वीरकने कहा- कमललोचने! मेरी स्नेहवत्सला माता पार्वतीने भी मुझे ऐसा ही आदेश दिया है, कोई भी परायी स्त्री भवनके भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। वीरकद्वारा ऐसा कही जानेपर पार्वतीदेवी मनमें विचार करने लगीं कि वायुने मुझे जिस स्त्रीके विषय में सूचना दी थी, वह स्त्री नहीं थी, प्रत्युत वह कोई दैत्य था। क्रोधके वशीभूत हो मैंने व्यर्थ ही वीरकको शाप दे दिया। क्रोधसे प्रेरित हुए मूर्खलोग प्रायः इसी प्रकार अकार्य कर बैठते हैं। क्रोध करनेसे कीर्ति नष्ट हो जाती है और क्रोध सुस्थिर लक्ष्मीका भी विनाश कर देता है। इसी कारण तत्त्वार्थको निश्चितरूपसे न जानकर मैंने अपने पुरको ही शाप दे दिया। जिनकी बुद्धि विपरीत अर्थको ग्रहण करती है, उन्हें विपत्तियाँ मिलती हैं। ऐसा अतः विचारकर पार्वती कमल-सी कान्तिवाले मुखसे लज्जाका नाट्य करती हुई वीरकसे इस प्रकार कहने लगीं ॥1-5॥ देवी बोलीं- वीरक! तुम अपने मनमें मेरे प्रति संदेह मत करो मैं ही हिमाचलकी पुत्री, शंकरजीकी प्रियतमा पत्नी और तुम्हारी माता हूँ। बेटा! मेरे शरीरकी अभिनव शोभाके भ्रमसे तुम शङ्का मत करो। यह गौर कान्ति मुझे ब्रह्माने प्रसन्न होकर प्रदान की है। मुझे यह दैत्यद्वारा निर्मित वृत्तान्त ज्ञात नहीं था, अतः शंकरजीके एकान्तमें स्थित रहनेपर किसी अन्य नारीका प्रवेश (तुम्हारी असावधानीसे) जानकर मैंने तुम्हें शाप दे दिया है। वह शाप तो अब टाला नहीं जा सकता, किंतु उससे उद्धारका उपाय तुम्हें बतला रही हूँ। तुम मनुष्य योनिमें जन्म लेकर वहाँ अपना मनोरथ पूरा करके शीघ्र ही मेरे पास वापस आ जाओगे ॥ 6-9 ॥
जी कहते हैं-ऋषियो। तदनन्तर यस्क प्राप्त मनसे उदय हुए पूर्णिमा चन्द्रमाको सो कान्तिवाली माता | पार्वतीको सिर झुकाकर प्रणाम करनेके पश्चात् बोला ॥ 10 ॥वीरकने कहा- गिरिराजकुमारी आपके चरण नख प्रणत हुए सुरों और असुरोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणिसमूहोंकी उत्कट कान्तिसे सुशोभित होते रहते हैं। आप शरणागतवत्सला तथा प्रणतजनोंका कष्ट दूर करनेवाली हैं। मैं आपके चरणों में नमस्कार कर रहा हूँ। गिरिनन्दिनि । आपके कन्धे सूर्य मण्डलके समान चमकते हुए सुशोभित हो रहे हैं। आपकी शरीरात प्रवसे परिपूर्ण सुमेरु गिरिकी तरह है। आप विषैले सर्परूप तरकाल विभूषित हैं, मैं आपका आश्रय ग्रहण करता हूँ। सिद्धोंद्वारा नमस्कार की जानेवाली देवि! आपके समान जगत् प्रणतजनोंके अभीष्टको तुरंत प्रदान करनेवाला दूसरा कौन है? गिरिजे! इस जगत् में भगवान् शंकर आपके समान किसी अन्य स्त्रीकी इच्छा नहीं करते। आपने महेश्वर मण्डलको निर्मल योगवलसे निर्मित अपने शरीरके तुल्य दुर्जय बना दिया है आप मारे गये अन्धकासुरके भाई-बन्धुओंका संहार करनेवाली हैं। सुरेधरोंने सर्वप्रथम आपकी स्तुति की है। आप श्वेत वर्णको जटा (केश) समूहसे आच्छादित कंधेवाले विशालकाय सिंहरूपी रथपर आरूढ़ होती हैं। आपने चमकती हुई शक्तिके मुखसे निकलनेवाली अग्निको कान्तिसे पीला पड़नेवाली लम्बी भुजाओंसे प्रधान प्रधान असुरोंको पीसकर चूर्ण कर दिया है ॥ 11-15 ।। जननि त्रिभुवनके प्राणी आपको शुम्भ निशुम्भका संहार करनेवाली चण्डिका कहते हैं। एकमात्र आप इस भूतलपर विनम्र जनोंद्वारा चिन्तना किये गये प्रधान प्रधान दानवोंका वेगपूर्वक मर्दन करनेमें उत्साह रखनेवाली हैं। देवि! आप अजेय, अनुपम, त्रिभुवन सुन्दरी और शिवजीकी प्राणप्रिया हैं, आपका जो शरीर आकाशमें, वायुके मार्गमें, अग्निकी भीषण ज्वालाओं में तथा पृथ्वीतलपर भासमान है, उसे मैं प्रणाम करता हूँ। रुचिर एवं भीषण लहरोंसे युक्त महासागर, अग्निकी लपटें, चराचर जगत् तथा हजारों फण धारण करनेवाले बड़े-बड़े नाग- ये सभी आपका नाम लेनेवाले मेरे लिये भयंकर नहीं दीख पड़ते। अनन्य भक्तजनोंकी आश्रयभूता भगवति ! मैं आपके चरणोंकी शरणमें आ पड़ा हूँ आपके चरणोंमें प्रगत होनेसे प्राप्त हुए थोड़े-से फलके कारण मेरा इन्द्रियसमुदाय आपके चरणोंमें अटल स्थान प्राप्त करे।पुत्रवत्सले । मेरे लिये पूर्णरूप से शान्त हो जाइये। त्रिलोकीकी आश्रयभूता देवि! आपको नमस्कार है। शिवे! मेरी बुद्धि निरन्तर आपके चिन्तनमें ही लगी रहे। मैं आपके शरणागत हूँ और चरणोंमें पड़ा हूँ। आपको नमस्कार है ॥ 16-20 ॥ सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! वीरकके इस प्रकार संस्तवन करनेपर पार्वतीदेवी प्रसन्न हो गर्यो, तब वे अपने पति शिवजीके सुन्दर भवनमें प्रविष्ट हुई। इधर द्वारपाल वीरकने शिवजीके दर्शनकी अभिलापासे आये हुए देवोंको आदरपूर्वक ऐसा कहकर अपने-अपने घरोंको लौटा दिया कि 'देवगण! इस समय मिलनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भगवान् शंकर एकान्तमें पार्वतीदेवीके साथ क्रीडा कर रहे हैं।' ऐसा कहे जानेपर वे जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर देवताओंके मनमें उतावली उत्पन्न हो गयी, तब उन्होंने शंकरजीकी चेष्टाका पता लगानेके लिये अग्निको भेजा। वहाँ जाकर अग्निदेवने शुकका रूप धारण किया और गवाक्षमार्गसे भीतर प्रवेश करके देखा कि शंकरजी गिरिजाके साथ शय्यापर विराजमान है। उधर देवेश्वर शंकरजीकी दृष्टि शुकरूपी अग्निपर पड़ गयी, तब महादेव कुछ क्रुद्ध से होकर अग्निसे बोले ।
शिवजीने कहा- अग्ने ! चूँकि तुमने ही यह विघ्न उपस्थित किया है, इसलिये इसका फल भी तुम्हें भोगना पड़ेगा। ऐसा कहे जानेपर अग्नि हाथ जोड़कर शंकरजीद्वारा आधान किये गये वीर्यको पी गये और उसे सभी देवताओंके शरीरमें विभक्त करके उन्हें पूर्ण कर दिया। तदनन्तर शंकरजीका वह तपाये हुए स्वर्णके समान कान्तिमान् वीर्य देवताओंका उदर फाड़कर बाहर निकल आया और शंकरजीके उस विस्तृत आश्रम में अनेकों योजनोंमें विस्तृत एवं निर्मल जलसे पूर्ण महान् सरोवरके रूपमें परिणत हो गया। उसमें स्वर्णको -सी कान्तिवाले कमल खिले हुए थे और नाना प्रकारके पक्षी चहचहा रहे थे। तत्पश्चात् स्वर्णमय वृक्ष एवं अगाध जलसे सम्पन्न उस सरोवरके विषयमें सुनकर कुतूहलसे भरी हुई पार्वतीदेवी उस स्वर्णमय कमलसे भरे हुए सरोवरके तटपर गर्यो और उसके कमलको सिरपर धारण करके जलक्रीडा करने लगीं। तत्पश्चात् पार्वतीदेवी सखीके साथ उस सरोवरके तटपर बैठ गयीं और उस सरोवरके कमलकी गन्धसे सुवासित स्वच्छ स्वादिष्ट जलको पीनेकी इच्छा करने लगीं।इतनेमें ही उनकी दृष्टि उस सरोवरमें स्नान कर निकली हुई छहों कृत्तिकाओंपर पड़ी जो सूर्यकी कान्तिके समान उद्भासित हो रही थीं तथा कमलके पत्तेके दोनेमें उस सरोवरके जलको लेकर घरकी ओर जानेके लिये उद्यत थीं। तब पार्वतीने उनसे हर्षपूर्वक कहा—'मैं कमलके पत्तेमें रखे हुए जलको देख रही हूँ।' यह सुनकर उन कृत्तिकाओंने पार्वतीसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।। 27 – 34 ॥
कृत्तिकाओंने कहा- शुभानने! यह जल हमलोग आपको दे देंगी, किंतु यदि आप यह प्रतिज्ञा करें कि इस जलके पान करनेसे जो गर्भ स्थित होगा, उससे उत्पन्न हुआ बालक हमलोगोंका भी पुत्र कहलाये और हमलोगोंके नामपर उसका नामकरण किया जाय। वह बालक सभी लोकोंमें विख्यात होगा। इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने कहा-'भला जो मेरे समान सभी अङ्गोंसे युक्त होकर मेरे शरीरसे उत्पन्न होगा, वह आप लोगोंका पुत्र कैसे हो सकेगा?' तब कृत्तिकाओंने पार्वतीसे कहा- 'यदि हमलोग इस बालकके उत्तम मस्तकोंकी रचना करेंगी तो यह वैसा हो सकता है।' उनके ऐसा कहनेपर पार्वतीने कहा- 'अनिन्द्य सुन्दरियो ! ऐसा ही हो।' तब हर्षसे भरी हुई कृत्तिकाओंने कमलके पत्तेमें रखे हुए उस जलको पार्वतीको समर्पित कर दिया और पार्वतीने भी उस सारे जलको क्रमशः पी लिया। उस जलके पी लेनेपर उसी सरोवर के तटपर पार्वतीदेवीकी दाहिनी कोखको फाड़कर एक अद्भुत बालक निकल पड़ा जो समस्त लोकोंको उद्भासित कर रहा था। उसकी शरीरकान्ति सूर्यके समान थी। वह स्वर्ण सदृश प्रकाशमान तथा हाथोंमें निर्मल एवं भयावनी शक्ति और शूल धारण किये हुए था। उसके छः मुख थे। वह सुवर्णकी-सी छविसे युक्त हो उद्दीप्त हो रहा था और पापाचारी दैत्योंको मारनेके लिये उद्यत सा दीख रहा था। इसी कारण वे देव 'कुमार' नामसे भी प्रसिद्ध हुए॥ 35-42 ॥