सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब में स्तम्भके परिमाणके विषयमें बतला रहा हूँ। बुद्धिमान पुरुषोंको चाहिये कि वे अपने गृहकी ऊँचाईके मानको सातसे गुणाकर उसके अस्सीवें भागके बराबर खम्भेकी मोटाई रखें। उसकी मोटाईमें नौसे गुणा कर अस्सीवें भागके | बराबर खम्भेका मूलभाग रखना चाहिये। चार कोणवाला स्तम्भ 'रुचक', आठ कोणवाला 'वज्र' सोलह कोणवाला 'द्विवज्र' तथा बत्तीस कोणवाला 'प्रलीनक' कहा जाता है। मध्य प्रदेशमें जो खम्भा वृत्ताकार रहता है, उसे 'वृत्त' कहा गया है। ये पाँच प्रकारके स्तम्भ सभी | प्रकार के वास्तु कार्यमें प्रशंसनीय कहे गये हैं। ये सभी | स्तम्भ पद्म, वल्ली, लता, कुम्भ, पत्र एवं दर्पणसे चित्रित रहने चाहिये। इन कमलों तथा कुम्भोंमें स्तम्भके नवें अंशके बराबर अन्तर रहना चाहिये। स्तम्भके बराबर ऊँचाईको 'तुला' तथा उससे न्यूनको 'उपतुला' कहते हैं। मानके तृतीय या चतुर्थ भागसे होन जो तुला है, वही 'उपतुला' है। यह उपतुला सभी भूमियोंमें रहती है। सभी वास गृहोंमें दाहिनी ओर प्रवेशद्वार रखना चाहिये। अब मैं गृहके जो प्रशस्तद्वार हैं, उन्हें बतला रहा हूँ। पूर्व दिशामें इन्द्र और जयन्तद्वार सभी गृहोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। बुद्धिमान् लोग दक्षिण द्वारोंमें वाम्य और वितथको श्रेष्ठ मानते हैं पश्चिम द्वारोंमें पुष्पदन्त और वरुण प्रशंसित हैं। उत्तर द्वारोंमें भल्लाट तथा सौम्य शुभदायक होते हैं। सभी वास्तुओंमें द्वारवेधको बचाना चाहिये। गली, सड़क या मार्गद्वारा द्वार-वेध होनेपर पूरे कुलका क्षय हो जाता है। वृक्षके द्वारा वेध होनेपर द्वेषकी अधिकता होती है। कीचड़से वेथ होनेपर शोक होता है और कृपद्वारा वेध होनेपर अवश्य ही सदाके लिये मिरगीका रोग होता है। नावदान या जलप्रवाहसे वेध होनेपर व्यथा होती है, कीलसे वेथ होनेपर अग्निभय होता है, देवतासे विद्ध होनेपर विनाश तथा स्तम्भसे विद्ध होनेपर स्त्रीद्वारा क्लेशकी प्राप्ति होती है ॥1-120 llएक घरसे दूसरे घरमें वेध पड़नेपर गृहपतिका विनाश होता है तथा अपवित्र द्रव्यादिद्वारा वेध होनेपर भरको स्वामिनी वन्या हो जाती है। अन्त्यजके घरके द्वारा वेध होनेपर हथियारसे भय प्राप्त होता है। गृहकी ऊँचाई से दुगुनी भूमिको दूरीपर वेधका दोष नहीं होता। जिस घरके द्वार बिना हाथ लगाये स्वयं खुल जाते हैं, उस भरके निवासियोंको उन्मादका रोग होता है। इसी प्रकार स्वयं बंद हो जानेपर कुलका नाश हो जाता है ऐसा विद्वान् लोग बतलाते हैं। गृहके द्वार यदि अपने मानसे अधिक ऊँचे हैं तो राजभय तथा यदि नोचे हैं तो चोरोंका भय होता है। द्वारके ऊपर जो द्वार बनता है, वह यमराजका मुख कहा जाता है। मार्गके बीचमें बने हुए जिस गृहकी चौड़ाई बहुत अधिक होती है, वह वज्रके समान शीघ्र ही गृहपतिके विनाशका कारण होता है। यदि मुख्यद्वार अन्य द्वारोंसे निकृष्ट हो तो वह बहुत बड़ा दोषकारक होता है। अतः मुख्यद्वारकी अपेक्षा अन्य द्वारोंका बड़ा होना शुभकारक नहीं है। घट, श्रीपर्णी और लताओंसे मूलद्वारको सुशोभित रखना चाहिये और उसकी नित्य बलि, अक्षत और जलसे पूजा करनी चाहिये। घरकी पूर्व दिशामें बरगदका वृक्ष सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला होता है। दक्षिणमें गूलर और पश्चिममें पीपलका पेड़ शुभकारक होता है। इसी तरह उत्तरमें पाकड़का पेड़ मङ्गलकारी है। इससे विपरीत दिशामें रहनेपर ये वृक्ष विपरीत फल देनेवाले होते हैं। घरके समीप यदि काँटे या दूधवाले वृक्ष, असनाका वृक्ष एवं फलदार वृक्ष हों तो उनसे क्रमशः स्त्री और संतानकी हानि होती है। यदि कोई उन्हें काट न सके तो उनके समीप अन्य शुभदायक वृक्षोंको लगा दे। पुंनाग, अशोक, मौलसिरी, शमी, तिलक, चम्पा, अनार, पीपली, दाख, अर्जुन, जंबीर, सुपारी, कटहल, केतकी, मालती, कमल, चमेली, मल्लिका, नारियल, केला एवं पाटल— इन वृक्षोंसे सुशोभित घर लक्ष्मीका विस्तार करता है ।। 13-24 ॥