सूतजी कहते हैं-ऋषियो! ( अब आपलोग सात्त्वतके कनिष्ठ पुत्र वृष्णिका वंश-वर्णन सुनिये ।) गान्धारी और मादी- ये दोनों वृष्णिकी पत्नियाँ हुईं। उनमें गान्धारीने सुमित्र और मित्रनन्दन नामक दो पुत्रोंको तथा माद्रीने युधाजित्, तत्पश्चात् देवमीढुष, अनमित्र, शिवि और पाँचवें कृतलक्षण नामक पुत्रोंको जन्म दिया। अनमित्रका पुत्र निम्न हुआ और निनके महान् पराक्रमी प्रसेन और शक्तिसेन नामक दो पुत्र हुए। इसी प्रसेनके पास स्यमन्तक नामक सर्वश्रेष्ठ मणिरत्र था। वह मणिरत्र भूतलपर समस्त रत्नोंका राजा था। भगवान् श्रीकृष्णने भी अनेकों बार मनमें उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करके प्रसेनसे याचना की, परंतु वे उसे प्राप्त न कर सके। साथ ही समर्थ होनेपर भी उन्होंने उसका अपहरण भी नहीं किया। एक बार प्रसेन उस मणिसे विभूषित हो शिकार खेलनेके लिये वनमें गया। वहाँ उसने एक बिल (गुफा) में, जिसका स्वामी जीव उसमें विद्यमान था होनेवाले कोलाहलको सुना।कुतूहलवश प्रसेनने उसमें प्रवेश करके एक रीछको देखा। फिर तो रोकी दृष्टि प्रसेनपर और प्रसेनकी दृष्टि रीछपर पड़ी। (तत्पश्चात् दोनों में युद्ध छिड़ गया।) रीछने प्रसेनको मारकर वह मणि ले ली। बिलके भीतर प्रविष्ट हुआ प्रसेन रीछद्वारा मार डाला गया, इसलिये उसे कोई देख न सका। इधर प्रसेनको मारा गया जानकर भगवान् श्रीकृष्णको आशङ्का हो गयी कि लोग स्पष्टरूपसे कहते होंगे कि मणि लेनेके लिये श्रीकृष्णने ही प्रसेनका वध किया है। ऐसी किंवदन्तीके फैलनेपर भगवान् गोविन्दने उत्तर दिया कि 'उस मणिरत्नको धारण करके प्रसेन वनमें गया था, उसे देखकर (मणिको हथियानेके लिये) किसीके द्वारा (सम्भवतः) वह मार डाला गया है। अतः वृष्णिवंशके शत्रुरूप उस दुराचारीका में वध करूँगा।' तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् आखेटके लिये निकले हुए भगवान् श्रीकृष्ण इच्छानुसार भ्रमण करते हुए उसी बिल (गुफा) के निकट जा पहुँचे। उन्हें देखकर महाबली रीछराजने उच्चस्वरसे गर्जना की। उस शब्दको सुनकर भगवान् गोविन्द हाथमें तलवार लिये हुए उस बिलमें घुस गये। वहाँ उन्होंने उन महाबली रीछराज जाम्बवान्को देखा। तब जिनके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये थे, उन हृषीकेश श्रीकृष्णने शीघ्र ही रीछराज जाम्बवान्को वेगपूर्वक | अपने वशमें कर लिया। उस समय राजने विष्णुसम्बन्धी स्तोत्रोंद्वारा उन प्रभुका स्तवन किया। उससे संतुष्ट होकर भगवान् श्रीकृष्णने जाम्बवान्को भी वरप्रदानद्वारा प्रसन्न कर दिया ॥ 1-14 ॥
जाम्बवान्ने कहा- प्रभो! मेरी अभिलाषा है कि मैं आपके चक्र-प्रहारसे मृत्युको प्राप्त होऊँ। यह मेरी सौन्दर्यशालिनी कन्या आपको पतिरूपमें प्राप्त करे। प्रभो! यह मणि, जिसे मैंने प्रसेनको मारकर प्राप्त किया है, | आपके ही पास रहे। तत्पश्चात् सामर्थ्यशाली एवं महाबाहु श्रीकृष्णने अपने चक्रसे उन जाम्बवान्का वध करके कृतकृत्य हो कन्यासहित मणिको ग्रहण कर लिया। घर लौटकर भगवान् जनार्दनने समस्त सात्वतोंकी भरी सभामें वह मणि सत्राजितको समर्पित कर दी क्योंकि वे उस मिथ्यापवादसे अत्यन्त दुःखी थे। उस समय सभी यदुवंशियोंने वसुदेव नन्दन श्रीकृष्णसे यों कहा 'श्रीकृष्ण ! हमलोगोंका तो यह दृढ़ निश्चय था कि प्रसेन तुम्हारे ही हाथों मारा गया है।केकयराजकी दस सौन्दर्यशालिनी कन्याएँ सत्राजित्को पत्त्रियाँ थीं। उनके गर्भ से सत्राजित्के एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो विश्वविख्यात, प्रशंसित एवं महान् पराक्रमी थे। उनमें भंगकार ज्येष्ठ था। उस ज्येष्ठ भंगकारके संयोगसे तवतीने तीन कमलनयनी सुकुमारी कन्याओंको जन्म दिया। उनके नाम हैं- स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ सत्यभामा, दृढव्रतपरायणा व्रतिनी तथा पद्मावती भंगकारने इन तीनोंको पत्नीरूपमें श्रीकृष्णको प्रदान किया था। कनिष्ठ वृष्णिनन्दन अनमित्रसे शिनिका जन्म हुआ। उसका पुत्र सत्यक और सत्यकका पुत्र सात्यकि हुआ। सत्यवान् और प्रतापी युयुधान—ये दोनों शिनिके नाती थे। युयुधानका पुत्र असंग और उसका पुत्र धुनि हुआ। द्युनिका पुत्र युगंधर हुआ। इस प्रकार यह शिनि- वंशका वर्णन किया गया । ll 15 - 233 ॥
अब मैं वृष्णिवंशमें उत्पन्न अनमित्रके वंशका वर्णन कर रहा हूँ। अनमित्रकी दूसरी पत्नी पृथ्वीके गर्भसे वीरवर युधाजित् पैदा हुए। उनके वृषभ और क्षत्र नामवाले दो अन्य शूरवीर पुत्र थे। वृषभने काशिराजकी जयन्ती नामकी कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त (ग्रहण) किया। उन्हें उस जयन्तीके गर्भसे जयन्त नामक अत्यन्त सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ, जो सदा यज्ञानुष्ठानमें निरत रहनेवाला, महान् शूरवीर, शास्त्रज्ञ तथा अतिथियोंका प्रेमी था। उससे अक्रूर नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। वह भी आगे चलकर सदा पानशील और विपुल दक्षिणा देनेवाला हुआ। शिवि नरेशकी एक रत्ना नामकी कन्या थी, जिसे अक्रूरने पत्नीरूपमें प्राप्त किया और उसके गर्भसे ग्यारह महाबली पुत्रोंको उत्पन्न किया। उनके नाम इस प्रकार हैं- उपलम्भ, सदालम्भ, वृकल, वीर्य, सविता, सदापक्ष, शत्रुघ्न, वारिमेजय धर्मभृद्, धर्मवर्मा और धृष्टमान। रत्नाके गर्भ से उत्पन्न हुए ये सभी पुत्र यज्ञादि शुभ कर्म करनेवाले थे। अक्रूरके संयोगसे उग्रसेनाके गर्भसे देववान् और उपदेव नामक दो पुत्र और उत्पन्न हुए थे, जो देवताके सदृश शोभाशाली और वंश विस्तारक थे। उन्होंको दूसरी पत्नी अश्विनीके गर्भसे पृभु विष्णु अश्वत्थामा, सुबाहु सुपरक गवेषण, वृष्टिनेमि, सुधर्मा, शर्याति, अभूमि, वर्जभूमि, श्रमिष्ठ तथा श्रवण-ये तेरह पुत्र भी पैदा हुए थे। जो मनुष्य श्रीकृष्णके शरीर से हटाये गये इस मिथ्यापवादको जानता है, वह किसीके भी द्वारा मिथ्याभिशापसे अभिशप्त नहीं किया जा सकता ॥ 24- 34 ॥