ऋषियोंने पूछा- सूतजी समृद्धिको इच्छा करनेवालोंको प्रासादों (राजगृह, देवमन्दिर आदि) - को रचना किस प्रकार करानी चाहिये? अब उनके प्रमाण और लक्षणोंको विस्तारपूर्वक बालाइ ll 1 ll
सूतजी कहते हैं ऋपिवृन्द अब मैं प्रासादविधिका निर्णय बतला रहा हूँ। वास्तुके शरीरको जाननेवाला पुरुष वास्तुकी भलीभाँति परीक्षा कर लेनेके बाद (दोष | दीखनेपर) बलिकर्म तथा समिधाओंद्वारा वास्तुको शान्ति करे। जीर्ण प्रासादके उद्धार, वाटिकाके आरोपण, नूतन गृहमें प्रवेश, नवीन प्रासाद अथवा भवनके निर्माण, प्रासादपरिवर्तन, प्रासाद तथा गृहोंमें द्वारकी रचना इन सभी अवसरॉपर विद्वान् पुरुषको पहले ही वास्तुकी | शान्ति पूजा करानी चाहिये इसके लिये वास्तुके मध्यभागमें पृष्ठप्रदेशपर इक्यासी पदोंवाला चक्र बनाना चाहिये। फिर एक हाथ गहरे तथा चौड़े कुण्डमें, जो तीन मेखलाओंसे युक्त हो, जौ, काले तिल तथा दुग्धवाले (वट, पाकड़, पीपल, गूलर आदि) वृक्षोंकी समिधाओं द्वारा हवन करना चाहिये। हवनमें मधु और घृतसे संयुक्त पलाश या खदिरकी समिधाओंका या मधुघृत- संयुक्त कुश और दूर्वाका अथवा पाँच बिल्व फल या उसके बीजोंका उपयोग करना चाहिये। हवनके अन्तमें विविध भक्ष्य सामग्रियोंद्वारा वास्तुप्रदेशमें क्रमसे बलि तथा विशेष नैवेद्य भी देना चाहिये। ईशानकोणमें मृतसे संयुक्त नैवेद्य अग्निके लिये समर्पित करे। पर्जन्यके लिये फल घृतसंयुक्त ओदन तथा जयके लिये पीली ध्वजा और | आटेका बना हुआ कूर्म देना चाहिये। इन्द्रके लिये पञ्चरत्न तथा आटेका बना हुआ वज्र तथा सूर्यके लिये धूम्रवर्णका वितान और सत्तू देना चाहिये ॥ 2-11 ॥
इसी प्रकार सत्यके लिये घी और गेहूँ, भृशको अन्न, अन्तरिक्षको पूड़ी, वायुको सत्तू और पूषाको लावा देना चाहिये। वितथको चना और ओदन, बृहत्क्षत्रको मधु और अन्न, यमको फलका गूदा और ओदन,|गन्धर्वको सुगन्ध और ओदन, भृङ्गराजको भृङ्गिका, मृगको जौका सत्तू और पितरोंको खिचड़ी देना चाहिये। दौवारिकको दन्तकाष्ठ तथा आटेकी कृष्ण बलि, सुग्रीवको पूआ तथा पुष्पदन्तको खीर प्रदान करे। वरुणको कुश समूहसे संयुक्त पद्म और सुवर्णमय पिष्टक देना चाहिये। असुरके लिये मदिरा मानी गयी है। शेषको घृत-संयुक्त ओदन, पापयक्ष्माको जौका अन्न, रोगको चीका बना हुआ लड्डू, नागको पुष्प और फल, मुख्य (वासुकि) को घी तथा भल्लाटके स्थानपर मूँग और ओदन तथा सोमके लिये घृत और खीर देना चाहिये। भगके लिये साठीके चावलका पिष्टक, अदितिके लिये पोलिक और दितिके लिये पूरीकी बलि देनी चाहिये। यह वास्तुके बाहरी भागकी बलि है। यमको दूध और आपवत्सको दही देनेका विधान है। सावित्रीको लड्डू तथा मरीचके साथ कुशमिश्रित ओदन प्रदान करे। सविताको गुड मिश्रित पूआ, जयको घृत और चन्दन तथा विवस्वान्को लाल चन्दन और खीर दे। इन्द्रको घृतसमेत हरितालयुक्त ओदन, मित्रको घृतमिश्रित ओदन तथा रुद्रको घृत और खीर दे ।। 12-22 ॥
राजयक्ष्माको पके हुए तथा कच्चे फलका गूदा देना चाहिये। पृथ्वीधरको मांसखण्ड और कुम्हड़े दे। अर्यमाके लिये शक्कर और खीर, पञ्चगव्य, जौ, तिल, अक्षत तथा चरु दे। ब्रह्माके लिये विविध प्रकारके भक्ष्य और भोज्य पदार्थ देने चाहिये। इस प्रकार पूजित देवगण सर्वदा शान्ति प्रदान करते हैं। अन्य उपस्थित ब्राह्मणोंके लिये सुवर्णका तथा ब्रह्मास्थानीय ब्राह्मणको दूध देनेवाली गौका दान करना चाहिये। अब राक्षसियोंके लिये जिस प्रकारकी बलि दी जानी चाहिये, उसे सुनिये। फलका गूदायुक्त ओदन, घृत, पद्मकेसर- इन्हें ईशानकोणको ओर चरकी नामकी राक्षसीको निवेदित करना चाहिये। फलका गूदा मिश्रित ओदन तथा हरिद्रायुक्त ओदन इन्हें अग्निकोणकी ओर विदारी नाम्नी राक्षसीके लिये निवेदित करना चाहिये। दही, ओदन, हड्डियोंके टुकड़े - तथा पीले और लाल रंगकी बलि राक्षससहित पूतना नामकी राक्षसीको नैर्ऋत्यकोणमें देनी चाहिये।वायव्यकोणमें पापा नामकी राक्षसीके लिये खीर देना चाहिये। बलि देते समय क्रमशः सभी जगह आदिमें प्रणव और अन्तमें नमस्कारसहित अपने नामका उच्चारण कर लेना चाहिये। तदनन्तर यजमानको सर्वोषधिसे युक्त जलसे स्नान कराना चाहिये ।। 23-31 ।।
यजमानको भक्तिपूर्वक अपने गृहपर आये हुए ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार वास्तुकी शान्ति करनेके बाद गृहनिर्माण कार्य प्रारम्भ करना चाहिये। प्रासाद, भवन, उद्यानके प्रारम्भ करते समय अथवा उनके उद्यापनके समय तथा पुर या गृहमें प्रवेश करते समय सभी दोषोंके विनाशार्थ रक्षोघ्न और पावमान | सूठोंके पाठ करानेके बाद नृत्य, माङ्गलिक गीत और वाद्योंके साथ ब्राह्मणोंद्वारा वेदपाठ कराना चाहिये। जो बुद्धिमान् पुरुष प्रतिवर्ष गृह अथवा मन्दिरके कार्य में उपर्युक्त विधिका पालन करता है, यह दुःखका भागी नहीं होता। उसे न तो व्याधिका भय होता है, न उसके बन्धुजनों तथा सम्पत्तिका विनाश ही होता है, प्रत्युत वह इस लोकमें सौ वर्षतक जीवित रहता है और स्वर्गमें एक कल्पपर्यन्त निवास करता है । ll 32-36 ॥