ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! अब आप हमें विस्तारके साथ वृक्ष लगानेकी यथार्थ विधि बतलाइये। विद्वानोंको किस विधि वृक्ष लगाने चाहिये तथा वृक्षारोपण करनेवालोंके लिये जिन लोकोंकी प्राप्ति बतलायी गयी है, उन्हें भी आप इस समय हमलोगोंको बतलाइये ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं- [ यही प्रश्न जब मनुने मत्स्य भगवान् से किया था तो इसे उनसे मत्स्य (भगवान्) ने कहा था।] जगदीश्वर में बगीचेमें वृक्षोंके लगानेकी विधि तुम्हें बतलाता हूँ। तड़ागकी प्रतिष्ठाके विषयमें जो विधान बतलाया गया है, उसीके समान सारी विधि समझनी चाहिये। इसमें भी ऋत्विज, मण्डप, सामग्री और आचार्यको पूर्ववत् रखे। उसी प्रकार सुवर्ण, वस्त्र और चन्दनद्वारा ब्राह्मणोंकी पूजा भी करनी चाहिये। रोपे गये पौधोंको सर्वोषधिमिश्रित जलसे सींचे। फिर उनके ऊपर दही और अक्षत छोड़े। उसके बाद उन्हें पुष्पमालाओंसे अलङ्कृत कर वस्त्रोंसे परिवेष्टित कर दे। सोनेकी सूईसे सबका कर्णवेध करे। उसी प्रकार सोनेकी सलाईसे अञ्जन भी लगाना चाहिये। सात अथवा आठ सुवर्णके फल बनवावे, फिर इन फलोंके साथ सभी वृक्षको बेदीपर स्थापित कर दे। यहाँ गुग्गुलका भूप देना श्रेष्ठ माना गया है। वृक्षोंको पृथक् पृथक् ताम्रपात्रमें रखकर उन्हें सप्तधान्यसे आवृत करें तथा उनके ऊपर वस्त्र और चन्दन चढ़ाये। नरेश्वर। फिर प्रत्येक वृक्षके पास कलश स्थापन करके उन सभी कलशोंमें स्वर्ण | खण्ड डाले, फिर बलि प्रदान करके उनकी पूजा करे।रातमें विद्वान् द्विजातियोंद्वारा इन्द्रादि लोकपालों तथा वनस्पतिके निमित्त वित्तानुसार हवन कराये। तदनन्तर दूध देनेवाली एक गौको लाकर उसे श्वेत वस्त्र ओढ़ाये । उसके मस्तकपर सोनेकी कलगी लगाये, सींगोंको सोनेसे मैंढ़ा दे उसको दूहनेके लिये काँसेकी दोहनी प्रस्तुत करे। इस प्रकार अत्यन्त शोभासम्पन्न उस गौको उत्तराभिमुख खड़ी करके वृक्षोंके बीचसे छोड़े। तत्पक्षात् श्रेष्ठ ब्राह्मण बाजों और मङ्गलगीतोंकी ध्वनिके साथ | अभिषेकके मन्त्र- तीनों वेदोंकी वरुणसम्बन्धिनी ऋचाएँ पढ़ते हुए उक्त कलशोंके जलसे यजमानका अभिषेक करें। अभिषेकके पश्चात् यज्ञकर्ता पुरुष श्वेत वस्त्र धारण करे और अपनी सामर्थ्यके अनुसार सावधानीपूर्वक गौ सोनेकी जंजीर, कड़े, अंगूठी, पवित्री, वस्त्र, शय्या शय्योपयोगी सामान तथा चरणपादुका देकर सम्पूर्ण ऋत्विजोंका पूजन करे। इसके बाद चार दिनोंतक उन्हें दूधके साथ भोजन कराये तथा सरसोंके दाने, जौ और काले तिलोंसे होम कराये होममें पलाश (ढाक) की लकड़ी उत्तम मानी गयी है। वृक्षारोपणके पश्चात् चौथे दिन विशेष उत्सव करे। उसमें भी अपनी शक्तिके अनुसार पुनः उसी प्रकार दक्षिणा दे। जो-जो वस्तु अपनेको अधिक प्रिय हो, ईर्ष्या छोड़कर उस उसका दान करे। आचार्यको दूनी दक्षिणा दे तथा प्रणाम करके यज्ञकी समाप्ति करे ॥2-15॥
जो विद्वान् उपर्युक्त विधिसे वृक्षारोपणका उत्सव करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं तथा वह अक्षय फलका भागी होता है। राजेन्द्र ! जो मनुष्य इस प्रकार एक भी वृक्षकी स्थापना करता है, राजन् ! वह भी जबतक तीस इन्द्र समाप्त हो जाते हैं, तबतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। यह जितने वृक्षोंका रोपण करता है, अपने पहले और पीछेकी उतनी ही पीढ़ियोंका वह उद्धार कर देता है तथा उसे पुनरावृत्तिसे रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है। जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसङ्गको सुनता या सुनाता है, वह भी देवताओंद्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है* ॥ 16-19 ॥