सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब भगवान् शिवके अर्धनारीश्वर रूपका वर्णन कर रहा हूँ। इसमें देवाधिदेव शंकरकी बायीं ओर आधे भागमें अत्यन्त सुन्दर स्त्रीका रूप होता है तथा अर्थभागमें दाहिनी ओर पुरुषरूप पुरुषभाग प्रतिमाको जटाजूट तथा बालचन्द्रकी कलासे युक्तकर उमाके अर्थभागमें मस्तकपर सीमन्त (माँग) में सिन्दूर और ललाटपर तिलक निर्मित करे। दाहिने कानमें वासुकि नाग और बायें कानमें कुण्डलको रचना की जानी चाहिये। वहीं ऊपरकी ओर केशोंके आभूषण तथा कानमें बाली बननी चाहिये। देवदेवेश्वर शिवके दाहिने हाथमें कपाल या त्रिशूल तथा बायें हाथमें दर्पण और कमल बनाये विशेषतया बायें बाहुको बाजूबंद और कङ्कणसे युक्त बनाना चाहिये और दाहिनी ओरके भागमें मणियों और मोतियोंका यज्ञोपवीत बनाना, चाहिये। प्रतिमाके बायें भागकी ओर स्तन तथा दाहिना भाग पीले वर्णका बनाये ऊपरका आधा भाग उज्ज्वल हो, नितम्बका आधा भाग श्वेतवर्णका होना चाहिये। लिंगसे ऊपरका भाग सिंहके चर्मसे आवृत हो। बायें भागमें नाना प्रकारके रत्नोंसे बनी हुई तीन लड़ियोंवाली करधनी और साड़ी पहनानी चाहिये। दाहिना भाग सर्पोंसे युक्त हो। शिवजीका दाहिना पैर कमलके ऊपर स्थापित हो तथा नूपुरसे विभूषित बायाँ पैर उससे कुछ ऊपरकी ओर हो उसकी अंगुलियोंको रत्ननिर्मित अंगूठियोंसे विभूषित करे। पार्वतीके चरण सर्वदा महावरसे युक्त प्रदर्शित किये जायें। इस प्रकार इस प्रसङ्गमें मैंने अर्धनारीश्वरके रूपका वर्णन किया ।। 1-10॥
ब्राह्मणो अब आपलोग उमामहेश्वर मूर्तिके लक्षण सुनिये। मैं उन दोनोंकी स्थितिका वर्णन कर रहा है। उमामहेश्वरको प्रतिमा मनोहर लीलाओंसे युक हो। उसे जटाओंके भार और चन्द्रमासे विभूषित दो या चार बाहुओं तथा तीन नेत्रोंसे युक्त बनाना चाहिये। उसमें भगवान् शिवका एक हाथ उमाके कंधेपर विराजमान होना चाहिये। मूर्तिके दाहिने हाथमें कमल या शूल हो, बायाँ हाथ स्तनपर व्यस्त होना चाहिये। उसे विविध प्रकारके रत्नोंसे विभूषित, व्याघ्रचर्मसे युक्त,सुन्दर वेपोंसे सुसज्जित, मुखमण्डलको अर्धचन्द्रमासे विभूषित तथा उचित रूपसे प्रतिष्ठित करना चाहिये। उसके बायें भागमें देवकी मूर्ति होगी, जिसके दोनों ऊरुभाग बाहुओंसे छिपे रहेंगे। सिरके आभूषणों तथा | अलकावलियोंद्वारा मुखभाग ललित हो और बालियोंसे कान तथा तिलकसे ललाट शोभायमान हो रहा हो। कहीं-कहीं कानों को अलंकृत करनेके लिये मणिनिर्मित कुण्डल पहनाये जाते हैं। उसे हार और केयूरसे सुसज्जित कर शिवजीके मुखका अवलोकन करनेवाली बनावे। वे लीलापूर्वक देवदेव शंकरके बायें कंधेका स्पर्श कर रही हों तथा उनका दाहिना हाथ दाहिने भागसे बाहरकी ओर बना हो या किसी-किसी प्रतिमामें दाहिने कंधे अथवा कुक्षिभागमें नखोंसे स्पर्श कर रही हों, बायें हाथमें दर्पण अथवा सुन्दर कमल रहना चाहिये। नितम्बभागपर तीन लड़ियोंवाला कटिसूत्र लटकता रहना चाहिये। पार्वतीके दोनों ओर जया, विजया, स्वामिकार्तिकेय और गणेशको तथा तोरणद्वारपर गुह्यक गणको प्रदर्शित करना चाहिये। उसी प्रकार यहाँ माला विद्याधर और वीणासे सुशोभित अप्सराओंको बनाना चाहिये। | समृद्धिकामीको उमापति शिवकी प्रतिमा इस प्रकारकी बनवानी चाहिये ll 11 - 206 ।।
अब मैं सभी पापोंके विनाशक शिवनारायणकी प्रतिमाको विधि बता रहा हूँ। इस प्रतिमाकी बायीं ओर आधे भागमें भगवान् विष्णु तथा दाहिनी ओर आधे भागमें शूलपाणि शिवको बनाना चाहिये। कृष्णकी दोनों भुजाएँ मणिनिर्मित केयूरसे विभूषित होनी चाहिये। दोनों भुजाओंमें शब्द और चक्र धारण किये हों, शान्तरूप हों तथा मनोहर अंगुलियाँ लाल वर्णको हो। हाथके निचले भागमें चक्रके स्थानमें गदा भी देनी चाहिये। ऊपरी भागमें शङ्ख, कटिभागमें उज्ज्वल आभूषण और पीताम्बर धारण किये हुए हों तथा चरण मणिनिर्मित नूपुरोंसे विभूषित हों। इसका दाहिना आधा भाग जटाभार तथा अर्धचन्द्रसे विभूषित होना चाहिये। दाहिने हाथको वरद मुद्रासे युक्त तथा सर्पोंके हार और कङ्कणसे सुशोभित तथा दूसरे हाथको त्रिशूलसे विभूषित बनाना चाहिये। उसे सर्पके यज्ञोपवीतसे युक्त और उसके कटिप्रदेशको गजचर्मसे आच्छादित कर दे। चरण मणि और रत्नोंसे अलंकृत | तथा नागसे विभूषित हों। इस प्रकार शिवनारायणकेउत्तम स्वरूपकी कल्पना करनी चाहिये। अब मैं महावराहका वर्णन कर रहा हूँ। उनके हाथोंमें पदा और गदा हो, उनके दादों के अर्थभाग तीक्ष्ण हो, मुनवाला मुख हो, बायाँ केहुनीपर पृथ्वी हो, वह पृथ्वी दाढ़ के अग्रभागपर रखो हुई कमलयुक्त और शान्त हो तथा उसका मुख विस्मयसे उत्फुल्ल हो, ऐसी मूर्तिको ऊपरकी और बनाना चाहिये। उस मूर्तिका दाहिना हाथ कटिप्रदेशपर हो। उनका एक पैर शेषनागके मस्तकपर और दूसरा कूर्मपर स्थित हो तथा लोकपालगण चारों उनकी स्तुति कर रहे हों, ऐसी मूर्ति बनानी चाहिये ॥ 21- 303 ॥
भगवान् नृसिंहकी प्रतिमा आठ भुजाओंसे युक्त बनायी जानी चाहिये। उसी प्रकार उनका सिंहासन भी भयंकर हो, मुख और नेत्र फैले हुए हों, गरदनके लम्बे बाल कानोंतक बिखरे हों तथा वे नखसे दिलिपुत्र हिरण्यकशिपुको फाड़ रहे हो जिसकी बाहर निकल गयी हों, मुखसे रुधिर गिर रहा हो, भृकुटी, मुख और नेत्र विकराल हों, ऐसे दानवराज हिरण्यकशिपुकी मूर्ति बनानी चाहिये। कहीं नृसिंह प्रतिमा युद्धके उपकरणोंसे युक्त दैत्योंसे युद्ध करती हुई बनायी जाती है और कहीं थके हुए दैत्यसे वारंवार धमकायी जाती हुई बनानी चाहिये। वहाँ दैत्यको तलवार और ढाल धारण किये हुए प्रदर्शित करना चाहिये तथा देवेश्वरोंद्वारा स्तुति किये जाते हुए विष्णुको दिखाना चाहिये। अब मैं वामनका वर्णन कर रहा हूँ। वे ब्रह्माण्डको नापनेके लिये तत्पर दीखते हो उनके चरणोंके समीपमें ऊपरकी ओर बाहुका निर्माण करे। उसके नीचेकी ओर बायें हाथमें | कमण्डलु धारण किये हुए वामनकी रचना करे। दाहिने हाथमें एक छोटी-सी छतरी होनी चाहिये। उनका मुख दीनतासे युक्त हो। उन्होंकी बगलमें जलका गेडुआ लिये हुए बलिका निर्माण होना चाहिये। उसी स्थलपर बलिको बाँधते हुए गरुड़को भी दिखाना चाहिये। इसी प्रकार भगवानकी प्रतिमा मछलीके आकारको तथा कर्म भगवान्की प्रतिमा कछुएके समान बनानी चाहिये। इस प्रकार भगवान् विष्णु तथा उनके अवतारोंकी प्रतिमाओंका निर्माण होना चाहिये ॥ 31- 39 ॥
ब्रह्माको कमण्डलु लिये हुए चार मुखोंसे युक्त बनाये। उनकी प्रतिमा कहीं हंसपर बैठी हुई तथा कहीं कमलपर विराजमान रहती है।उनकी प्रतिमा कमलके भीतरी भागके समान अरुण, चार भुजाओंसे युक्त और सुन्दर नेत्रवाली हो। उनके नीचेके बायें हाथमें कमण्डलु और दाहिने हाथमें स्रुवा हो। उनके ऊपरके बायें हाथमें दण्ड तथा दाहिने हाथमें भी स्रुवा धारण किये हुए प्रदर्शित करना चाहिये। उनके चारों और देवता, गन्धर्व और मुनिगणोंद्वारा स्तुति किये जाते हुए दिखाना चाहिये। ऐसी भूमिका भी दिखाये, मानो वे तीनों लोकोंकी रचनायें प्रवृत्त हैं। वे श्वेत वस्त्रधारी, ऐश्वर्यसम्पन्न, मृगचर्म तथा दिव्य यज्ञोपवीतसे युक्त हों। उनके बगलमें आज्यस्थाली रहे और सामने चारों वेदोंकी मूर्तियाँ हों। उनकी बायीं ओर सावित्री, दाहिनी ओर सरस्वती तथा उनके अग्रभागमें मुनियोंके समूह हों ॥40 - 44 ॥
अब मैं कार्तिकेयकी प्रतिमाका वर्णन कर रहा हूँ। उनकी प्रतिमाको मध्यकालीन सूर्यकी भाँति परम तेजोमय, कमलके मध्यभागके समान अरुण, मयूरपर आरूढ़, दण्डों और चीरोंसे सुशोभित, सुकुमार शरीरसे युक्त और बारह भुजाओंवाली बनाना चाहिये। उसे अपने इष्ट नगरमें स्थापित करना चाहिये। खर्वट (पर्वतके समीपके ग्राम) में इनकी चार भुजाओंवाली और वन अथवा ग्राममें दो बाहुवाली प्रतिमा स्थापित करानी चाहिये। (बारह भुजाओंवाली प्रतिमामें) उनकी दाहिनी ओरके छः हाथोंमें शक्ति, पाश, तलवार, बाण और शूल शोभायमान हों। एक हाथमें अभयमुद्रा अथवा वरदमुद्रा बनानी चाहिये। ये सभी केयूर तथा कटकसे विभूषित उज्ज्वल वर्णके होने चाहिये। बायाँ | ओरके छः हाथ क्रमशः धनुष, पताका, मुष्टि, फैली हुई तर्जनी, ढाल, मुर्गा-इन वस्तुओंसे युक्त और उसी वर्णके होने चाहिये। दो भुजाओंवाली प्रतिमाके बायें हाथमें शक्ति और दाहिना हाथ कुक्कुटपर न्यस्त रहना चाहिये। चतुर्भुज प्रतिमाकी बायीं ओरके दो हाथोंमें शक्ति और पाश तथा दाहिनी ओरके तीसरे हाथमें तलवार हो और चौथा हाथ अभय अथवा वरदमुद्रासे युक्त हो ll 45 - 51 ॥
अब मैं गणेशजीकी प्रतिमाका विधान बता रहा हूँ। उनकी प्रतिमामें हाथी-सा मुख, तीन नेत्र, लम्बा उदर, चार भुजाएँ, सर्पका यज्ञोपवीत, सिमटा हुआ कान, विशाल शुण्ड, एक दाँत और तोंद स्थूल हो। उनके ऊपरके दाहिने | हाथमें अपना दाँत और निचले हाथमें कमल होना चाहिये।बायीं ओरके ऊपरके हाथमें मोदक तथा निचले हाथमें परशु हो। बृहत् होनेके कारण मुख नीचेको ओर विस्तृत तथा स्कन्ध, पाद और हाथ मोटे होने चाहिये। वह सिद्धि बुद्धिसे युक्त हो, उसके नीचेकी ओर मूषक बना हो। अब मैं भगवती कात्यायनीकी मूर्तिका वर्णन कर रहा हूँ। वह दस भुजाओंसे युक्त, तीनों देवताओंकी आकृतियोंका अनुकरण करनेवाली, जटाजूटसे विभूषित, सिरपर अर्धचन्द्रसे सुशोभित, तीन नेत्रोंसे युक्त, पूर्णचन्द्रके समान मुखवाली, अलसी पुष्पके समान नीलवर्ण, तेजोमय, | सुन्दर नेत्रोंसे विभूषित, नवयौवनसम्पन्ना सभी आभूषणोंसे विभूषित, अत्यन्त सुन्दर दाँतोंसे युक्त, स्थूल एवं उन्नत स्तनोंवाली, त्रिभंगी रूपसे स्थित, महिषासुरनाशिनी आदि चिह्नोंसे युक्त हो। दाहिने हाथोंमें क्रमश: ऊपरसे नीचेकी और त्रिशूल, खड्ग, चक्र, तीक्ष्ण बाण और शक्ति तथा वायें हाथोंमें ढाल, धनुष, पाश, अङ्कुश, घण्टा अथवा परशु | धारण कराना चाहिये। प्रतिमाके नीचे सिररहित महिषासुरको प्रदर्शित करना चाहिये। वह दानव सिर कटनेपर शरीरसे निकलता हुआ दीख पड़े तथा हाथमें खड्ग, हृदय शूलसे | विदीर्ण और बाहर निकलती हुई अंतड़ियोंसे विभूषित हो। वह रक्तसे लथपथ शरीरवाला, विस्फारित लाल नेत्रोंसे युक्त, नागपाशसे परिवेष्टित, टेढ़ी भृकुटीके कारण भीषण मुखाकृति और दुर्गाद्वारा पाशयुक्त बायें हाथसे पकड़ा गया केशवाला हो ॥ 52-633 ll
देवीके सिंहको मुखसे रक्त उगलते हुए प्रदर्शित करना चाहिये। देवीका दाहिना पैर सिंहके ऊपर समानरूपसे स्थित हो तथा बायाँ कुछ ऊपरकी ओर उठा हो, उसका अंगूठा महिषासुरपर लगा हुआ हो उनकी प्रतिमाको देवगणोंद्वारा स्तुति किये जाते हुए दिखाना चाहिये (यहाँसे अष्टदिकृपाल या लोकपालोंकी प्रतिमाका वर्णन है) अब मैं देवराज इन्द्रके रूपको विशेष रूपसे कह रहा हूँ। हजार नेत्रोंवाले देवेन्द्रको मत्त गयन्दपर विराजमान बनाना चाहिये। उनके ऊरु, वक्षःस्थल और मुख विशाल हों.कंधे सिंहके समान हों, उनकी भुजाएँ विशाल हों, वे किरीट और कुण्डल धारण किये हों, उनके जघनस्थल, भुजाएँ तथा आँखें स्थूल हों, वे वज्र और कमल धारण किये हों तथा विविध आभूषणोंसे विभूषित हों, देवता और गन्धर्वोद्वारा पूजित और अप्सराओंद्वारा सेवित हों । उनके पार्श्वमें छत्र और चामर धारण करनेवाली स्त्रियोंको प्रदर्शित करना चाहिये। वे सिंहासनपर विराजमान हों, उनकी बायीं ओर कमल धारण किये हुए इन्द्राणी स्थित हों, वे गन्धर्वोंसे घिरे हों ॥ 64-70 ॥