नन्दिकेश्वर बोले- नारदजी! सुनिये, अब मैं भगवान् विष्णुके विभूतिद्वादशी नामक सर्वोत्तम व्रतका वर्णन कर रहा हूँ, जो सम्पूर्ण देवगणोंद्वारा अभिवन्दित है।बुद्धिमान् मनुष्य कार्तिक, चैत्र, वैशाख, मार्गशीर्ष, फाल्गुन अथवा आषाढमासमें शुक्लपक्षको दशमी तिथिको स्वल्पाहार कर सायंकालिक संध्योपासनासे निवृत्त होकर इस प्रकारका नियम ग्रहण करे- 'प्रभो! मैं एकादशीको निराहार रहकर भगवान् जनार्दनकी भलीभांति अर्चना करूँगा और द्वादशीके दिन ब्राह्मणके साथ बैठकर भोजन करूंगा। केशव! मेरा यह नियम निर्विघ्नतापूर्वक निभ जाय और फलदायक हो।' फिर रातमें 'ॐ नमो नारायणाय' मन्त्रका जप करते हुए सो जाय। प्रातः काल उठकर स्नान-जप आदि करके पवित्र हो जाय और श्वेत पुष्पोंकी माला एवं चन्दन आदिसे भगवान् पुण्डरीकाक्षका पूजन करे (पूजनके मन्त्र इस प्रकार हैं-) 'विभूतये नमः' से दोनों चरणोंकी, 'अशोकाय नमः' से जानुओंकी, 'शिवाय नमः' से उनकी विश्वमूर्ते नमः' से कटिको 'कंदपाय नमः से जननेन्द्रियकी, 'आदित्याय नमः' से हाथोंकी, 'दामोदराय नमः' से उदरकी, 'वासुदेवाय नमः' से दोनों स्तनोंकी, 'माधवाय नमः ' से विष्णुके वक्षःस्थलकी, 'उत्कण्ठिने नमः' से कण्ठकी, 'श्रीधराय नमः' से मुखकी, 'केशवाय नमः' से केशोंकी, 'शार्ङ्गधराय नमः' से पीठकी, 'वरदाय नमः' से दोनों कानोंकी और 'सर्वात्मने नमः' से सिरकी पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मण देवता नारदजी' तत्पश्चात् शङ्खचक्रासिगदालपाणये नमः' कहकर अपने नामका उच्चारण करते हुए चरणोंमें प्रणिपात करे। तदुपरान्त बुद्धिमान् व्रती मूर्तिके अग्रभागमें एक जलपूर्ण कलश स्थापित करे। उसपर तिलसे युक्त गुड़से भरा हुआ पात्र, जो श्वेत वस्त्रसे परिवेष्टित हो, रख दे। उसके ऊपर अपनी शक्तिके अनुसार सोनेका कमलसहित मत्स्य बनवाकर स्थापित करे और रात्रिमें इतिहास-पुराण आदिकी कथाओंको सुनते हुए जागरण करे ॥ 1- 11 ॥ रात्रि व्यतीत होनेपर प्रातःकाल स्वर्णमय कमल और कलशके साथ वह देव मूर्ति कुटुम्बी ब्राह्मणको दान कर देनी चाहिये। (उस समय ऐसी प्रार्थना करे) 'देव! जिस प्रकार आप सदा सम्पूर्ण विभूतियोंसे वियुक्त नहीं होते, उसी प्रकार इस निखिल कष्टोंसे परिपूर्ण संसाररूपी कीचड़से मेरा उद्धार कीजिये।' मुने। इस प्रकार एक वर्षतक प्रतिमास क्रमशः भगवान् के दस अवतारों तथा दत्तात्रेय और व्यासकी स्वर्णमयी प्रतिमा स्वर्णनिर्मित कमलके साथ दान करनी चाहिये। उस समय छल, कपट पाखण्ड आदिसे दूर रहना चाहिये।मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार यथाशक्ति बारहों द्वादशी व्रतोंको समाप्त कर वर्षके अन्तमें गुरुको लवणपर्वतके साथ साथ गौसहित शय्या दान करनी चाहिये। व्रती यदि सम्पत्तिशाली हो तो उसे वस्त्र, शृङ्गार सामग्री और आभूषण आदिसे गुरुकी विधिपूर्वक पूजा कर ग्राम | अथवा गृहके साथ-साथ खेतका दान करना चाहिये। साथ ही अपनी शक्तिके अनुसार अन्यान्य ब्राह्मणोंको भी भोजन कराकर उन्हें वस्त्र, गोदान, रत्नसमूह और धनराशियोंद्वारा संतुष्ट करनेका विधान है। स्वल्प धनवाला व्रती अपनी सामर्थ्यके अनुकूल थोड़ा-थोड़ा ही दान कर सकता है तथा जो व्रती परम निर्धन हो, किंतु भगवान् माधवके प्रति उसकी प्रगाढ़ निष्ठा हो तो उसे दो वर्षतक पुष्पार्चनकी विधिसे इस व्रतका पालन करना चाहिये। जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे विभूतिद्वादशी व्रतका अनुष्ठान करता है, वह स्वयं पापसे मुक्त होकर अपने सौ पीढ़ियोंतकके पितरोंको तार देता है। उसे एक लाख जन्मोंतक न तो शोकरूप फलका भागी होना पड़ता है, न व्याधि और दरिद्रता ही घेरती है तथा न बन्धनमें ही पड़ना पड़ता है। वह प्रत्येक जन्ममें विष्णु अथवा शिवका भक्त होता है। ब्रह्मन्! जबतक एक सौ आठ सहस्र युग नहीं बीत जाते, तबतक वह स्वर्गलोकमें निवास करता है और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः भूतलपर राजा होता है ॥ 12- 21 ॥