सूतजी कहते हैं-ऋषियो! तदनन्तर नारदजी रिपुरये लौटकर पुनः स्थल देवताओंकी सेना सम्मिलित हो गये। वे स्वयं देव सभामें उपस्थित हुए। इलावृत्त नामसे विख्यात विस्तृत वर्ष, जहाँ बलिका यज्ञ सम्पन्न हुआ था तथा जहाँ बलि बाँधे गये थे, तीनों लोकोंमें देवताओंकी जन्मभूमिके रूपमें प्रसिद्ध है। उसी इलावृत्तमें देवताओंके जातकर्म आदि संस्कार तथा यज्ञ और कन्यादान आदि कर्म सम्पन्न हुए हैं। यहाँ भगवान् शङ्कर अपने पार्षदगणोंको साथ लेकर नित्य विहार करते हैं। यहाँ लोकपालगण मेरुगिरिकी तरह सदा निवास करते हैं। इसी स्थानपर जिनके नेत्र मधुके समान पीले रंगके हैं तथा जो द्वितीयाके चन्द्रमाको भूषणरूपमें धारण करते हैं, उन्हीं भगवान् महेश्वरने देवराज इन्द्र और अपने गणेश्वरोंसे इस प्रकार कहा— 'इन्द्र! तुम्हारे शत्रुओंका यह त्रिपुर दिखायी पड़ रहा है। यह विमानों, पताकाओं और ध्वजोंसे सुशोभित है। यह सुदृढ़ है तथा इसके विषयमें ऐसी प्रसिद्धि है कि यह अग्निकी तरह अत्यन्त तापदायक है। इसके निवासी दानव किरोट-कुण्डल धारण किये उन्हीं पर्वतके समान दीख रहे हैं। इन दानवोंकी अङ्ग कान्ति बादलकी-सी है और इनके मुख टेढ़े-मेढ़े हैं। ये सभी परकोटों, फाटकों और अट्टालिकाओंपर तथा कक्षान्तमें स्थित हैं। (वह देखो ) वे सभी दैत्य विजयकी अभिलाषासे हथियारोंसे सुसज्जित हो नगरसे बाहर निकल रहे हैं। इसलिये तुम सहायकों सहित अपना श्रेष्ठ अस्त्र वज्र लेकर सैकड़ों देवताओं तथा मेरे भृत्योंके साथ आगे बढ़कर इन महासुरोंका संहार करो। मैं इस श्रेष्ठ रथपर निश्चल पर्वतकी तरह स्थित रहकर तुमलोगोंको विजयके लिये त्रिपुरके सम्मुख उसके छिद्रकी खोजमें खड़ा रहूँगा। वासव! जब पुष्य नक्षत्रके योगके साथ ये तीनों पर एक स्थानपर स्थित होंगे, तब मैं एक ही बाणसे इन्हें दग्ध कर डालूँगा' ॥ 1-12 ॥भगवान् रुद्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर देवराज इन्द्र उस विशाल सेनाके साथ उस त्रिपुरको जीतने के लिये आगे बढ़े। चलते समय देवताओं और पार्षदगणोंके रथोंसे भीषण शब्द हो रहा था और वे सभी मेघकी गर्जनाके समान सिंहनाद कर रहे थे। उस शब्दको सुनकर दानवगण युद्धकी लालसासे अस्त्र लेकर त्रिपुरसे बाहर निकले और आकाशमें छलाँग मारते हुए गणेश्वरोंपर टूट पड़े। उनमें कुछ अन्य उद्दण्ड दानव, जो काले मेघके समान शोभा पा रहे थे, मेघकी तरह गर्जना कर रहे थे और सिंहनाद करते हुए बाजा बजा रहे थे। उस समय दैत्योंके सिंहनादसे देवताओंका सिंहनाद और सभी प्रकारके तुरही आदि बाजोंका महान् शब्द उसी प्रकार अभिभूत हो गया, जैसे बादलोंके बीच चन्द्रमा छिप जाते हैं। जैसे चन्द्रमाके उदय होनेपर पूर्णिमा तिथिको समुद्र वृद्धिगत हो जाता है, वैसे ही उन भयंकर रूपवाले महान् असुरोंसे त्रिपुर उद्दीप्त हो उठा। उस पुरमें कुछ दानव परकोटोंपर तथा कुछ फाटकों और | अट्टालिकाओंपर चढ़कर 'चलो, निकलो' ऐसा कहकर ललकार रहे थे। कुछ शूर-वीर दानव सुन्दर एवं श्रेष्ठ वस्त्र धारण किये हुए थे, उनके गलेमें स्वर्णकी जंजीर शोभा पा रही थी और वे जलसे भरे हुए बादलकी भाँति सिंहनाद कर रहे थे। कुछ वस्त्र फहराते हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे और घरपर आकर परस्पर एक-दूसरेसे पूछ रहे थे—'यह क्या हो रहा है?' (दूसरा उत्तर देता था कि) 'क्या हो रहा है, यह तो मैं नहीं जानता; क्योंकि उसकी जानकारी मुझसे छिपी हुई है। कुछ समयके बाद तुम्हें भी ज्ञात हो जायगा। अभी तो बहुत समय शेष है। (देखो न) वहाँ पृथ्वीके सारभूत रथपर बैठा हुआ वह जो सिंह खड़ा है, वह त्रिपुरको उसी प्रकार पीड़ा दे रहा है, जैसे बड़ी हुई व्याधि शरीरको कष्ट देती है। वह जो हो, सो रहे ऐसे हलचलके उपस्थित होनेपर चिन्ता करना व्यर्थ है। अब हथियार लेकर मैदानमें आ जाओ, फिर मुझसे पूछनेकी आवश्यकता नहीं रह जायगी।' उसी समय त्रिपुरनिवासी दानव परस्पर एक-दूसरेको पकड़कर इसी प्रकार पूछते थे और परस्पर उत्तर प्रत्युत्तर देते थे ॥ 13–25 ॥
इधर तारकाक्षपुरके निवासी दैत्य क्रोधसे भरे हुए तारकाक्षको आगे करके तुरंत नगरसे उसी प्रकार बाहर निकले, मानो बिलसे विषधर सर्प निकल रहे हों।बाहर निकलकर उन दैत्योंने देवसेनापर धावा बोल दिया, परंतु प्रधानोंके सूथपतियोंने उन्हें ऐसा रोक दिया, जैसे सिंहसमूह गजराजोंके दलको स्तम्भित कर देते हैं। उन गर्वोले दानवोंका रूप तो यों ही (क्रोधके कारण) अग्निकी तरह उद्दीत हो उठा था, इधर रोक दिये जानेपर वे धाँकी जाती हुई आगकी तरह जल उठे। फिर तो सब ओर भयंकर सिंहनाद होने लगा। दानवगण बड़े-बड़े धनुषपर प्रत्यचा चढ़ाकर प्राण हरण करनेवाले वाणोंद्वारा एक दूसरेपर प्रहार करने लगे। प्रमथगणोंमें किन्हींके मुख बिलाव और किन्हींके मृगके समान भयंकर थे तथा किन्हींके मुख टेढ़े-मेढ़े थे। उन्हें देख-देखकर ठहाका मारकर सौन्दर्यशाली दानव हँसने लगे। परिधकी-सी आकारवाली भुजाओंद्वारा खींचे जाते हुए धनुषोंसे छूटे हुए बाण योद्धाओंके कवचोंमें उसी प्रकार घुस जाते थे, जैसे पक्षी तालाबों में प्रवेश करते हैं। उस समय दानवगण | पार्षदयूथपतियोंको ललकारकर कह रहे थे— 'अरे! अब तो तुमलोग मरे ही हो। हमारे हाथोंसे छूटकर कहाँ जाओगे! लौट आओ। हमलोग तुम्हें मार डालेंगे।' ऐसी कठोर बातें कहकर वे अपने तीखे बाणोंसे उन्हें इस प्रकार विदीर्ण कर रहे थे, जैसे सूर्यको किरणें बादलोंको | भेदकर पार कर जाती हैं। उधरसे सिंहके समान पराक्रमी एवं सिंह सदृश नेत्रोंवाले प्रमथगण भी शिलाओं, शिलाखण्डों और वृक्षोंके प्रहारसे दैत्यों और दानवोंको चूर्ण-सा कर दे रहे थे। उस समय बादलोंसे आच्छादित एवं हंसोंसे व्याप्त आकाशकी तरह वह सारा पुर दानवोंसे व्याप्त होकर अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। जैसे इन्द्र-धनुषसे चिह्नित मध्यभागवाले बादल जलकी वृष्टि कर दुर्दिन (मेघाच्छन्न दिवस) उत्पन्न कर लेते हैं, उसी प्रकार दैत्येन्द्रगण अपने धनुषोंकी प्रत्यञ्चाको कानतक खींचकर बाणोंकी वर्षा कर अन्धकार उत्पन्न कर रहे थे। दानवोंके बाणोंसे बारम्बार घायल होनेके कारण गणेश्वरोंके शरीरोंसे रक्तकी धार बह रही थी, जो ऐसी प्रतीत होती थी, मानो पर्वतोंसे सुवर्णधातु निकल रही हो। उधर गणेश्वरोंद्वारा चलाये गये वृक्ष, शिला, वज्र, शूल, पटा और कुठारके प्रहारसे दैत्यगण ऐसे चूर-चूर कर दिये जा रहे थे जैसे कुल्हाड़ी या छेनीके प्रहारसे काच छिन्न-भिन्न हो जाता है। उधर दैत्यगण 'यह देखो, तारकाक्ष जीत रहा है'-ऐसी घोषणा कर रहे थे। तभी इधरसे गणेश्वर सिंहनाद करते हुए बोल रहे थे—'देखो-देखो, इन्द्र और रुद्र विजयी हो रहे हैं' ॥ 26-38 ॥उन दोनों सेनाओंमें बाणोंद्वारा रोके एवं घायल किये गये वीर इतने जोरसे सिंहनाद कर रहे थे जैसे वर्षाकालमें जलसे भरे हुए बादल गरजते हैं। कटे हुए हाथों, मस्तकों, पीले रंगकी पताकाओं और छत्रोंसे तथा मांस और रुधिरसे भरी हुई युद्धभूमि बड़ी भयावनी लग रही थी। दानव तथा प्रमथगण उत्तम अस्त्र धारण कर | पहले तो सहसा ताड़-वृक्षकी ऊँचाई बराबर आकाशमें उछल पड़ते थे और पुनः सुदृढ़रूपसे घायल होकर भूतलपर गिर पड़ते थे। गगनमण्डलमें स्थित सिद्ध, अप्सरा और चारणोंके समूह (दानवोंपर) सुदृढ़ प्रहार होनेसे हर्षित होकर 'ठीक है, ठीक है' ऐसा कहते हुए चिल्लाने लगते थे। उस समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बिना चोट किये ही बज रही थीं। उनसे मेघकी गर्जना तथा क्रुद्ध हुए शरभ (अष्टपदी) - की दहाड़के समान शब्द हो रहे थे। दैत्यगण उस त्रिपुरमें इस प्रकार प्रविष्ट हो रहे थे जैसे नदियाँ समुद्रमें और क्रुद्ध मुखवाले सर्प बिमवटमें प्रवेश करते हैं। इधर अस्त्रधारी, शूरवीर देवगण तारकाक्षके उस नगरके ऊपर चारों ओर इस प्रकार छाये हुए थे, मानो पंखधारी पर्वत मँडरा रहे हों। गणेश्वर त्रिपुरमें तीन भागों में विभक्त होकर युद्ध कर रहे थे। उस समय विद्युन्माली और मय- ये दोनों युद्धस्थलमें वृक्षकी भाँत डटे हुए थे। इसी बीच हिमालय-तुल्य कान्तिमान् दैत्येन्द्र विद्युन्मालीने अपना भयंकर परिघ उठाकर नन्दीपर प्रहार किया। दानवेन्द्रके उस परिघके आघातसे नन्दी विशेषरूपसे घायल हो गये और वे ऐसा चक्कर काटने लगे, जैसे पूर्वकालमें दैत्यराज मधुके प्रहारसे अव्यक्तस्वरूप भगवान् नारायण भ्रमित हो गये थे । ll 39-48 ॥
नन्दीश्वरके घायल होकर रणभूमिसे हट जानेपर विख्यातपराक्रमी घण्टकर्ण, शङ्कुकर्ण और महाकाल आदि प्रधान पार्षदगण क्रुद्ध होकर एक साथ राक्षस विद्युन्मालीके ऊपर टूट पड़े। तब विद्युन्मालीने उन सभी गणेश्वरोंको जो गणेश सदृश आकृतिवाले तथा गणेश्वरोंमें प्रधान थे, लगातार बींधना आरम्भ किया। वह उन्हें घायल करके इतने उच्च स्वरसे सिंहनाद करता था मानो आकाशमें बादल गरज रहे हों। उसके उस सिंहनादसे सूर्य सरीखे प्रभाशाली नन्दीको मूर्च्छ भंग हो गयी, तब वे भी विद्युन्मालीपर चढ़ धाये।उस समय उन्होंने रुद्रद्वारा दिये गये एवं प्रज्वलित अग्रिके समान प्रभाशाली चमकते हुए वज्रको वज्रतुल्य कठोर शरीरवाले दानवके ऊपर चला दिया। तब नन्दीके हाथसे छूटा हुआ मोतियोंसे विभूषित वह भयंकर व विद्युन्मालीके वक्ष:स्थलपर जा गिरा। फिर तो वज्रके समान ठोस शरीरवाला दैत्य विद्युन्माली उस वज्रसे आहत होकर उसी प्रकार धराशायी हो गया, मानो इन्द्रके प्रहारसे पर्वत गिर पड़ा हो। अपने कुल (वर्ग) को आनन्दित करनेवाले नन्दीद्वारा दैत्यराज विमलीको मारा गया देखकर दानवलोग चीत्कार करने लगे। तब गणेश्वरोंने उनपर धावा बोल दिया। विद्युन्मालीके मारे जानेपर दानव दुःख और अमर्षके कारण क्रोधसे भरे हुए थे। वे गणेश्वरोंके ऊपर बादलकी भाँति वृक्षों और पर्वतोंकी महान् वृष्टि करने लगे। विशाल पर्वतोंके प्रहारसे पीड़ित हुए सभी गणेश्वर ऐसे किंकर्तव्यविमूढ हो गये, जैसे अधार्मिक जन वन्दनीय गुरुजनोंके प्रति हो जाते हैं। तदनन्तर असुरनायक प्रतापी श्रीमान् तारकाक्ष वृक्षों एवं पर्वतोंके समान रूप धारण करके रणभूमिमें उपस्थित हुआ ॥ 49-60 ॥
उस समय बहुतेरे गणेश्वरोंके मस्तक फट गये थे, किन्हीके पैर टूट गये थे और कुछके मुखोंपर घाव लगा था। वे सभी मन्त्रोंद्वारा रोके गये सर्पकी तरह शोभा पा रहे थे। मायावी मयद्वारा मारे जाते हुए गणेश्वर पिंजरे में बंद पक्षीकी तरह अनेकों प्रकारका शब्द करते हुए चक्कर काट रहे थे। तत्पश्चात् असुरश्रेष्ठ प्रतापी श्रीमान् तारकाक्षने पार्षदोंकी सारी सेनाको उसी प्रकार जलाना प्रारम्भ किया, जैसे आग सूखे इन्धनको जला देती है। तारकाक्ष बाणोंकी वर्षा करके पार्षदगणोंको रोक देता था। इस प्रकार मयकी माया और तारकाक्षके बाणोंद्वारा गणेश्वर मारे जा रहे थे ये वाले वृक्षोंकी तरह व्याकुल हो गये। पुनः मयने अपनी मायाके बलपर शत्रुओंके ऊपर अग्निकी वर्षा की तथा ग्रह, मकर, सर्प, विशाल पर्वत, सिंह, बाघ, वृक्ष, काले हिरन और आठ पैरोंवाले शरभों (गैंडों) को भी गिराया, जलकी घनघोर वृष्टि की और झंझावातका भी प्रकोप उत्पन्न किया। इस प्रकार तारकाक्ष और मयकी मायासे मोहित होकर वे गणेश्वर मनसे भी चेष्टा करनेमें असमर्थ हो गये। वे ऐसे निरुद्ध हो गये जैसे मुनियोंद्वारा रोके गये इन्द्रियोंकि विषयउस समय प्रमथगण जल और अग्रिकी महान् वृष्टि, हाथी, सर्प, सिंह, व्याघ्र, रीछ, चीते और राक्षसोंद्वारा सताये जा रहे थे। मायाका इतना घना अन्धकार प्रकट हुआ, जिसमें वे ऐसे विमोहित हो गये, जैसे समुद्रके मध्यमें जलकी थाह लगानेवाले विमूढ़ हो जाते हैं। इस प्रकार गणेश्वर पीड़ित किये जा रहे थे और दानवगण सिंहनाद कर रहे थे। इसी बीच प्रधान प्रधान देवता अस्त्र धारणकर गणेश्वरोंकी रक्षा करनेके लिये शत्रुसेनामें प्रविष्ट हुए। उस अवसरपर गदाधारी यमराज, वरुण, भास्कर, एक करोड़ देवताओंके साथ कुमार कार्तिकेय, श्वेत हाथी ऐरावतपर सवार हो हाथमें वज्र लिये हुए स्वयं देवराज इन्द्र, चन्द्रमा और अपने पुत्र शनैश्चरके साथ सूर्य तथा अन्तकसहित परम तेजस्वी त्रिलोचन रुद्र- ये सभी मदोद्धत देवता उत्कृष्ट बलवानों द्वारा सुरक्षित शत्रुओंकी सेनामें प्रविष्ट हुए। जिस प्रकार मतवाले गजेन्द्र वनमें, बादलोंसे घिरे हुए आकाशमें सूर्य और निर्जन स्थानमें स्थित गोष्ठमें सिंह प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार देवताओंने उस सेनापर धावा बोल दिया। फिर तो पार्षदगणोंने शस्त्रप्रहार करके दानवोंको ऐसा व्याकुल और दीन कर दिया कि उनका वह विशाल सेना- व्यूह उसी प्रकार छिन्न-भिन्न हो गया जैसे स्वर्गीय ज्योति पुञ्जोंके महान् ज्योति उष्णरश्मि सूर्य मनुष्योंके अन्धकारका विनाश कर देते हैं तथा चन्द्रमा रात्रिके घने अन्धकारका प्रशमन कर देते हैं । ll 61-733 ॥
तदनन्तर अन्धकारका प्रभाव नष्ट हो जाने और अस्त्रका प्रभाव बढ़नेपर दिक्पालों, लोकपालों और गणनायकोंने दो घड़ीतक महान् सिंहनाद किया। फिर तो वे युद्धमें दानवोंको विदीर्ण करने लगे। वहाँ किन्होंके हाथ कट गये तो किन्हींके पैर खण्डित हो गये, किन्हींके मस्तक कट गये तो किन्हींके शरीर बाणोंसे घिर गये। इस प्रकार देवत्रेष्ठद्वारा घायल किये गये दानव ऐसा कष्ट पा रहे थे, जैसे दलदलमें फँसे हुए गजराज विवश हो जाते हैं। उस समय वज्रपाणि इन्द्र अपने भयंकर | वज्रसे, मयूरध्वज स्वामिकार्तिक शक्तिपूर्वक अपनी शक्तिसे,धर्मराज अपने भयंकर दण्डसे, वरुण अपने उम्र पाससे और पराक्रम एवं तेजसे सम्पन्न सुन्दर बालपाले यक्षराज कुबेर अपने काल सदृश शूलसे प्रहार कर रहे थे। देवताओंके समान तेजस्वी एवं पूर्णाहुति से सिक्त हुई अग्निके समान प्रकाशमान गणेश्वर दानववृन्दपर उसी प्रकार झपटते थे मानो बिजलियाँ गिर रही हो। तत्पश्चात् मयने देवताओंकी रक्षामें तत्पर पार्वती नन्दन एवं तारका-पुत्र सर्वश्रेष्ठ कुमार कार्तिकेयको बाणसे घायल कर तारकाक्षसे कहा- 'दैत्येन्द्र! हमलोगोंके शरीर शस्त्रोंके आधातसे क्षत-विक्षत हो गये हैं तथा हमारे शस्त्रास्त्र, ध्वज, कवच और वाहन आदि भी छिन्न-भिन्न हो गये हैं। इधर गणेश्वरों तथा लोकनायक देवोंके मनमें जयकी अभिलाषा विशेषरूपसे जागरूक हो उठी है, साथ ही वे विजयी भी हो रहे हैं, अतः अब मैं इस वीरपर प्रहार करके सेनासहित नगरमें प्रवेश कर जाता हूँ और वहाँ कुछ देर विश्राम कर शक्ति सम्पन्न होकर पुनः अनुचरोंसहित युद्ध करूँगा।' मयकी ऐसी बात सुनकर उसका पालन करता हुआ रुधिर सरीखे लाल नेत्रोंवाला तारकाक्ष तुरंत ही | आकाशमार्गसे दिति पुत्रोंके साथ त्रिपरमें प्रवेश कर गया। उस समय देवगण रणभूमिमें हर्षके मारे उछल पड़े। फिर तो मयका पीछा करते हुए भगवान् शकंरके सैनिक विशेष शोभा पा रहे थे। उनके शङ्ख, नगाड़े और भेरियाँ बजने लगीं तथा वे सिंहनाद करने लगे। उस समय ऐसा भीषण शब्द हो रहा था मानो हिमालय पर्वतकी भयंकर एवं गहरी | गुफामें गजराज और सिंह दहाड़ रहे हों ॥ 74–83 ॥