नन्दिकेश्वर बोले – नारदजी ! बहुत पहले रथन्तरकल्पमें पुष्पवाहन नामका एक राजा हुआ था जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात तथा तेजमें सूर्यके समान था। मुने! उसकी तपस्यासे संतुष्ट होकर ब्रह्माने उसे एक सोनेका कमल (रूप विमान) प्रदान किया था, जो इच्छानुसार जहाँ-कहीं भी आ-जा सकता था।उसे पाकर उस समय राजा पुष्पवाहन अपने नगर एवं जनपदवासियोंके साथ उसपर आरूढ़ होकर स्वेच्छानुसार देवलोकों तथा सातों द्वीपोंमें विचरण किया करता था। कल्पके आदिमें पुष्करनिवासी उस पुष्पवाहनका सातवें द्वीपपर अधिकार था, इसीलिये लोकमें उसकी प्रतिष्ठा थी और आगे चलकर वह द्वीप पुष्करद्वीप नामसे कहा जाने लगा। चूँकि देवेश्वर ब्रह्माने इसे कमलरूप विमान प्रदान किया था, इसलिये देवता एवं दानव उसे पुष्पवाहन कहा करते थे। तपस्याके प्रभावसे ब्रह्माद्वारा प्रदत्त कमलरूप विमानपर आरूढ़ होनेपर उसके लिये त्रिलोकीमें भी कोई स्थान अगम्य न था। मुनीन्द्र ! उसकी पत्नीका नाम लावण्यवती था। वह अनुपम सुन्दरी थी तथा हजारों नारियोंद्वारा चारों ओरसे समादृत होती रहती थी। वह राजाको उसी प्रकार अत्यन्त प्यारी थी, जैसे शंकरजीको पार्वती परम प्रिय हैं। उसके दस हजार पुत्र थे, जो परम धार्मिक और धनुर्धारियोंमें अग्रगण्य थे। अपनी इन सारी विभूतियोंपर बारम्बार विचारकर राजा पुष्पवाहन विस्मयविमुग्ध हो जाता था एक बार (प्रचेताके पुत्र) मुनिवर वाल्मीकि राजाके यहाँ पधारे। उन्हें आया देख राजाने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया ॥ 1-7॥
राजाने पूछा- मुनीन्द्र किस कारणसे मुझे यह देवों तथा मानवोंद्वारा पूजनीय निर्मल विभूति तथा अपने सौन्दर्यसे समस्त देवाङ्गनाओंको पराजित कर देनेवाली सुन्दरी भार्या प्राप्त हुई है? मेरे थोड़े-से तपसे संतुष्ट होकर ब्रह्माने मुझे ऐसा कमल-गृह क्यों प्रदान किया, जिसमें अमात्य, हाथी, रथसमूह और जनपदवासियोंसहित यदि सौ करोड़ राजा बैठ जायें तो ये जान नहीं पड़ते कि कहाँ चले गये। वह विमान भी आकाशगामी देवताओं द्वारा केवल चमकीले ताराओंसे घिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति दीख पड़ता है। इसलिये इस सम्पूर्ण फलकी प्राप्तिके लिये अन्य माताके उदरसे उत्पन्न होकर अर्थात् पूर्वजन्ममें मैंने अथवा मेरे पुहोंने या मेरी इस पीने कौन सा ऐसा शुभ धर्म आदि कार्य किया है? प्रचेत: ! यह सारा का सारा विषय मुझे बतलाइये ॥ 8-10 ॥तदनन्तर महर्षि वाल्मीकि राजाके इस आकस्मिक एवं अद्भुत प्रभावपूर्ण वृत्तान्तको जन्मान्तरसे सम्बन्धित जानकर इस प्रकार कहने लगे- राजन्। तुम्हारा पूर्वजन्म अत्यन्त भीषण व्याधके कुलमें हुआ था। एक तो तुम उस कुलमें पैदा हुए, फिर दिन-रात पापकर्ममें भी निरत रहते थे। तुम्हारा शरीर भी कठोर अङ्गसंधियुक्त तथा बेडौल था तुम्हारी त्वचा दुर्गन्धयुक्त और नख बहुत बड़े हुए थे। उससे दुर्गन्ध निकलती थी और वह बड़ा कुरूप था। उस जन्ममें न तो तुम्हारा कोई हितैषी मित्र था, न पुत्र और भाई-बन्धु ही थे, न पिता-माता और बहन ही थी भूपाल ! केवल तुम्हारी यह परम प्रियतमा पत्नी ही तुम्हारी अभीष्ट परमानुकूल संगिनी थी। एक बार कभी बड़ी भयंकर अनावृष्टि हुई, जिसके कारण अकाल पड़ गया। उस समय भूखसे पीड़ित होकर तुम आहारकी खोजमें निकले, परंतु तुम्हें कोई जंगली (कन्दमूल ) फल | आदि कुछ भी खाद्य वस्तु प्राप्त न हुई। इतनेमें ही तुम्हारी दृष्टि एक सरोवरपर पड़ी जो कमलसमूहसे मण्डित था। उसमें बड़े-बड़े कमल खिले हुए थे तब तुम उसमें प्रविष्ट होकर बहुसंख्यक कमल-पुष्पोंको लेकर वैदिश' नामक नगर (विदिशा नगरी) में चले गये ॥11- 14 ॥ वहाँ तुमने उन कमल पुष्पोंको बेचकर मूल्य प्राप्तिके हेतु पूरे नगरमें चक्कर लगाया। सारा दिन बीत गया, पर उन कमल-पुष्पोंका कोई खरीददार न मिला। उस समय तुम भूखसे अत्यन्त व्याकुल और थकावटसे अतिशय क्लान्त चूर होकर पत्नीसहित एक महलके प्राङ्गणमें बैठ गये। वहाँ रात्रिमें तुम्हें महान् मङ्गल शब्द सुनायी पड़ा। उसे सुनकर तुम पत्नीसहित उस स्थानपर गये, जहाँ वह मङ्गल शब्द हो रहा था। वहाँ मण्डपके मध्यभागमें भगवान् विष्णुको पूजा हो रही थी। तुमने उसका अवलोकन किया। वहाँ अनङ्गवती नामकी वेश्या माघमासकी विभूतिद्वादशी व्रतको समाप्ति कर अपने | गुरुको भगवान् हृषीकेशका विधिवत् शृङ्गार कर स्वर्णमय कल्पवृक्ष, श्रेष्ठ लवणाचल और समस्त उपकरणोंसहित शय्याका दान कर रही थी। इस प्रकार पूजा करती हुई अनङ्गवतीको देखकर तुम दोनोंके मनमें यह विचार जाग्रत् हुआ कि इन कमलपुष्पोंसे क्या लेना है। अच्छा तो यह | होता कि इनसे भगवान् विष्णुका शृङ्गार किया जाता।नरेश्वर। उस समय तुम दोनों पति-पत्नीके मनमें ऐसी भक्ति उत्पन्न हुई और इसी अचक प्रसङ्गमें तुम्हारे उन पुष्पोंसे भगवान् केशव और लवणाचलकी अर्चना सम्पन्न हुई तथा शेष पुष्प-समूहोंसे तुम दोनोंद्वारा शय्याको भी सब ओरसे सुसज्जित किया गया ॥ 15- 21 ॥
तुम्हारी इस क्रियासे अनङ्गवती बहुत प्रसन्न हुई । उस समय उसने तुम दोनोंको इसके बदले तीन सौ अशर्फियाँ देनेका आदेश दिया, पर तुम दोनोंने बड़ी दृढ़तासे उस धनराशिको अस्वीकार कर दिया— नहीं लिया। भूपते! तब अनङ्गवतीने तुम्हें (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) चार प्रकारका अन्न लाकर दिया और कहा- 'इसे भोजन कीजिये', किंतु तुम दोनोंने उसका भी त्याग कर दिया और कहा-'वरानने। हमलोग कल भोजन कर लेंगे। दृढ़वते! हम दोनों जन्मसे ही पापपरायण और कुकर्म करनेवाले हैं; पर इस समय तुम्हारे उपवासके प्रसङ्गसे हम दोनोंको भी विशेष आनन्द प्राप्त हो रहा है।' उसी प्रसङ्गमें तुम दोनोंको धर्मका लेशांश प्राप्त हुआ था और उसी प्रसङ्गमें तुम दोनोंने रातभर जागरण भी किया। (दूसरे दिन) प्रातःकाल अनङ्गवतीने भक्तिपूर्वक अपने गुरुको लवणाचलसहित शय्या और अनेकों गाँव प्रदान किये। उसी प्रकार उसने अन्य बारह ब्राह्मणोंको भी सुवर्ण, वस्त्र, अलंकारादि सहित बारह गायें प्रदान कीं। तदनन्तर सुहृद्, मित्र, दीन, अन्धे और दरिद्रोंके साथ तुम लुब्धक दम्पतिको भोजन कराया और विशेष र-सत्कारके साथ तुम्हें विदा किया ॥ 22- 28 ॥ आदर राजेन्द्र ! वह सपत्नीक लुब्धक तुम्हीं थे, जो इस समय राजराजेश्वरके रूपमें उत्पन्न हुए हो। उस कमल समूहसे भगवान् केशवका पूजन होनेके कारण तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गये तथा दृढ़ त्याग, तप एवं निर्लोभिताके कारण तुम्हें इस कमलमन्दिरकी भी प्राप्ति हुई है। राजन्! तुम्हारी उसी सात्त्विक भावनाके माहात्म्यसे, तुम्हारे थोड़े से ही तपसे ब्रह्मरूपी भगवान् जनार्दन तथा लोकेश्वर ब्रह्मा भी संतुष्ट हुए हैं। इसीसे तुम्हारा पुष्कर मन्दिर स्वेच्छानुसार जहाँ कहीं भी जानेकी शक्तिसे युक्त है। वह अनङ्गवती वेश्या भी इस समय कामदेवकी पत्नी रति के सौतरूपमें उत्पन्न हुई है। यह इस समय प्रीति नामसे विख्यात है और समस्त लोकोंमें सबको आनन्द प्रदान करती तथा सम्पूर्णदेवताओं द्वारा सत्कृत है। इसलिये राजराजेश्वर ! तुम उस पुष्कर-गृहको भूतलपर छोड़ दो और गङ्गातटका आश्रय लेकर विभूतिद्वादशी व्रतका अनुष्ठान करो। उससे तुम्हें निश्चय ही मोक्षकी प्राप्ति हो जायगी ।। 29-33॥
नन्दिकेश्वर बोले- ब्रह्मन् ! ऐसा कहकर प्रचेता मुनि वहीं अन्तर्हित हो गये। तब राजा पुष्पवाहनने मुनिके कथनानुसार सारा कार्य सम्पन्न किया। ब्रह्मन् ! इस विभूतिद्वादशी व्रतका अनुष्ठान करते समय अखण्ड व्रतका पालन करना आवश्यक है। मुने! जिस किसी भी प्रकारसे हो सके, बारहों द्वादशियोंका व्रत कमलपुष्पोंद्वारा सम्पन्न करना चाहिये। अनघ ! अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको दक्षिणा भी देनेका विधान है। इसमें कृपणता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि भक्तिसे ही भगवान् केशव प्रसन्न होते हैं। जो मनुष्य लोगोंके पापोंको विदीर्ण करनेवाले इस व्रतको पढ़ता या श्रवण करता है, अथवा इसे करनेके लिये सम्मति प्रदान करता है वह भी सौ | करोड़ वर्षोंतक देवलोकमें निवास करता है ॥ 34-37॥