। नेत्रोंमें दिति और पर्जन्य तथा कानोंमें अदिति और जयन्त हैं। कंधोंपर सर्प और इन्द्रकी प्रयत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार बाहुओंमें सूर्य और चन्द्रमासे लेकर पाँच-पाँच देवता स्थित हैं। रुद्र और राजयक्ष्मा ये दोनों बायें हाथपर अवस्थित हैं। उसी प्रकार सावित्र और सविता दाहिने हाथपर स्थित हैं। विवस्वान् और मित्र- ये उदरमें तथा पूषा और पापयक्ष्मा—ये हाथोंके मणिबन्धों में स्थित हैं उसी प्रकार असुर और शोष ये बायें पार्श्वमें तथा दाहिने पार्श्वमें वितथ और बृहत्क्षत स्थित हैं। ऊरुभागोंपर यम और वरुण, घुटनोंपर गन्धर्व और पुष्पक, दोनों जंघोंपर क्रमशः भृङ्ग और सुग्रीव, दोनों नितम्बोंपर दीवारिक और मृग, लिङ्गस्थानपर जय और शक्र तथा पैरोंपर पितृगण स्थित हैं। मध्यके नौ पदोंमें, जो हृदय कहलाता है, ब्रह्माकी पूजा होती है ।। 34-46 ll
ब्रह्माने प्रासादके निर्माणमें चौंसठ पदोंवाले वास्तुको श्रेष्ठ बतलाया है। उसके चार पदोंमें ब्रह्मा तथा उनके कोणोंमें आपवत्स, सविता आदि आठ देवगण स्थित हैं। वास्तुके बाहरवाले कोणोंमें भी अग्नि आदि आठ देवताओंका निवास है तथा दो पदोंमें जयन्त आदि बीस देवता स्थित हैं। इस प्रकार चौंसठ पदवाले वास्तुचक्रमें देवताओंकी स्थिति बतलायी गयी है। गृहारम्भके समय गृहपतिके जिस अङ्गमें खुजली जान पड़े, महल तथा भवनमें वास्तुके उसी अङ्गपर गड़ी हुई शल्य या कीलको निकाल देना चाहिये क्योंकि शल्यसहित गृह भयदायक | और शल्यरहित कल्याणकारक होता है। वास्तुका अधिक एवं हीन अङ्गका होना सर्वथा त्याज्य है। इसी प्रकार नगर, ग्राम और देश- सभी जगहपर इन दोषोंका परित्याग करना चाहिये। द्विजवरो! अब मैं चतुःशाल, त्रिशाल, द्विशाल तथा एकशालवाले भवनोंके नाम और स्वरूपका वर्णन करूँगा ॥ 47-51॥