मनुने पूछा- भगवन्! राजाको राज्यकी रक्षाके लिये जिन रहस्यपूर्ण साधनोंको दुर्गमें संगृहीत या प्रस्तुत करना चाहिये, उन तत्त्वोंका मुझसे वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥ मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! शिरीष, गूलर, शमी और बिजौरा नीबू इनको घृतमें परिप्लुतकर पंद्रह दिनों बाद सेवन करे, प्राचीन लोग इसे 'क्षुद्योग' कहते हैं। कशेरुके मूल भाग तथा फल, ईखके मूल भाग और विषको दूब, दूध और घीके साथ सिद्ध करनेसे बना हुआ | पदार्थ मण्ड कहलाता है। एक मास बाद इसका सेवन करना चाहिये। इनके सेवन से हथियारोंसे घायल हुआ मनुष्य मर नहीं सकता। वहाँ चितकबरे रंगवाले बाँसके टुकड़ेसे अग्नि उत्पन्न करे राजन् उस अग्निको जिस परमें अपसव्य होकर तीन बार प्रदक्षिणा करे, वहाँ कोई अन्य अग्नि नहीं जल सकती इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। कपासके साथ सर्पकी हड्डी जलानेसे घरमेंसे सर्पोका निष्कासन होता है। घरमें निरन्तर इस वस्तुकी धूप करना साँपको निकालनेके लिये विशेष प्रसिद्ध है। राजन् सामुद्री नमक, सैन्धा नमक और यथा— ये तीन प्रकारके लवण तथा विद्युत्से जली हुई मिट्टी-इन वस्तुओंसे जिस भवनकी लिपाई होती है, उसे अग्नि नहीं जला सकती। दुर्गमें दिनके समय विशेषकर जब वायुका प्रकोप हो, अग्निको रक्षा करनी चाहिये। विषसे राजाकी रक्षा करनी चाहिये। उस विषयमें मैं युक्ति बतलाता हूँ, सुनिये। राजाको चाहिये कि दुर्गमें क्रीड़ाके लिये कुछ पशु तथा पक्षियोंको रखे। सर्वप्रथम उसे अग्निमें डालकर अथवा अन्य किन्हीं उपायोंसे अत्रको - परीक्षा कर लेनी चाहिये। वस्त्र, पुष्प, आभरण, भोजन तथा आच्छादन (वस्त्र) को राजा पहले परीक्षा किये बिना स्पर्श भी न करे। विष देनेवाले मनुष्यने यदि विष दे दिया है तो उसकी परीक्षाके ये निम्नकथित लक्षण होते हैं- वह मलिनमुख, उद्वेगपूर्वक देखनेवाला, खिसकती हुई चादरवाला, उदास, खम्भे और भीतकी आड़में अपनेको छिपाने की चेष्टा करनेवाला, लज्जित तथा शीघ्रताकरनेवाला होता है। राजन् वह पृथ्वीपर रेखा खींचने लगता है, गर्दन हिलाने लगता है तथा मुखको मलकर सिर खुजलाने लगता है। राजन् निश्चय ही वह विपरीत कार्योंमें भी शीघ्रता करने की चेष्टा करता है। विषा ऐसे ही लक्षण होते हैं। राजाको उसकी परीक्षा कर लेनी चाहिये। उसके द्वारा दिये गये अन्नको शीघ्रतापूर्वक समीपस्थ अग्रिमें डाल देना चाहिये। विषैला अन अग्रिमें पड़ते हो इन्द्रधनुष जैसे रंगवाला हो जाता है तथा तुरंत ही सूख जाता है। उसमें स्फोट होने लगता है। वह एक ही ओरसे निकलता है, दुर्गन्धयुक्त होता है और अत्यन्त चटचटाने लगता है। उसके धुंएका सेवन करनेसे जीवके सिरमें रोग उत्पन्न हो जाता है ॥2- 16 ॥
राजन् ! विषयुक्त अन्नके ऊपर मक्खियाँ नहीं बैठत यदि बैठ गयीं तो विषसंयुक्त अन्नका स्पर्श होनेके कारण तुरंत ही मर जाती हैं। पार्थिवश्रेष्ठ ! विषयुक्त अन्नको देखते ही चकोरकी दृष्टि विरक्त हो जाती है अर्थात् वह अपनी आँखें फेर लेता है, कोकिलका स्वर विकृत हो जाता है, |हंसको गति लड़खड़ाने लगती है, भरि जोरसे गूंजने लगते हैं, क्रौंच (कुरर) मदमत हो जाता है और मुर्गा जोर जोरसे बोलने लगता है। राजन्! शुक चें-चें करने लगता है, सारिका वमन करने लगती है, चामीकर भाग खड़ा होता है और कारण्डव मर जाता है। राजन्। वानर मूत्र त्याग करने लगता है, जीवजीवक ग्लानियुक्त हो जाता है, नेवलेके रोएँ खड़े हो जाते हैं, पृषत् मृग रोने लगता है। राजन्! विषको देखते ही मयूर हर्षित हो जाता है; क्योंकि वह चिरकालसे विषयुक्त अत्रका भोजन करनेवाला है। राजन्! वह विषयुक्त अन्न कहने योग्य नहीं रह जाता, पंद्रह दिनके वासी अन्नकी तरह दीख पड़ता है उसका रस तथा गन्ध नष्ट हो जाती है तथा ऊपरसे वह चन्द्रिकाओंसे युक्त रहता है। नृपोत्तम! विषके मिलनेसे बना हुआ व्यञ्जन सूख जाता है, द्रव वस्तुओंमें मुझे उठने लगते हैं लवणसहित | पदार्थों में फेन उठने लगते हैं। अत्रोंसे बना हुआ विषैला भोजन ताम्रवर्णका, दूधवाला नीले रंगका, मदिरा तथा | जलयुक्त कोकिलके समान काला, अम्ल अन्नवाला काला, कोदोका कपिल तथा मट्ठायुक्त भोजन मधुके समान श्यामल, नीला और पीला हो जाता है॥17- 26 ।।
विषयुक्तमृतका वर्ण जलकी भाँति विपमिश्रित छाछका | कबूतरकी तरह, मधुयुक्तका हरा और तेलमिश्रित विषकालाल रंग हो जाता है। विषके संसर्गसे न पके हुए फल शीघ्र ही पक जाते हैं और पका हुआ फल विकृत हो जाता है। पुष्प-मालाएँ मलिन हो जाती हैं। कठोर वस्तु कोमल तथा कोमल वस्तु कठोर हो जाती है। सूक्ष्म वस्तुओंका रूप नष्ट हो जाता है और रंग बदल जाता है। वस्त्रोंमें विशेषकर काले धब्बे पड़ जाते हैं। लोहे और मणियोंपर मैल जम जाती है। नृपश्रेष्ठ शरीरमें लेपन किये जानेवाले द्रव्यों एवं उपयोगमें आनेवाली पुष्प-मालाओंमें दुर्गन्धि तथा रंगकी मलिनता समझनी चाहिये। राजन् ! उसी प्रकार जलमें भी पीलेपनका आभास आने लगता है। नृपोत्तम! विषके सेवनसे दाँत, होंठ और चमड़े श्यामल वर्णके हो जाते हैं और शरीरमें क्षीणताका अनुभव होने लगता है-इस प्रकार ये लक्षण जानने चाहिये। इसलिये राजाको सर्वदा मणि, मन्त्र और उपर्युक्त ओषधियोंसे सुरक्षित तथा सावधान रहना चाहिये। सूर्यवंशके चन्द्र ! इस पृथ्वीपर प्रजारूपी वृक्षकी जड़ राजा है, अतः उसीकी रक्षासे राष्ट्रकी वृद्धि होती है। इसलिये सभीको प्रयत्नपूर्वक राजाकी रक्षा करनी चाहिये ॥ 2734॥