भगवान् शंकरने कहा-नारदजी! इसके पश्चात् मैं | परमोत्तम शर्कराशैलका वर्णन कर रहा है जिसका दान करनेसे भगवान् विष्णु, रुद्र और सूर्य सदा संतुष्ट रहते हैं। आठ भार शक्करसे बना हुआ शर्कराचल उत्तम, चार भारसे बना हुआ मध्यम और दो भारसे बना हुआ अधम कहा गया है। जो मानव स्वल्प सम्पत्तिवाला हो, वह एक भार अथवा आधे भारसे भी शर्कराचल बनवा सकता है। प्रधान पर्वतके चतुर्थांशले विष्कम्भपर्वतोंका भी निर्माण करना चाहिये। पुनः धान्यपर्वतकी तरह सारी सामग्री प्रस्तुत करके | मेरुपर्वतकी भाँति इसके ऊपर भी स्वर्णमयी देवमूर्तिके साथमन्दार, पारिजात और कल्पवृक्ष- इन तीनों वृक्षोंकी भी स्वर्णनिर्मित मूर्ति स्थापित करे। इन तीनों वृक्षोंको तो प्रायः सभी पर्वतोंपर स्थापित कर देना चाहिये। सभी पर्वतकि | पूर्व और पश्चिम भागमें हरिचन्दन और कल्पवृक्षको निविष्ट करना चाहिये। शर्कराचलमें तो इसका विशेषरूपसे ध्यान रखना चाहिये। मन्दराचलपर कामदेवकी मूर्ति सदा पश्चिमाभिमुखी, गन्धमादनके शिखरपर कुबेरको मूर्ति उत्तराभिमुखो, विपुलाचलपर वेदमूर्ति ब्रह्मा और हंसकी मूर्ति पूर्वाभिमुखी और सुपार्श्व पर्वतपर स्वर्णमयी गौकी मूर्ति दक्षिणाभिमुखी होनी चाहिये ॥ 1-83 ll
तत्पश्चात् आवाहन आदि सारा विधान धान्यपर्वतकी भाँति करके अन्तमें इन वक्ष्यमाण मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए विचला प्रधान पर्वत गुरुको और चारों विष्कम्भपर्वत ऋत्विजोंको दान कर दे। (वे मन्त्र इस प्रकारके अर्थवाले हैं-) 'शैलेन्द्र! यह शक्करद्वारा निर्मित पर्वत सौभाग्य और अमृतका सार है, इसलिये तुम मेरे लिये सदा आनन्दकारक होओ। शर्कराचल ! देवताओंके अमृत पान करते समय जो बूँदें भूतलपर टपक पड़ी थीं, उन्होंसे तुम्हारी उत्पत्ति हुई है। अत: तुम हमारी रक्षा करो महाशैल चूँकि शर्करा कामदेवके धनुषके मध्यभागसे प्रादुर्भूत हुई है और तुम शर्करामय हो, इसलिये संसारसागरसे मुझे बचाओ' जो मनुष्य उपर्युक्त विधिके अनुसार शर्कराशशैलका दान करता है, वह समस्त पापोंसे विमुक्त होकर परमपदको प्राप्त हो | जाता है। यहाँ वह भगवान् विष्णुको आज्ञासे अपने आश्रितोंके साथ ही सूर्य, चन्द्र और तारकाओंके समान कान्तिमान् विमानपर आरूढ़ होकर सुशोभित होता है 1 पुनः सौ कल्पोंके बाद तीन अरब जन्मोंतक भूतलपर दीर्घायु और नीरोगतासे युक्त होकर सातों द्वीपोंका अधिपति होता है। सभी पर्वतदानोंमें मत्सररहित होकर अपनी शक्तिके अनुसार भोजन करनेका विधान है। सर्वत्र गुरुकी आज्ञासे अपनी शक्तिके अनुकूल क्षार (नमक) - रहित भोजन करना चाहिये। पुनः पर्वतदानकी सारी सामग्री ब्राह्मणके घर स्वयं भेजवा देनी चाहिये ॥ 9-16 ।।
ईश्वरने कहा-नारद! पहले बृहत्कल्पमें धर्ममूर्ति | नामक एक राजा हुआ था। उसके तेजके सामने सूर्य और चन्द्रमा आदि भी कान्तिहीन हो जाते थे। वह | इन्द्रका मित्र था। उसने हजारों दैत्योंका वध किया था।वह इच्छानुकूल रूप धारण करनेवाला मनुष्य होनेपर भी किसीसे परास्त नहीं हुआ था, अपितु उसके द्वारा सैकड़ों शत्रु पराजित हो चुके थे। उसकी पत्नीका नाम भानुमती था। वह त्रिलोकीमें सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी थी। उसने लक्ष्मीके समान अपने दिव्य रूपसे देवाङ्गनाओंको भी पराजित कर दिया था। वह दस हजार नारियोंके बीचमें लक्ष्मीकी तरह सुशोभित होती थी। राजा धर्ममूर्तिको वह पटरानी उसे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय थी। उसे असंख्य राजा सदा घेरे रहते थे। एक बार सभामण्डपमें आये हुए अपने पुरोहित महर्षि वसिष्ठसे उस राजाने विस्मयविमुग्ध हो ऐसा प्रश्न किया ।। 17–21 ll
राजाने पूछा-भगवन्! किस धर्मके प्रभावसे मुझे सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई है? तथा किस धर्मके फलस्वरूप मेरे शरीरमें सदा प्रचुरमात्रामें उत्तम तेज विराजमान रहता है? ॥ 22 ll
वसिष्ठजीने कहा- राजन्! पूर्वकालमें लीलावती नामकी एक वेश्या थी। वह शिवजीको भक्ता थी। उसने चतुर्दशी तिथिके दिन विधिपूर्वक अपने गुरुको स्वर्णमय वृक्ष आदि उपकरणोंसहित लवणाचलका दान किया था। उन दिनों लीलावतीके घर एक शूद्रजातीय शौण्ड नामक सोनार नौकर था। भूपाल। उसने ही श्रद्धापूर्वक सुवर्णद्वारा वृक्षों और प्रधान देवताओंकी मूर्तियोंका निर्माण किया था। उसने बिना कुछ पारिश्रमिक लिये उन मूर्तियोंको गढ़कर अत्यन्त सुन्दर बनाया था और यह धर्मका कार्य है-ऐसा जानकर किसी भी प्रकारका कुछ वेतन भी नहीं लिया था। पृथ्वीपते। उस स्वर्णकारकी पत्नीने भी उन सुवर्णनिर्मित देवों एवं वृक्षोंकी मूर्तियोंको रगड़कर चमकीला बनाया था और लीलावतीके पर्वत दानमें बड़ी परिचर्या की थी। उन दोनोंकी सहायतासे लीलावतीने गुरु-शुश्रूषा आदि कार्योंको सम्पन्न किया था। नारद! अधिक कालके व्यतीत होनेपर वह वेश्या लीलावती कर्मयोगके अनुसार जब कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुई, तब समस्त पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकको चली गयी। वह सोनार, जो दरिद्र होते हुए भी अत्यन्त सामर्थ्यशाली था और जिसने वेश्यासे कुछ भी मूल्य नहीं लिया था, इस समय इस जन्ममें तुम हो,जो दस हजार सूर्योके समान कान्तिमान् और सातों | द्वीपोंके अधीश्वररूपसे उत्पन्न हुए हो सोनारकी जिस पत्नीने स्वर्णनिर्मित वृक्षों एवं देव मूर्तियोंको अत्यन्त चमकोला बनाया था, वही यह भानुमती तुम्हारी पटरानी है ।। 23-30 ॥
मूर्तियों को उज्वल करनेके कारण इसे इस जन्ममें सुन्दर गौरवर्णका शरीर और भुवनेश्वरीका पद प्राप्त हुआ है। चूंकि तुम दोनोंने दत्तचित्त होकर रात्रिमें लवणाचलके दान प्रसंगमें सहायक रूपसे कर्म किया था, इसीलिये तुम्हें लोकमें अजेयता नीरोगता और सौभाग्यसम्पन्नता लक्ष्मीको प्राप्ति हुई है। इस कारण तुम भी इस जन्ममें विधानपूर्वक दस प्रकारके धान्याचल आदि पर्वतोंका दान करो तब राजा धर्ममूर्तिने तथेति ऐसा ही करूँगा' कहकर वसिष्ठजीके वचनोंका आदर किया और सैकड़ों बार धान्याचल आदि सभी पर्वतोंका दान किया, जिसके फलस्वरूप देवगणोंद्वारा पूजित होकर भगवान् मुरारिके लोकको प्राप्त हुआ। निर्धन मनुष्य भी यदि उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक इन पर्वत दानोंको देखता है, मनुष्यों द्वारा दान करते समय उनका स्पर्श कर लेता है, उनकी कथाएँ सुनता है और उन्हें करनेके लिये सम्मति देता है तो वह भी पापरहित होकर स्वर्गलोकको चला जाता है। मुनिपुंगव ! जब इस लोकमें मनुष्यद्वारा भव-भयको विदीर्ण करनेवाले इन शैलेन्द्रोंके प्रसङ्गका पाठ करनेसे दुःस्वप्र शान्त हो जाते हैं, तब जो मनुष्य स्वयं शान्तचित्तसे विधिपूर्वक इन सम्पूर्ण पर्वतदानोंको करता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है ? ॥ 31-35 ॥