ईश्वरने कहा – मुनिपुङ्गव ! अब मैं उसी प्रकार विशोकसप्तमी - व्रतका वर्णन कर रहा हूँ। जिसका अनुष्ठान करके मनुष्य इस लोकमें कभी शोकको नहीं प्राप्त होता। व्रतीको चाहिये कि वह माघमासमें शुक्लपक्षकी षष्ठी तिथिको दातूनसे दाँतोंको साफ करनेके बाद काले तिलमिश्रित जलसे स्नान करे और (तिल-चावलकी) खिचड़ीका भोजन करे। फिर उपवासका व्रत लेकर ब्रह्मचर्यपूर्वक रातमें शयन करे। प्रातः काल उठकर स्नान, जप आदि नित्यकर्म करके पवित्र हो ले, फिर स्वर्णनिर्मित कमलको स्थापित कर अर्काय नमः' इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए लाल कनेरके पुष्प और दो लाल रंगके वस्त्रोंद्वारा सूर्यकी पूजा करे और ऐसा कहे- 'आदित्य! जैसे आपके द्वारा यह सारा जगत् सदा शोकरहित बना रहता है, उसी प्रकार मुझे भी प्रत्येक जन्ममें विशोकता और आपकी भक्ति प्राप्त हो।' इस प्रकार षष्ठी तिथिको भगवान् सूर्यको पूजा कर ब्राह्मणोंका भी भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये। फिर रात्रिमें गोमूत्रका प्राशन कर शयन करे और प्रातः काल उठकर नित्यकर्मसे निवृत्त हो जाय। तत्पश्चात् अन्नद्वारा ब्राह्मणोंका पूजन करके दो वस्त्र और गुड़पूर्ण पात्रसहित वह स्वर्णमय कमल ब्राह्मणको निवेदित कर दे।स्वयं सप्तमीको तेल और नमकरहित अन्नका भोजन करके मौन धारण कर ले। वैभवकी इच्छा रखनेवाले व्रतीको उस दिन पुराणोंकी कथाएँ सुननी चाहिये। इस विधि से दोनों | पक्षोंमें सारा कार्य तबतक करते रहना चाहिये जबतक पुनः माघमासमें शुक्लपक्षकी सप्तमी न आ जाय ॥ 1-8 ॥
व्रतके अन्तमें स्वर्णनिर्मित कमलसमेत कलश, | समस्त उपकरणोंसहित शय्या और दुधारू कपिला गौका | दान करना चाहिये। इस प्रकार जो मनुष्य कृपणता छोड़कर उपर्युक्त विधिके अनुसार विशोकसप्तमी-व्रतका अनुष्ठान करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है तथा करोड़ों जन्मतक उसे शोककी प्राप्ति नहीं होती। वह रोग और दुर्गतिसे रहित हो जाता है तथा जिस-जिस मनोरथकी प्रार्थना करता है, उसे उसे वह प्रचुरमात्रामें प्राप्त करता है। जो व्रती निष्कामभावसे अनुष्ठान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त होता है। जो मनुष्य इस विशोकसप्तमी-व्रतकी कथा या विधानको पढ़ता अथवा श्रवण करता है, वह भी इस लोकमें कभी दुःखी नहीं होता और अन्तमें इन्द्रलोकको प्राप्त होता है ॥ 9 - 13 ॥