सूतजी कहते हैं-ऋषियो। बुद्धिमान् पुरुष उत्तरकी ओर झुकी हुई या समान भागवाली भूमिकी परीक्षा कर पूर्व कही गयी रीतिसे स्तम्भकी ऊँचाई आदिका निर्माण कराये। बुद्धिमान् पुरुषको देवालय, धूर्त, सचिव या चौराहेके समीप अपना घर नहीं बनवाना चाहिये; क्योंकि इससे दुःख, शोक और भय बना रहता है। घरके चारों ओर तथा द्वारके सम्मुख और पीछे कुछ भूमिको छोड़ | देना शुभकारक है। पिछला भाग दक्षिणावर्त रहना ठीक है; क्योंकि वामावर्त विनाशकारक होता है। दक्षिण भागमें ऊँचा रहनेवाला घर सम्पूर्ण' वास्तुके नामसे अभिहित किया जाता है। वह मनुष्योंकी सभी कामनाओंको पूर्ण करता है। इस प्रकारके प्रदेशको देखकर प्रयत्नपूर्वक गुह आरम्भ करना चाहिये। सर्वप्रथम वेदज्ञ पुरोहित श्वेत | वस्त्र धारण कर कारीगरके साथ ज्योतिषीके कथनानुसार शुभ मुहूर्तमें सभी बीजोंसे युक्त आधार शिलाको रत्नके ऊपर स्थापित करे। पुनः चार ब्राह्मणोंद्वारा उस स्तम्भको भलीभाँति पूजा कराकर उसे धो-पोंछकर अक्षत, वस्त्र, अलंकार और पूजितकर पूर्ववत् मन्त्रोच्चारण बाजा और माङ्गलिक गीत आदिके शब्दके साथ स्थापित कर दे। ब्राह्मणोंको खोरका भोजन कराये और 'वास्तोष्पते प्रतिजानीहि (संहिता 725411) इस मन्त्रके द्वारा मधु और घीसे हवन करे। वास्तुयज्ञ पाँच प्रकारके है- सूत्रपात, स्तम्भारोपण वंशो (चौखट-स्थापन), गृहप्रवेश और वास्तु शान्ति इन सभीमें पूर्ववत् कार्य करनेका विधान है। ईशानकोणमें सूत्रपात और अग्निकोणमें स्तम्भारोपण होता है। वास्तुके पदचिह्नोंको बनाकर उसकी प्रदक्षिणा करनी चाहिये सभी वास्तु विभागों में दाहिने हाथकी तर्जनी, मध्यमा और अनूठेसे मूंगा रत्न और सुवर्णके चूर्ण से मिश्रित जलद्वारा पदचिह्न बनाना माना गया है ॥ 1-13॥राख, अंगार, काष्ट, नख, शास्त्र, धर्म, सींग, हड्डी, कपाल— इन वस्तुओंद्वारा कहीं भी वास्तुके चिह्न नहीं बनाना चाहिये; क्योंकि इनके द्वारा बनाया गया चिह्न दुःख, शोक और भय आदि उत्पन्न करता है। जिस समय गृहप्रवेश हो, उस समय कारीगरका भी रहना उचित है। स्तम्भारोपण और सूत्रपातके समय पूर्ववत् शुभ एवं अशुभ फल देनेवाले शुक होते हैं। यदि ऐसे अवसरोंपर कोई पक्षी सूर्यकी ओर मुख कर कठोर वाणी बोलता है या उस समयं गृहपति अपने शरीरके किसी अङ्गपर हाथ रखता है तो समझ लेना चाहिये कि वास्तुके उसीपर भय | प्रदान करनेवाली मनुष्यकी हड्डी पड़ी हुई है। सूत्र अङ्कित कर देनेके बाद यदि गृहपति अपने किसी अङ्गका स्पर्श करता है तो वास्तुके उसी अङ्गमें हाथी, अश्व तथा कुत्तेकी हड्डियाँ हैं, ऐसा बुद्धिमान् पुरुषको समझ लेना चाहिये। सूत्रको फैलाते समय उसे श्रृंगाल या कुत्ता लाँ जाता है और गदहा अत्यन्त भयंकर चीत्कार करता है तो ठीक उस स्थानपर हंड्डी जाननी चाहिये। यदि सूत्रपातके समय ईशान कोणमें कौआ मीठे स्वरसे बोलता हो तो वास्तुके उस भागमें या जहाँ गृहपति खड़ा है, वहाँ धन है ऐसा जानना चाहिये। सूत्रपात के समय यदि सूत्र टूट जाता है तो गृहपतिको मृत्यु होती है। वास्तुवेत्ताको ऐसा समझना चाहिये कि कीलके नीचेकी ओर झुक जानेपर व्याधि, अंगार दिखायी पड़नेपर उन्माद, कपाल दीख पड़नेपर भय और शङ्ख या घोंघेकी हट्टी मिलने पर कुलाङ्गनाओंमें व्यभिचारकी सम्भावना रहती है। भवन निर्माणके समय कारीगरके पागल हो जानेपर गृहपति और घरका विनाश हो जाता है। स्थापित किये हुए स्तम्भ या कुम्भके कंधेपर गिर जानेसे गृहपतिके सिरमें रोग होता है तथा कलशकी चोरी हो जानेपर समूचे कुलका विनाश हो जाता है। कुम्भके अपने स्थानसे च्युत हो जानेपर गृहस्वामीकी मृत्यु होती है तथा फूट जानेपर वह बन्धनमें पढ़ता है-ऐसा पण्डितोंने कहा है। गृहारम्भके समय हाथोंकी परिमाण संख्या नष्ट हो जानेपर गृहपतिका नाश समझना चाहिये। बीज और ओषधियोंसे विहीन होनेपर भूतोंसे भय होता है। अतः विचारवान् पुरुष प्रदक्षिणक्रमसे अन्य स्तम्भोंकी स्थापना करे; क्योंकि दक्षिणक्रमके बिना स्थापित किये गये स्तम्भ मनुष्योंके लिये भयदायक होते हैं । 14 - 253 ।।स्तम्भके उपद्रवोंका विनाश करनेवाली रक्षा-विधि भी यत्नपूर्वक सम्पन्न करनी चाहिये। इसके लिये स्तम्भके ऊपर फलोंसे युक्त वृक्षकी शाखा डाल देनी चाहिये । स्तम्भ उत्तर या पूर्वकी ओर ढालू होना चाहिये, अस्पष्ट दिशामें नहीं कराना चाहिये। इस बातका ध्यान भवन, स्तम्भ, निवासगृह तथा द्वार निर्माणके समय भी स्थापन रखना चाहिये; क्योंकि दिशाकी अस्पतासे कुलका नाश हो जाता है। घरके किसी अंशको पिण्डसे आगे नहीं बढ़ाना चाहिये । यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशामें बढ़ावे। पूर्व दिशामें बढ़ाया गया वास्तु सर्वदा वैर पैदा करता है, दक्षिण दिशाकी ओर बढ़ाया हुआ वास्तु मृत्युकारी होता है, इसमें संदेह नहीं है। जो वास्तु पश्चिमकी ओर बढ़ाया जाता है, वह धनक्षयकारी होता है तथा उत्तरकी ओर बढ़ाया हुआ दुःख एवं सन्तापकी वृद्धि करता है। जहाँ अग्निकोणमें वृद्धि होती है, वहाँ वह अग्निका भय देनेवाला नैर्ऋत्यकोण बढ़ानेपर शिशुओंका विनाशक, वायव्य कोणमें बढ़ानेपर वात व्याधि-उत्पादक, ईशान कोणमें बढ़ानेपर अन्नके लिये हानिकारक होता है। गृहके ईशान कोणमें देवताका स्थान और शान्तिगृह, अग्निकोणमें रसोई घर और उसके बगलमें उत्तर दिशामें जलस्थान होना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुष सभी घरेलू सामग्रियोंको नैर्ऋत्य कोणमें करे। पशुओं आदिके बाँधनेका स्थान और स्नानागार गृहके बाहर बनाये। वायव्य कोणमें अन्नादिका स्थान बनाये। इसी प्रकार कार्यशाला भी निवास स्थानसे बाहर बनानी चाहिये। इस ढंगसे बना हुआ भवन गृहपतिके लिये मङ्गलकारी होता है ।। 26- 35 ॥