ईश्वरने कहा-ब्रह्मन् ! अब मैं उसी प्रकार पापनाशिनी
शर्करासप्तमीका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका अनुष्ठान करनेसे मनुष्यको अनन्त आयु, आरोग्य और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है। व्रतनिष्ठ पुरुष वैशाखमासमें शुक्लपक्षको सप्तमी तिथिको प्रातःकाल श्वेत तिलोंसे युक्त जलसे स्नान करके वेत पुष्पोंकी माला और श्वेत चन्दन धारण कर ले। फिर | वेदोपर कुङ्कुमसे कर्णिकासहित कमलका चित्र बनावे। उसपर 'सवित्रे नमः' कहकर गन्ध और धूप निवेदित करे। फिर उसपर शकरसे परिपूर्ण पात्रसहित जलपूर्ण कलश स्थापित करे, उसपर स्वर्णमयी मूर्ति रख दे और उसे श्वेत वस्त्रसे सुशोभित करके श्वेत पुष्पमाला और चन्दनद्वारा वक्ष्यमाण मन्त्रके उच्चारणपूर्वक पूजन करे। ( वह मन्त्र इस प्रकार है) 'सूर्यदेव! विश्व और वेद आपके स्वरूप हैं, आप वेदवादी कहे जाते हैं और सभी प्राणियोंके लिये अमृततुल्य फलदायक हैं, अतः मुझे शान्ति प्रदान कीजिये। तत्पश्चात् पञ्चगव्य पान कर उसी कलशके पार्श्वभाग में भूमिपर शयन करे। उस समय सूर्यसूक्तका जप अथवा पुराणका श्रवण करते रहना चाहिये। इस प्रकार दिन-रात बीत जानेपर अष्टमीके दिन प्रातः काल नित्यकर्मसे निवृत्त होकर पहलेको तरह वह सारा सामान | वेदज्ञ ब्राह्मणको दान कर दे। पुनः अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको शक्कर, घी और दूधसे बने हुए पदार्थ भोजन करावे और स्वयं भी मौन रहकर तेल और नमकसे रहित पदार्थोंका भोजन करे। इसी विधिसे प्रत्येक मासमें सारा कार्य करना चाहिये। एक वर्ष व्यतीत हो जानेपर शकरसे पूर्ण कलशसमेत समग्र उपकरणोंसे युक्त शय्या तथा एक दुधारू गौ दान करनेका विधान है। व्रती यदि धन | सम्पत्तिसे युक्त हो तो उसे समस्त उपकरणोंसे युक्त गृहका भी दान करना चाहिये। तदनन्तर अपनी सामर्थ्यके अनुकूल एक हजार अथवा एक सौ अथवा पाँच निष्क (सोलह माशेका एक निष्क होता है जिसे दीनार भी कहते हैं।)सोनेका एक घोड़ा बनवाकर पहलेकी ही भाँति मन्त्रोच्चारणपूर्वक दान करना चाहिये। इसमें कृपणता न करे, यदि करता है तो दोषभागी होना पड़ता है ॥ 1-12 ॥
अमृत पान करते समय सूर्यके मुखसे जो अमृतबिन्दु भूतलपर गिर पड़े थे, वे ही शालि (अगहनी धान), मूँग और ईख नामसे कहे जाते हैं। इनमें ईखका सारभूत शक्कर अमृततुल्य सुस्वादु है, इसलिये यह तीनोंमें श्रेष्ठ है। इसी कारण यह पुण्यवती शर्करा सूर्यके हव्य एवं कव्य—- दोनों हवनीय पदार्थोंमें उन्हें अत्यन्त प्रिय है। यह शर्करासप्तमी अश्वमेध यज्ञके समान फलदायिनी, समस्त दुष्ट ग्रहोंको शान्त करनेवाली और पुत्र-पौत्रोंकी प्रवर्धिनी है। जो मानव उत्कृष्ट श्रद्धा के साथ इसका अनुष्ठान करता है, उसे सद्गतिकी प्राप्ति होती है। वह एक कल्पतक स्वर्गमें निवास कर अन्तमें परमपदको प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य इस निष्पाप व्रतका श्रवण, स्मरण अथवा पाठ करता है, वह सूर्यलोकमें जाता है। साथ ही जो इसका अनुष्ठान करनेके लिये सम्मति देता है, वह भी देवगणों एवं देवाङ्गनाओंके समूहसे पूजित होता है ॥ 13-17 ॥