सूतजी कहते हैं-ऋषियो। पूर्वकालकी बात है, एक बार सुखपूर्वक बैठे हुए वैशम्पायनजीसे शौनकने | पूछा—'महर्षे! सम्पूर्ण कामनाओंकी अविचल सिद्धिके लिये शान्तिक एवं पौष्टिक कमका अनुष्ठान किस प्रकार करना चाहिये ?' ॥ 1 ॥
वैशम्पायनजीने कहा- ब्रह्मन्। लक्ष्मीकी कामनावाले अथवा शान्तिके अभिलाषी तथा वृष्टि, दीर्घायु और पुष्टिको इच्छासे युक्त मनुष्यको ग्रहयज्ञका समारम्भ करना चाहिये। वह ग्रहयज्ञ जिस विधानसे करना चाहिये, उसे मैं बतला रहा हूँ, सुनिये। मैं सम्पूर्ण शास्त्रोंका अवलोकन करनेके पश्चात् विस्तृत ग्रन्थको संक्षिप्तकर पुराणों एवं श्रुतियोंद्वारा आदिष्ट इस ग्रहशान्तिका वर्णन कर रहा हूँ। इसके लिये ज्योतिषी ब्राह्मणद्वारा बतलाये गये पुण्यमय दिनमें ब्राह्मणद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर ग्रहों एवं ग्रहाधिदेवोंकी स्थापना करके हवन प्रारम्भ करना चाहिये। पुराणों एवं श्रुतियोंके ज्ञाता विद्वानोंने तीन प्रकारका ग्रहयज्ञ बतलाया है। पहला दस हजार आहुतियोंका, उससे बढ़कर दूसरा एक लाख आहुतियोंका तथा सम्पूर्ण कामनाओंका फल प्रदान करनेवाला तीसरा एक करोड़ | आहुतियोंका होता है। दस हजार आहुतियोंवाला ग्रहह नवग्रहयज्ञ कहलाता है। इसकी विधिका, जो पुराणों एवं श्रुतियोंमें बतलायी गयी है, में वर्णन कर रहा हूँ। (यजमान मण्डपनिर्माणके बाद हवनकुण्डकी पूर्वोत्तर दिशामें देवताओंकी स्थापनाके लिये एक वेदीका निर्माण कराये जो दो बीता लम्बी-चौड़ी, एक बीता ऊँची दो परिधियोंसे सुशोभित और चौकोर हो । उसका मुख उत्तरकी ओर हो। पुनः कुण्डमें अग्रिकी स्थापना करके उस वेदीपर देवताओंका आवाहन करे। इस प्रकार उसपर बत्तीस देवताओंकी स्थापना करनी चाहिये ll 29 ॥
सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु- ये लोगोंके हितकारी ग्रह कहे गये हैं।चेत पावलोंद्वारा वेदोके मध्यमे सूर्यको दक्षिणमें मंगलकी, उत्तरमें बृहस्पतिकी, पूर्वोत्तरकोणपर बुधकी, पूर्वमें शुक्रकी, दक्षिणपूर्वकोणपर चन्द्रमाको पश्चिममें शनिकी, पश्चिम-दक्षिणकोणपर राहूकी और पश्चिमोत्तरकोणपर केतुकी स्थापना करनी चाहिये। इन सभी ग्रहोंमें सूर्यके शिव, चन्द्रमाके पार्वती, मंगलके स्कन्द, बुधके भगवान् विष्णु, बृहस्पतिके ब्रह्मा, शुक्रके इन्द्र, शनैश्चरके यम, राहुके काल और केतुके चित्रगुप्त अधिदेवता माने गये है अग्नि, जल, पृथ्वी, विष्णु, इन्द्र, ऐन्द्री देवता, प्रजापति, सर्प और ब्रह्मा- ये सभी क्रमशः प्रत्यधिदेवता हैं। इनके अतिरिक्त विनायक, दुर्गा, वायु, आकाश और अश्विनीकुमारोंका भी व्याहतियोंकि उच्चारणपूर्वक आवाहन करना चाहिये। उस समय मंगलसहित सूर्यको लाल वर्णका, चन्द्रमा और शुक्रको चेतवर्गका, बुध और बृहस्पतिको पीतवर्णका, शनि और राहुको कृष्णवर्णका तथा केतुको धूम्रवर्णका जानना और ध्यान करना चाहिये। बुद्धिमान् यज्ञकर्ता जो ग्रह जिस रंगका हो, उसे उसी रंगका वस्त्र और फूल समर्पित करे, सुगन्धित धूप दे, ऊपर सुन्दर चंदोवा लगा दे। पुनः फल, पुष्प आदिके साथ सूर्यको गुड़ और चावलसे बने हुए अन्न (खीर) का, चन्द्रमाको घी और दूधसे बने हुए पदार्थका मंगलको गोझियाका, बुधको क्षीरपष्टिक (दूधमें पके हुए साठीके चावल) का, बृहस्पतिको दही-भातका, शुक्रको घी-भातका, शनैश्चरको खिचड़ीका, राहुको अजा नामक वृक्षके फलके गूदाका और केतुको विचित्र रंगवाले भातका नैवेद्य अर्पण करके सभी प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंद्वारा पूजन करे ll 10-20 ॥
वेदीके पूर्वोत्तरकोणपर एक छिद्ररहित कलशकी स्थापना करे, उसे दही और अक्षतसे सुशोभित, आमके पायसे आच्छादित और दो वस्त्रोंसे परिवेष्टित करके उसके निकट फल रख दे। उसमें पञ्चरत्र डाल दे और उसे पञ्चभंग (पीपल, बरगद, पाकड़, गूलर और आमके पल्लव) से युक्त कर दे। उसपर वरुण, गङ्गा आदि नदियों, सभी समुद्रों और सरोवरोंका आवाहन तथा स्थापन करे। विप्रेन्द्र! धर्मज्ञ पुरोहितको चाहिये कि यह हाथीसार, मुशाल चौराहे, निमकर, नदीके संगम,कुण्ड और गोशालेकी मिट्टी लाकर उसे सर्वोषधमिश्रित जलसे अभिषिक्त कर यजमानके स्नानके लिये वहाँ प्रस्तुत
कर दे तथा 'यजमानके पापको नष्ट करनेवाले सभी समुद्र, नदी, नद, बादल और सरोवर यहाँ पधारें' यो कहकर इन देवताओंका आवाहन करे। मुनिसत्तम। तत्पश्चात् घी, यव, चावल, तिल आदिसे हवन प्रारम्भ करे। मदार, पलाश, खैर, चिचिंडा, पीपल, गूलर शमी, दूब और | कुशये क्रमशः नवों ग्रहोंकी समिधाएँ हैं। इनमें प्रत्येक ग्रहके लिये मधु, घी और दहीसे युक्त एक सौ आठ अथवा अट्ठाईस आहुतियाँ हवन करनी चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषको सदा सभी कर्मोंमें अंगूठेके सिरेसे तर्जनीके सिरेतकको मापवाली तथा वर्रोह, शाखा और पत्तोंसे रहित समिधाओंकी कल्पना करनी चाहिये। | परमार्थवेत्ता यजमान सभी देवताओंके लिये उन-उनके | पृथक् पृथक् मन्त्रोंका मन्द स्वरसे उच्चारण करते हुए समिधाओंका हवन करे ।। 21-30 ॥
पुनः चरु आदि हवनीय पदार्थोंमें घी मिलाकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक हवन करना चाहिये। तत्पश्चात् व्याहृतियोंका उच्चारण करके घीको दस आहुतियाँ अग्रिमें डाले पुनः श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्तराभिमुख अथवा पूर्वाभिमुख बैठकर प्रत्येक देवताके मन्त्रोच्चारणपूर्वक यह आदि पदार्थोंका हवन करें। इस प्रकार उन चरुओंका भलीभाँति हवन करनेके पश्चात् (प्रत्येक देवताके लिये उसके मन्त्रद्वारा) हवन करना चाहिये। ब्राह्मणको 'आकृष्णेन रजसा0' (शुक्लयजुर्वाजसने0 सं0 33 । 43 ) - इस मन्त्रका उच्चारण कर सूर्यके लिये हवन करना चाहिये। पुनः 'आप्यायस्व0' (वही 12 । 114) इस मन्त्रसे चन्द्रमाके लिये आहुति डाले। मंगलके लिये 'अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्0 (वही0 13 । 14) इस मन्त्रका पाठ करे। बुधके लिये 'अग्ने विवस्वदुपस (ऋ0 सं0 1 441) और देवगुरु बृहस्पतिके लिये 'परिदीया रथेन0' (ऋक्0 5। 83 । 7)- ये मन्त्र माने गये हैं। शुक्रके लिये 'शुक्रं ते अन्यद्0' (ऋ0 सं0 6 । 58 । 1, कृष्णय0 तैत्तिरी0 सं0 4। 1।11।2) - यह मन्त्र बतलाया गया है। शनैश्चरके लिये 'शं नो देवीरभीष्टये0' (शुक्लयजु वाज0 36 123 ) - इस मन्त्रसे हवन करनाचाहिये। राहुके लिये 'कया नश्चित्र आभुव0' (वहाँ | 27 । 39 ) - यह मन्त्र कहा गया है तथा केतुकी शान्ति के लिये 'केतुं कृण्वन्0' (वही 29 । 37) इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये ॥ 31-37 ॥ फिर 'आ वो राजानमध्वरस्य रुद्रम्' (ऋक्सं0 4। 3 । 1: कृष्णयजु0 तै0 सं0 1 । 3 । 14 11 ) - इस मन्त्रका उच्चारण कर रुद्रके लिये हवन और बलि देना चाहिये। तत्पश्चात् उमाके लिये 'आपो हि ष्टा0' (वाजस-सं0 11। 50 ) - इस मन्त्रसे, स्वामिकार्तिक के लिये 'स्यो ना0' इस मन्त्रसे, विष्णुके लिये 'इदं विष्णुः0 (शुक्लयजु0 वाज0 5115 ) - इस मन्त्रसे, ब्रह्माके लिये 'तमीशानम्0' (वाजस0 25 । 18)- इस मन्त्रसे, और इन्द्रके लिये 'इन्द्रमिद्देवताय0 - इस मन्त्रसे आहुति डाले। उसी प्रकार यमके लिये 'अयं गौः0' (वहाँ 3। 6 ) - इस मन्त्रसे हवन बतलाया गया है। कालके लिये 'ब्रह्मजज्ञानम्0' (वही 13 । 3) यह मन्त्र प्रशस्त माना गया है। मन्त्रवेत्तालोग चित्रगुतके लिये 'अज्ञातम्0 यह मन्त्र बतलाते हैं। अग्निके लिये 'अग्निं दूतं वृणीमहे' (ऋक्सं0] 1।12।1: अथवं0 20 । 101 । 1 ) - यह मन्त्र बतलाया गया है। वरुणके लिये 'उदुत्तमं वरुणपाशम्' (ऋक्सं0 1। 24 । 15) - यह मन्त्र कहा गया है। वेदान पृथ्वीके लिये 'पृथिव्यन्तरिक्षम्0 - इस मन्त्रका पाठ है। विष्णुके लिये 'सहस्रशीर्षा पुरुषः 0' (वाजस0 [सं0 31 । 1) - यह मन्त्र कहा गया है। इन्द्रके लिये 'इन्द्रायेन्द्रो मरुत्वत0 - यह मन्त्र प्रशस्त माना गया है। देवोके लिये 'उत्तानपर्णे सुभगे0 - यह मन्त्र जानना चाहिये। पुनः प्रजापतिके लिये 'प्रजापतिः0' (वाजस0) सं0 31 । 17 ) - यह हवन-मन्त्र कहा जाता है। सर्पोके 'लिये 'नमोऽस्तु सर्पेभ्यः 0 ( वही 13 6 ) - यह मन्त्र बतलाया जाता है। ब्रह्माके लिये 'एष ब्रह्मा य ऋत्विग्भ्यः 0 - यह मन्त्र कहा गया है। विनायकके लिये विद्वानोंने 'अनूनम् - यह मन्त्र बतलाया है। 'जातवेदसे सुनवाम0 (ऋ0 199 । 1 ) - यह दुर्गा-मन्त्र कहा जाता है। 'आदिप्रत्त्रस्य रेतस0- यह आकाशका मन्त्र बतलाया जाता है। 'काणा शिशुर्महीनां च0- यह वायुका मन्त्र कहा गया है। 'एषो उपाअपूर्व्यात्ο' यह अश्विनी कुमारोंका मन्त्र कहा जाता है। 'मूर्धानं दिव0' (ऋ0 6 । 7 । 1 वाज0 7।24)- इस मन्त्रसे हवनकुण्डमें पूर्णाहुति डालनी चाहिये ll 38- 48 llब्रह्मन्! इस प्रकार हवन समाप्त हो जानेपर माङ्गलिक गायन और वादनके साथ-साथ अभिषेक मन्त्रोंद्वारा उसी जलपूर्ण कलशसे पूर्व अथवा उत्तर मुख करके बैठे हुए यजमानका चार ब्राह्मण, जो सुडौल अङ्गवाले तथा जंजीर सुशोभित अभिषेक करें और ऐसा कहें- 'ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- ये देवता तुम्हारा अभिषेक करें। जगदीश्वर वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण, सामर्थ्यशाली संकर्षण (बलराम), प्रद्युम्न और अनिरुद्ध- ये सभी तुम्हें विजय प्रदान करें। इन्द्र, अग्रि ऐश्वर्यशाली यम, निर्ऋति, वरुण, पवन, कुबेर, ब्रह्मासहित शिव, शेषनाग और दिक्पालगण- ये सभी तुम्हारी रक्षा करें। कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, नति (नम्रता), बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, तुष्टि, कान्ति- ये सभी माताएँ जो धर्मको पत्रियाँ हैं, आकर तुम्हारा अभिषेक करें। सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्वर, राहु और केतु- ये सभी ग्रह तृप्त होकर तुम्हारा अभिषेक करें। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, ऋषि, मुनि, गौ, देवमाताएँ, देवपत्त्रियाँ, वृक्ष, नाग, दैत्य, अप्सराओंके समूह, अस्त्र, सभी शस्त्र, नृपगण, वाहन, औषध, रत्न, (कला, काष्ठा आदि) कालके अवयव, नदियाँ, सागर, पर्वत, तीर्थस्थान, बादल, नद- ये सभी सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये तुम्हारा अभिषेक करें' ll 49-57 ॥
इस प्रकार श्रेष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा सर्वोषध एवं सम्पूर्ण सुगन्धित पदार्थोंसे युक्त जलसे स्नान करा दिये जानेके पश्चात् सपत्नीक यजमान श्वेत वस्त्र धारण करके श्वेत चन्दनका अनुलेपन करे और विस्मयरहित होकर शान्तचित्तवाले ऋत्विजोंका प्रयत्नपूर्वक दक्षिणा आदि देकर पूजन करे तथा सूर्यके लिये कपिला गौका, चन्द्रमाके लिये शङ्खका, मंगलके लिये भार वहन करनेमें समर्थ एवं ऊँचे डीवाले लाल रंगळे बैलका, बुधके लिये सुवर्णका, बृहस्पतिके लिये एक जोड़ा पीले वस्त्रका, शुक्रके लिये श्वेत रंगके घोड़ेका, शनैश्वरके लिये काली गौका,राहुके लिये लोहेकी बनी हुई वस्तुका और केतुके लिये उत्तम बकरेका दान करे। यजमानको ये सारी दक्षिणाएँ सुवर्णक साथ अथवा स्वर्णनिर्मित मूर्तिके रूपमें देनी चाहिये अथवा जिस प्रकार गुरु (पुरोहित) प्रसन्न हों, उनके अनुसार सभी ब्राह्मणोंको सुवर्णसे अलंकृत गएँ अथवा | केवल सुवर्ण दान करना चाहिये। किंतु सर्वत्र मन्त्रोच्चारणपूर्वक ही इन सभी दक्षिणाओंके देनेका विधान है । ll 58- 63 ॥
(दान देते समय सभी देय वस्तुओंसे पृथक् पृथक् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये) 'कपिले! तुम रोहिणीरूपा हो, तीर्थ एवं देवता तुम्हारे स्वरूप हैं तथा तुम सम्पूर्ण देवोंकी पूजनीया हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो। तुम पुण्योंके भी पुण्य और मङ्गलॉक भी मङ्गल हो। भगवान् विष्णुने तुम्हें अपने हाथमें धारण किया है, इसलिये तुम मुझे शान्ति प्रदान करो। जगत्को आनन्दित करनेवाले वृषभ तुम वृषरूपसे धर्म और अष्टमूर्ति शिवजीके वाहन हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो। सुवर्ण! तुम ब्रह्माके आत्मस्वरूप, अग्रिके स्वर्णमय बीज और अनन्त पुण्यफलके प्रदाता हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो। दो पीला वस्त्र अर्थात् पीताम्बर भगवान् श्रीकृष्णको परम प्रिय हैं, इसलिये विष्णो! उसका दान करनेसे आप मुझे शान्ति प्रदान करें। अश्व! तुम अश्वरूपसे विष्णु हो, अमृतसे उत्पन्न हुए हो तथा सूर्य एवं चन्द्रमाके नित्य वाहन हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो। पृथ्वी! तुम समस्त धेनुस्वरूपा, केशवके सदृश फलदायिनी और सदा सम्पूर्ण पापोंको हरण करनेवाली हो, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो। लौह चौक विश्वके सभी सम्पादित होनेवाले लौह कर्म हल एवं अस्त्र आदि सारे कार्य सदा तुम्हारे ही अधीन हैं, इसलिये तुम मुझे शान्ति प्रदान करो। छाग ! चूँकि तुम सम्पूर्ण यज्ञोंके मुख्य अङ्गरूपसे निर्धारित हो और अग्निदेवके नित्य वाहन हो, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो। चूंकि गौ चौदह भुवन निवास करते हैं, इसलिये तुम मेरे लिये इहलोक एवं परलोकमें भी लक्ष्मी प्रदान करो। जिस प्रकार भगवान् केशवकी शय्या सदा अशून्य (लक्ष्मीसे युक्त) रहती है, वैसे हो मेरे द्वारा भी दान की गयी शय्या जन्म-जन्ममें अशून्य बनी रहे। जैसे सभी रनोंमें समस्त देवता निवास करते हैं, वैसे ही रत्नदान करनेसे वे देवता मुझे भी रत्न प्रदान करें।जिस प्रकार अन्य सभी दान भूमिदानकी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते, अतः भूमि दान करनेसे मुझे इस लोकमें शान्ति प्राप्त हो । ll 64-76 ।। इस प्रकार कृपणता छोड़कर भक्तिपूर्वक रत्न, सुवर्ण, वस्त्रसमूह, धूप, पुष्पमाला और चन्दन आदिसे ग्रहोंकी पूजा करनी चाहिये जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे ग्रहोंकी पूजा करता है, वह इस लोकमें सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है तथा मरनेपर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यदि किसी निर्धन मनुष्यको कोई ग्रह नित्य पीड़ा पहुँचा रहा हो तो उस बुद्धिमान्को चाहिये कि उस ग्रहकी यत्त्रपूर्वक भलीभाँति पूजा करके तत्पश्चात् शेष ग्रहोंकी भी अर्चना करे; क्योंकि ग्रह, गौ, राजा और ब्राह्मण—ये विशेषरूपसे पूजित होनेपर रक्षा करते हैं, अन्यथा अवहेलना किये जानेपर जलाकर भस्म कर देते हैं। जैसे वाणोंके आघातका प्रतिरोध करनेवाला कवच होता है, उसी प्रकार दुर्दैवद्वारा किये गये उपघातोंको निवारण करनेवाली शान्ति (ग्रह यज्ञ) होती है। इसलिये वैभवकी अभिलाषा रखनेवाले मनुष्यको दक्षिणासे रहित यज्ञ नहीं करना चाहिये; क्योंकि भरपूर दक्षिणा देनेसे (यज्ञका प्रधान) देवता भी संतुष्ट हो जाता है। मुनिश्रेष्ठ! नवग्रहोंके यज्ञमें यह दस हजार आहुतियोंवाला हवन ही होता है। इसी प्रकार विवाह, उत्सव, यज्ञ, देवप्रतिष्ठा आदि कर्मोंमें तथा चित्तको उद्विग्रता एवं आकस्मिक विपत्तियों में भी यह दस हजार आहुतियोंवाला हवन ही बतलाया गया है। इसके बाद अब मैं एक लाख आहुतियोंवाला हवन बतला रहा हूँ सुनिये। विद्वानोंने सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये लक्षहोमका विधान किया है; क्योंकि यह पितरोंको परम प्रिय और साक्षात् भोग एवं मोक्षरूपी फलका प्रदाता है। बुद्धिमान् यजमानको चाहिये कि ग्रहबल और ताराबलको अपने अनुकूल पाकर ब्राह्मणद्वारा स्वस्तिवाचन कराये और अपने गृहके पूर्वोत्तर दिशमें अथवा शिवमन्दिरकी समवर्ती भूमिपर विधानपूर्वक एक मण्डपका निर्माण कराये, जो दस हाथ अथवा आठ हाथ लम्बा चौड़ा चौकोर हो तथा उसका मुख (प्रवेशद्वार) उत्तर दिशाको ओर हो। उसकी भूमिको पत्रपूर्वक पूर्वोत्तर | दिशाकी ओर ढालू बना देना चाहिये ।। 77-87 ॥तदनन्तर मण्डपके पूर्वोत्तर भागमें यथार्थ लक्षणोंसे युक्त एक सुन्दर कुण्ड' तैयार कराये, जो चारों ओरसे चौकोर हो, जिसमें योनिरूप मुख बना हो और जो मेखलासे युक्त हो। यह मेखला चार अठ्ठल चौड़ी और अङ्गुल उतनी ही ऊँची, कुण्डको चारों ओर से घेरे हुए और पूर्वोत्तर दिशाको ओर डालू हो सभी लोगोंके लिये ग्रह शान्तिके निमित्त नवग्रह-यज्ञ बतलाया गया है। चूँकि उपर्युक्त परिमाणसे कम अथवा अधिक परिमाणमें बना हुआ कुण्ड अनेकों प्रकारका भय देनेवाला हो जाता है, इसलिये शान्तिकुण्डको परिमाणके अनुकूल हो बनाना चाहिये। ब्रह्माने लक्षहोमको अयुतहोमसे दस गुना | अधिक फलदायक बतलाया है, इसलिये इसे प्रयत्नपूर्वक आहुतियों और दक्षिणाओंद्वारा सम्पन्न करना चाहिये। लक्षहोममें कुण्ड चार हाथ लम्बा और दो हाथ चौड़ा होता है, उसके भी मुखस्थानपर योनि बनी होती है और वह तीन मेखलाओंसे युक्त होता है विश्वकर्मनेि कुण्डके पूर्वोत्तर दिशामें तीन बितेको दूरीपर देवताओंको स्थापनाके लिये एक वेदीका भी विधान बतलाया है, जो चारों ओरसे चौकोर, पूर्वोत्तर दिशाको ओर ढालू, विष्कम्भ (कुण्डके व्यास) के आधे परिमाणके बराबर ऊँची और तीन परिधियोंसे युक्त हो। इनमें पहली परिधि दो अङ्गुल ऊँची तथा शेष दो एक अङ्गुल ऊँची होनी चाहिये। विद्वानोंने इन सबकी चौड़ाई तीन अङ्गुलकी बतलायी है। वेदोके ऊपर दस अङ्गुल ऊँची एक दीवाल बनायी जाए, उसीपर पहले की ही भाँति फूल और अक्षतोंसे देवताओंका आवाहन किया जाय। मुनिश्रेष्ठ ! अधिदेवताओं एवं प्रत्यधिदेवताओं सहित सभी ग्रहाँको सूर्यके सम्मुख ही स्थापित करना चाहिये, उत्तराभिमुख अथवा पराङ्मुख नहीं। लक्ष्मीकामी मनुष्यको इस यज्ञमें (सभी देवताओंके अतिरिक्त) गरुड़की भी पूजा करनी चाहिये (उस समय ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये - ) गरुड! तुम्हारे शरीरसे सामवेदकी ध्वनि निकलती रहती है, तुम भगवान् विष्णुके वाहन और नित्य विषरूप पापको हरनेवाले हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो ॥88- 99 ।।तत्पश्चात् पहलेकी तरह कलशको स्थापना करके हवन आरम्भ करे। एक लाख आहुतियोंसे हवन करनेके पश्चात् पुनः समिधाओंकी संख्याके बराबर और अधिक आहुतियाँ डाले। फिर अग्रिके ऊपर घृतकुम्भसे वसोर्धारा गिराये (वसोर्धाराको विधि यह है) भुजा बराबर लम्बी गूलरको लकड़ीसे, जो खोखली न हो तथा सौधी एवं गीली हो, सुवा बनवाकर उसे दो खम्भोंपर रखकर उसके द्वारा अनिके ऊपर सम्यक् प्रकारसे घीकी धारा गिराये। उस समय अग्रिसूक्त (ऋ0 सं0 11), विष्णुसूक्त (वाजसं0 5। 1-22), रुद्रसूक्त (वही 16) और इन्दु (सोम) सूक्त (ऋ0 1 । 91) सुनाना चाहिये तथा महावैश्वानर साम और ज्येष्ठसामका पाठ कराना चाहिये। तदुपरान्त पूर्ववत् यजमान स्नानकर स्वस्तिवाचन कराये तथा काम क्रोधरहित होकर शान्तचित्तसे पूर्ववत् ऋत्विजोंको पृथक्
पृथक् दक्षिणा प्रदान करे। नवग्रहयज्ञके अयुतहोममें चार वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको अथवा श्रुतिके जानकार एवं शान्तस्वभाववाले दो ही ऋत्विजोंको नियुक्त करना चाहिये। विस्तारमें नहीं फँसना चाहिये । ll100 - 105 ॥
उसी प्रकार लक्षहोममें अपनी सामर्थ्यके अनुकूल मत्सररहित होकर दस, आठ अथवा चार ऋत्विजोंको नियुक्त करना चाहिये। मुनिश्रेष्ठ सम्पत्तिशाली यजमानको यथाशक्ति भक्ष्य पदार्थ, आभूषण, वस्त्रोंसहित शय्या, स्वर्णनिर्मित कड़े, कुण्डल, अँगूठी और कण्ठसूत्र (हार) | आदि सभी वस्तुएँ लक्षहोममें नवग्रह यज्ञसे दस गुनी अधिक देनी चाहिये। मनुष्यको कृपणतावश दक्षिणारहित यज्ञ नहीं करना चाहिये। जो लोभ अथवा अज्ञानसे भरपूर | दक्षिणा नहीं देता, उसका कुल नष्ट हो जाता है। समृद्धिकामी मनुष्यको अपनी शक्तिके अनुसार अन्नका दान करना | चाहिये क्योंकि अप्रदानरहित किया हुआ यह दुर्भिक्षरूप | फलका दाता हो जाता है। अन्नहीन यज्ञ राष्ट्रको मन्त्रहीन ऋत्विज्को और दक्षिणारहित यज्ञकर्ताको जलाकर नष्ट कर देता है। इस प्रकार (विधिहीन) यज्ञके समान अन्य कोई शत्रु नहीं है। अल्प धनवाले मनुष्यको कभी लक्षहोम | नहीं करना चाहिये; क्योंकि यज्ञमें (दक्षिणा आदिके लिये) | प्रकट हुआ विग्रह सदाके लिये कष्टकारक हो जाता है।स्वल्प सम्पत्तिवाला मनुष्य केवल पुरोहितको अथवा दो या तीन ब्राह्मणोंको भक्तिके साथ विधिपूर्वक पूजा करे अथवा एक ही वेदज्ञ ब्राह्मणकी भक्तिके साथ दक्षिणा आदिसे प्रयत्नपूर्वक अर्चना करे, बहुतों के चक्कर में न पड़े। अधिक सम्पत्ति होनेपर लक्षहोम करना चाहिये; क्योंकि यह अधिक लाभदायक है। इसका विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। वह आठ सौ कल्पांतक शिवलोकमें वसुगण, आदित्यगण | और मरुद्रणोंद्वारा पूजित होता है तथा अन्तमें मोक्षको प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य किसी विशेष कामनासे इस लक्षहोमको विधिपूर्वक सम्पन्न करता है, उसे उस कामनाकी प्राप्ति तो हो ही जाती है, साथ ही वह अविनाशी पदको भी प्राप्त कर लेता है। इसका अनुष्ठान करनेसे पुत्रार्थीको पुत्रकी प्राप्ति होती है, धनार्थी धन लाभ करता है, भार्यार्थी सुन्दरी पत्नी, कुमारी कन्या सुन्दर पति, राज्यसे भ्रष्ट हुआ राजा राज्य और लक्ष्मीका अभिलाषी लक्ष्मी प्राप्त करता है। इस प्रकार मनुष्य जिस-जिस वस्तुकी अभिलाषा करता है, उसे वह प्रचुरमात्रामें प्राप्त हो जाती है। जो निष्कामभावसे इसका अनुष्ठान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त हो जाता है ।। 106 - 118 ॥
मुने! प्रयत्नपूर्वक दी गयी आहुतियों, दक्षिणाओं और फलकी दृष्टिसे ब्रह्माने कोटिहोमको इस लक्षहोमसे सौ गुना अधिक फलदायक बतलाया है। इसमें भी ग्रहों एवं देवोंके आवाहन, विसर्जन, स्नान तथा दानमें प्रयुक्त होनेवाले होममन्त्र पहलेके ही हैं। केवल कुण्ड, मण्डप और वेदीमें कुछ विशेषता है, वह मैं बतला रहा हूँ सुनिये इस कोटिहोममें सब ओरसे चौकोर चार हाथके | परिमाणवाला कुण्ड बनाना चाहिये। वह दो योनिमुखों और तीन मेखलाओंसे युक्त हो। विद्वानोंको पहली मेखला दो अङ्गुल ऊँची बनानी चाहिये। उसी प्रकार दूसरी | मेखला तीन अङ्गल ऊँची बतलायी गयी है और तीसरी | मेखला ऊँचाई और चौड़ाईमें चार अङ्गुलकी होनी चाहिये। | पहली दोनों मेखलाओंकी चौड़ाई दो असकी ही ठीक मानी गयी है। इनके ऊपर एक बित्ता लम्बो और छः-सात अङ्गुल चौड़ी योनि होनी चाहिये। उसका मध्य भाग कछुवेको पीठकी तरह ऊँचा और दोनों पार्श्वभाग एक अङ्गुल ऊँचा हो। वह हाथीके होंठके समान लम्बी और छिद्र (घी गिरनेका मार्ग) युक्त हो। | सभी कुण्डोंमें यही योनिका लक्षण बतलाया जाता है।योनि सभी मेखलाओंके ऊपर पीपलके पत्तेके सदृश होनी चाहिये। कोटिहोममें चार बित्ता लम्बी, चारों ओरसे चौकोर और तीन परिधियोंसे युक्त एक वेदी होनी चाहिये। परिधियोंका प्रमाण तथा वेदियोंकी ऊँचाई पहले कही जा चुकी है। पुनः सोलह हाथ लम्बे-चौड़े मण्डपकी स्थापना करे, जिसमें चारों दिशाओंमें दरवाजे हो बुद्धिसम्पन्न यजमान उसके पूर्वद्वारपर ऋग्वेदके पारगामी ब्राह्मणको, दक्षिण द्वारपर यजुर्वेद के ज्ञाताको, पश्चिमद्वारपर सामवेदीको और उत्तरद्वारपर अथर्ववेदीको नियुक्त करे। इनके अतिरिक्त वेद एवं वेदाङ्गोंके ज्ञाता आठ ब्राह्मणोंको हवन करनेके लिये नियुक्त करना चाहिये। इस प्रकार इस कार्यमें बारह ब्राह्मणोंको नियुक्त करनेका विधान है। इन सभी ब्राह्मणोंका वस्त्र, आभूषण, पुष्पमाला, चन्दन आदि सामग्रियोंद्वारा पूर्ववत् भक्तिपूर्वक | पूजन करना चाहिये ॥ 119 – 130 ॥
(कार्यारम्भ होनेपर) पूर्वद्वारपर स्थित ऋग्वेदी ब्राह्मण उत्तराभिमुख हो परम माङ्गलिक रात्रिसूक्त, रुद्रसूक्त, पवमानसूक्त तथा अन्यान्य शान्ति सूक्तोंका पाठ करता रहे। दक्षिणद्वारपर स्थित श्रेष्ठ यजुर्वेदी ब्राह्मणसे शक्तिसूक्त, शक्रसूक्त, सोमसूक्त, कूष्माण्डसूक्त तथा शान्ति सूक्तका पाठ करवाना चाहिये। पश्चिमद्वारपर स्थित सामवेदी ब्राह्मण सुपर्ण, वैराज, आग्नेय- इन ऋचाओं रुद्रसंहिता ज्येष्ठसाम तथा शान्तिपाठका गान करे। उत्तरद्वारपर नियुक्त अथर्ववेदी ब्राह्मण शान्ति (शेतातीय 19) सूक्त, सूर्यसूक्त, माङ्गलिक शकुनिसूक्त, पौष्टिक एवं महाराज्य (सूक्त) का पाठ करे। मुनिश्रेष्ठ ! इसमें भी पूर्ववत् पाँच अथवा सात ब्राह्मणोंद्वारा हवन कराना चाहिये। स्नान और दानके लिये वे ही पूर्वकथित मन्त्र इसमें भी हैं। लक्षहोममें केवल वसोर्धाराका विधान विशेष होता है। जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे कोटिहोमका विधान करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और मरनेपर विष्णुलोक में चला जाता है जो मनुष्य तीनों प्रकारके ग्रहयज्ञोंका पाठ अथवा श्रवण करता है। उसका आत्मा समस्त पापोंसे विशुद्ध हो जाता है और अन्तमें वह इन्द्रलोकमें चला जाता है। धर्मज्ञ मनुष्य अठारह हजार अश्वमेधयज्ञोंके अनुष्ठानसे जो फल प्राप्त | करता है, वह फल कोटिहोम नामक यज्ञसे प्राप्त हो जाताहै शिवजीने यथार्थरूपसे कहा है कि कोटिहोमके | अनुष्ठानसे हजारों ब्रह्महत्या और अरबों भ्रूणहत्या जैसे महापातक नष्ट हो जाते हैं ॥ 131-139 ॥
नारद! यदि वशीकरण, अभिचार तथा उच्चाटन आदि काम्य कर्मोंका अनुष्ठान करना हो तो पहले नवग्रह यज्ञ सम्पन्न कर तत्पश्चात् काम्य कर्म करना चाहिये, अन्यथा वह काम्य कर्म मनुष्योंको कहीं भी फलदायक नहीं हो सकता। अतः पहले अयुतहोमका सम्पादन कर लेना उचित है। उच्चाटन और वशीकरण कर्मोंमें कुण्डको गोलाकार बनाना चाहिये। उसका विस्तार अर्थात् व्यास एक अरत्नि हो। वह तीन मेखलाओं और एक मुखसे युक्त हो। इन कार्योंमें मधु गोरोचन, चन्दन, अगुरु और कुङ्कुमसे अभिषिक्त की हुई पलाशको समिधाएँ प्रशस्त मानी गयी हैं। मधु और धीसे चुपड़े हुए बेल और कमल-पुष्पके हवनका विधान है। ब्रह्माने सदा दस हजार आहुतियोंका ही विधान बतलाया है धर्मज्ञ यजमानको वशीकरण- कर्ममें 'सुमित्रिया न आप ओषधयः ' इस मन्त्रसे हवन करना चाहिये। इस कार्यमें कलशका स्थापन और अभिषेचन नहीं किया जाता। गृहस्थ यजमान सर्वोषधमिश्रित जलसे स्नान करके श्वेत वस्त्र और श्वेत पुष्पोंकी माला धारण कर ले और स्वर्णनिर्मित कण्ठहारोंसे ब्राह्मणोंकी पूजा करे तथा उन्हें महीन बस्त्र एवं स्वर्णसे विभूषित घेत रंगकी गौएँ प्रदान करे। (इस प्रकार विधिपूर्वक सम्पन्न किया गया) यह पापनाशक हवन वशमें न आनेवाली शत्रुओंकी सारी सेनाओंको वशीभूत कर देता है और शत्रुओंको मित्र बना देता है ll 140-148 ।।
समृद्धिकामी पुरुषको इन कर्मोंमेंसे केवल शान्तिकर्मका
ही अनुष्ठान करना चाहिये। जो मानव निष्कामभावसे इन तीनों ग्रहयज्ञोंका अनुष्ठान करता है, वह पुनरागमनरहित विष्णुपदको प्राप्त हो जाता है जो मनुष्य इस ग्रहयज्ञको नित्य सुनता अथवा दूसरेको सुनाता है, उसे न तो ग्रहजनित | पीड़ा होती है और न उसके बन्धुजनोंका विनाश ही होता है। जिस घरमें ये तीनों (ग्रह, लक्ष एवं कोटि होम)| यज्ञ-विधान लिखकर रखे रहते हैं, वहाँ न तो बालकोंको कोई कष्ट होता है, न रोग तथा बन्धन भी नहीं होता। विद्वानोंका कहना है कि कोटिहोम सम्पूर्ण यज्ञोंके फलका प्रदाता, अखिल पापोंका विनाशक और भोग एवं मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। श्रेष्ठ देवगण लक्षहोमको अश्वमेध यज्ञके समान फलदायक बतलाते हैं। उसी प्रकार नवग्रह-यज्ञ, द्वादशाह यज्ञके सदृश फलकारक बतलाया जाता है। इस प्रकार मैंने इस समय उत्सवके आनन्दकी प्राप्तिके लिये सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाले इस देवयज्ञाभिषेकका वर्णन कर दिया। जो मनुष्य प्रसङ्गवश इसका इसी रूपमें पाठ अथवा श्रवण करता है, वह दीर्घायु एवं नीरोगतासे युक्त होकर अपने शत्रुओंको पराजित कर देता है ।। 149- 161 ।।