सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब में चतुःशाल' (त्रिशाल, द्विशाल आदि) भवनोंके स्वरूप, उनके विशिष्ट नामोंके साथ बतला रहा हूँ। जो चतुःशाल चारों ओर भवन, द्वार तथा बरामदोंसे युक्त हो, उसे 'सर्वतोभद्र' कहा जाता है। वह देव मन्दिर तथा राजभवनके लिये मङ्गलकारक होता है। वह चतुःशाल यदि पश्चिम द्वारसे हीन हो तो 'नन्द्यावर्त', दक्षिणद्वारसे हीन हो तो 'वर्धमान', पूर्वद्वारसे रहित हो तो 'स्वस्तिक', उत्तरद्वारसे विहीन हो तो 'रुचक' कहा जाता है (अब त्रिशाल भवनोंके भेद बतलाते हैं।) उत्तर दिशाकी शालासे रहित जो त्रिशाल भवन होता है, उसे 'धान्यक' कहते हैं। वह मनुष्योंके लिये कल्याण एवं वृद्धि करनेवाला तथा अनेक पुत्ररूप फल देनेवाला होता है। पूर्वकी शालासे विहीन त्रिशा भवनको 'सुक्षेत्र' कहते हैं। वह धन, यश और आयु प्रदान करनेवाला तथा शोक-मोहका विनाशक होता है। जो दक्षिणकी शालासे विहीन होता है, उसे 'विशाल' कहते हैं। वह मनुष्योंके कुलका क्षय करनेवाला तथा सब प्रकारकी व्याधि और भय देनेवाला होता है। जो पश्चिमशालासे हीन होता है, उसका नाम 'पक्षघ्न' है, वह मित्र, बन्धु और पुत्रोंका विनाशक तथा सब प्रकारका भय उत्पन्न करनेवाला होता है। (अब 'द्विशालों के भेद कहते हैं-) दक्षिण एवं पश्चिम- दो शालाओंसे युक्त भवनको धनधान्यप्रद कहते हैं। वह मनुष्योंके लिये कल्याणका वर्धक तथा पुत्रप्रद कहा गया है। पश्चिम और उत्तरशालावाले भवनको 'यमसूर्य' नामक शाल जानना चाहिये। वह मनुष्योंके लिये राजा और अग्निसे भयदायक और कुलका विनाशक होता है। जिस भवनमें केवल पूर्व और उत्तरको हो दो शलाएं हों, उसे 'दण्ड' कहते हैं।वह अकालमृत्यु तथा शत्रुपक्षसे भय उत्पन्न करनेवाला होता है। जो पूर्व और दक्षिणको शालाओंसे युक्त द्विशाल भवन हो, उसे 'धन' कहते हैं। वह मनुष्योंक लिये शस्त्र तथा पराजयका भय उत्पन्न करनेवाला होता है। इसी प्रकार केवल पूर्व तथा पश्चिमको ओर बना हुआ 'चुल्ली' नामक द्विशालभवन मृत्युसूचक है। वह स्त्रियोंको विधवा करनेवाला तथा अनेकों प्रकारका भय उत्पन्न करनेवाला होता है। केवल उत्तर एवं दक्षिणको | शालाओंसे युक्त द्विशाल भवन मनुष्योंके लिये भयदायक होता है। अतः ऐसे भवनको नहीं बनवाना चाहिये। बुद्धिमानोंको सदा सिद्धार्थ और वज्रसे भिन्न द्विशालभवन बनवाना चाहिये ॥ 1-133 ॥
अब मैं राजभवनके विषयमें वर्णन कर रहा हूँ। वह उत्तम आदि भेदसे पाँच प्रकारका कहा गया है। एक सौ आठ हाथके विस्तारवाला राजभवन उत्तम माना गया है। अन्य चार प्रकारके भवनोंमें विस्तार क्रमशः आठ आठ हाथ कम होता जाता है; किंतु पाँचों प्रकारके भवनोंमें | लम्बाई विस्तारके चतुर्थांशसे अधिक होती है। अब मैं युवराजके पाँच प्रकारके भवनोंका वर्णन कर रहा हूँ। उसमें उत्तम भवनकी चौड़ाई अस्सी हाथकी होती है। अन्य चारकी चौड़ाई क्रमशः छः-छः हाथ कम होती जाती है। इन पाँचों भवनोंकी लम्बाई चौड़ाईसे एक तिहाई अधिक कही गयी है। इसी प्रकार अब मैं सेनापतिके: पाँच प्रकारके भवनोंका वर्णन कर रहा हूँ। उसके उत्तम भवनकी चौड़ाई चौंसठ हाथकी मानी गयी है। अन्य चार भवनोंकी चौड़ाई क्रमशः छः-छः हाथ कम होती जाती है। इन पाँचोंकी लम्बाई चौड़ाईके घष्ठांशसे अधिक होनी चाहिये। अब मैं मन्त्रियोंके भी पाँच प्रकारके भवन बतला रहा हूँ। उनमें उत्तम भवनका विस्तार साठ हाथ होता है तथा अन्य चार क्रमशः चार-चार हाथ कम चौड़े होते हैं। इन पाँचोंको लम्बाई चौडाईके अष्टसे अधिक कही गयी है। अब मैं सामन्त, छोटे राजा और अमात्य (छोटे मन्त्री) लोगोंके पाँच प्रकारके भवनोंको बतलाता हूँ। इनमें उत्तम भवनकी चौड़ाई अड़तालीस हाथकी होनी चाहिये तथा अन्य चारोंकी चौड़ाई क्रमशः चार चार हाथ कम कही गयी है। इन पाँचों भवनोंकी लम्बाई चौड़ाईको अपेक्षा सवाया अधिक कही गयी है।अब शिल्पकार, कंचुकी और वेश्याओंके पाँच प्रकारके भवनोंको सुनिये। इन सभी भवनोंकी चौड़ाई अट्ठाईस हाथ कही गयी है। अन्य चारों भवनोंकी चौड़ाईमें क्रमश: दो-दो हाथकी न्यूनता होती है। लम्बाई चौड़ाईसे दुगुनी कही गयी है । ll 14 - 233 ॥
अब मैं दूती कर्म करनेवालों तथा परिवारके अन्य | लोगों के पाँच प्रकारके भवनोंको बतला रहा है। उनकी चौड़ाई बारह हाथकी तथा लम्बाई उससे सवाया अधिक होती है। शेष चार गृहोंकी चौड़ाई क्रमशः आधा-आधा हाथ न्यून होती है। अब मैं ज्योतिषी, गुरु, वैद्य, सभापति और पुरोहित इन सभीके पाँच प्रकारके भवनोंका वर्णन कर रहा है। उनके उत्तम भवनको चौडाई चालीस हाथको होती है। शेषकी क्रमसे चार-चार हाथकी कम होती है। इन पाँचों भवनोंकी लम्बाई चौड़ाईके पाठांशसे अधिक होती है। अब फिर साधारणतया चारों वर्णोंके लिये पाँच प्रकारके गृहों का वर्णन करता हूँ। उनमें ब्राह्मणके घरकी चौड़ाई बत्तीस हाथकी होनी चाहिये। अन्य जातियोंक लिये क्रमशः चार-चार हाथकी कमी होनी चाहिये (अर्थात् ब्राह्मणके उत्तम गृहकी चौड़ाई बत्तीस हाथ, क्षत्रियके घरकी अट्ठाईस हाथ, वैश्यके घरकी चौबीस हाय तथा सत् शूद्रके घरकी बीस हाथ और असत् शूद्रके घरकी सोलह हाथ होनी चाहिये।) किंतु सोलह हाथसे कमकी चौड़ाई अन्त्यजोंके लिये है। ब्राह्मणके घरको लम्बाई चौड़ाईसे दशांश, क्षत्रियके घरकी अष्टमांश, वैश्यके घरकी | तिहाई और शुद्रके घरकी चौथाई भाग अधिक होनी चाहिये। यही विधि श्रेष्ठ मानी गयी है। सेनापति और राजाके गृहोंके बीचमें राजाके रहनेका गृह बनाना चाहिये। उसी स्थानपर भाण्डागार भी रहना चाहिये। सेनापतिके तथा चारों वर्णोंके गृहोंके मध्य भागमें सर्वदा राजाके पूज्य लोगोंके निवासार्थ गृह बनवाना चाहिये। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियोंके लिये एवं वनेचरोंके लिये शयन करनेका घर पचास हाथका बनवाना चाहिये। सेनापति और राजाके गृहके परिमाणमें सत्तरका योग करके चौदहका भाग देनेपर व्यासमें शालाका न्यास कहा गया है उसमें पैंतीस हाथपर बरामदेका स्थान कहा गया है। छत्तीस हाथ सात अङ्गुल लम्बी ब्राह्मणकी बड़ी शाला होनी चाहिये। उसी प्रकार दस अङ्गुल अधिक क्षत्रियकी शाला होनी चाहिये ॥ 24-35 ॥वैश्यके लिये पैंतीस हाथ तेरह अङ्गुल लम्बी शाला होनी चाहिये। उतने ही हाथ तथा पंद्रह अङ्गुल शूद्रकी शालाका परिमाण है। शालाकी लम्बाईके तीन भागपर यदि सामनेकी ओर गली बनी हो तो वह 'सोष्णीष' नामक वास्तु है। पीछेकी ओर गली हो तो वह 'श्रेयोच्छ्रय' कहलाता है। यदि दोनों पार्श्वोंमें वीथिका हो तो वह 'सावष्टम्भ' तथा चारों ओर वीथिका हो तो 'सुस्थित' नामक वास्तु कहा जाता है। ये चारों प्रकारकी वीथियाँ चारों वर्णोंके लिये मङ्गलदायी हैं। शालाके विस्तारका | सोलहवाँ भाग तथा चार हाथ—यह पहले खण्डकी ऊँचाईका मान है। अधिक ऊँचा करनेसे हानि होती है। उसके बाद अन्य सभी खण्डोंकी ऊँचाई बारहवें भागके बराबर रखनी चाहिये। यदि पक्की ईटोंकी दीवाल बनायी जा रही हो तो गृहकी चौड़ाईके सोलहवें भागके परिमाणके बराबर मोटाई होनी चाहिये। वह दीवाल लकड़ी तथा मिट्टीसे भी बनायी जा सकती है। सभी वास्तुओंमें भीतरके मानके | अनुसार लम्बाई-चौड़ाईका मान श्रेष्ठ माना गया है। गृहके व्याससे पचास अङ्गुल विस्तार तथा अठारह अङ्गुल वेधसे युक्त द्वारकी चौड़ाई रखनी चाहिये और उसकी ऊँचाई चौड़ाईसे दुगुनी होनी चाहिये। जितनी ऊँचाई द्वारकी हो उतनी ही दरवाजेमें लगी हुई शाखाओंकी भी होनी चाहिये। ऊँचाई जितने हाथोंकी हो उतने ही अङ्गुल उन शाखाओंकी | मोटाई होनी चाहिये-यही सभी वास्तुविद्याके ज्ञाताओंने बताया है। द्वारके ऊपरका कलश (बुर्ज) तथा नीचेकी | देहली (चौखट ) - ये दोनों शाखाओंसे आधे अधिक मोटे हों, अर्थात् इन्हें शाखाओंसे ड्योढ़ा मोटा रखना चाहिये ।। 36-44 ॥