ऋषियोंने पूछा- तात! आपके द्वारा विस्तारपूर्वक कहे गये पद्मोद्भवके प्रसङ्गको हमलोग सुन चुके, अब आप भैरवस्वरूप शंकरजीके माहात्म्यका संक्षेपसे वर्णन कीजिये ll 1 ॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! अच्छा, आपलोग देवाधिदेव शंकरजीके भी उत्तम कर्मको सुनिये पूर्वकालमें अञ्जनसमूहके सदृश वर्णवाला अन्धक नामका एक दैत्य हुआ था। वह महान् तपोबलसे सम्पन्न था, इसी कारण देवताओंद्वारा अवध्य था। किसी समय उसको दृष्टि पार्वतीके साथ क्रीडा करते हुए भगवान् शंकरपर पड़ी, तब वह पार्वती देवीका अपहरण करनेके लिये प्रयास करने लगा। उस समय अवन्ती- प्रदेशमें स्थित भयंकर महाकालवनमें उसका शंकरजीके साथ भीषण संग्राम हुआ। उस युद्धमें जब भगवान् रुद्र अन्धकद्वारा अत्यन्त पीड़ित कर दिये गये, तब उन्होंने अतिशय भयंकर पाशुपत नामक बाणको प्रकट किया। शंकरजीके उस बाणके आघातसे निकलते हुए अन्धकके रक्तसे दूसरे सैकड़ों-हजारों अन्धक उत्पन्न हो गये। पुनः उनके घायल शरीरोंसे बहते हुए रुधिरसे। दूसरे भयंकर अन्धक प्रकट हुए, जिनके द्वारा सारा जगत् व्याप्त हो गया। तब उस अन्धकको इस प्रकारका मायावी जानकर भगवान् शंकरने उसके रक्तको पान करनेके लिये मातृकाओंकी सृष्टि की ॥ 2-83॥
उन (मातृकाओं) के नाम हैं- माहेश्वरी, ब्राझी कौमारी, मालिनी, सौपर्णी, वायव्या, शाक्री, नैर्ऋती, सौरी, सौम्या, शिवा, दूती, चामुण्डा, वारुणी, वाराही, नारसिंहो, वैष्णवी, चलच्छिंखा, शतानन्दा, भगानन्दा, पिच्छिला, भगमालिनी,बला, अतिबला, रक्ता, सुरभी, मुखमण्डिका, मातृनन्दा, सुनन्दा, विडाली, शकुनी, रेवती, महारक्ता, पिलपिच्छिका, जया, विजया, जयन्ती, अपराजिता, काली, महाकाली, दूती, सुभगा, दुर्भगा, कराली, नन्दिनी, अदिति, दिति, मारी, मृत्यु कर्णमोटी, ग्राम्या, उलूकी, घटोदरी, कपाली, वज्रहस्ता, पिशाची, राक्षसी, भुशुण्डी, शांकरी, चण्डा, लाङ्गली, कुटभी, खेटा, सुलोचना, धूम्रा, एकवीरा, करालिनी, विशालदंष्ट्रिणी, श्यामा, त्रिजटी, कुक्कुटी, वैनायकी, वैताली, उन्मत्तोदुम्बरी, सिद्धि, लेलिहाना, केकरी, गर्दभी, भ्रुकुटी, बहुपुत्री, प्रेतयाना, बिडम्बिनी, क्रौञ्चा, शैलमुखी, विनता, सुरसा, दनु, उषा, रम्भा, मेनका, सलिला, चित्ररूपिणी, स्वाहा, स्वधा, वषट्कारा, धृति, ज्येष्ठा, कपर्दिनी, माया, विचित्ररूपा, कामरूपा, संगमा, मुखेविला, मङ्गला, महानासा, महामुखी, कुमारी, रोचना, भीमा, सदाहा, मदोद्धता, अलम्बाक्षी, कालपर्णी, कुम्भकर्णी, महासुरी, केशिनी, शंखिनी, लम्बा, पिंगला, लोहितामुखी, घण्टारवा, दंष्ट्राला, रोचना, काकजंघिका, गोकर्णिका, अजमुखिका, महाग्रीवा, महामुखी, उल्कामुखी, धूमशिखा, कम्पिनी, परिकम्पिनी, मोहना, कम्पना, क्ष्वेला, निर्भया, बाहुशालिनी, सर्पकर्णी, एकाक्षी, विशोका, नन्दिनी, ज्योत्स्नामुखी, रभसा, निकुम्भा, रक्तकम्पना, अविकारा, महाचित्रा, चन्द्रसेना, मनोरमा, अदर्शना, हरत्पापा, मातंगी, लम्बमेखला, अंबाला, वञ्चना, काली, प्रमोदा, लाङ्गलावती, चित्ता, चित्तजला, कोणा, शान्तिका, | अघविनाशिनी, लम्बस्तनी, लम्बसटा, विसटा, वासचूर्णिनी,स्खलन्ती, दीर्घकेशी, सुचिरा, सुन्दरी, शुभा, अयोमुखी, कटुमुखी, क्रोधनी, अशनी, कुटुम्बिका मुक्तिका, चन्द्रिका, बलमोहिनी, सामान्या, हासिनी, लम्बा कोविदारी, समासवी, शंकुकर्णी, महानादा, महादेवी, महोदरी, हुंकारी, रुद्रसुसटा, रुद्रेशी, भूतडामरी, पिण्डजिह्ना, चलज्ज्वाला, शिवा तथा ज्वालामुखी। इनकी तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य मातृकाओंकी देवेश्वर शंकरने उस समय सृष्टि की ।। 9-32 ।।
तदनन्तर उत्पन्न हुई इन महाभयावनी मातृकाओंने अन्धकोंके रक्तको चूस लिया। इस प्रकार अन्धकोंके रक्तका पान करनेसे इन सबको परम तृप्तिका अनुभव हुआ। उनके तृप्त हो जानेके पश्चात् पुनः अन्धककी संतानें उत्पन्न हुईं। उन्होंने हाथमें शूल और मुद्रर धारण करके पुनः महादेवजीको पीडित कर दिया। इस प्रकार जब अन्धकोंने भगवान् शंकरको व्याकुल कर दिया, तब वे सर्वव्यापी एवं अजन्मा भगवान् वासुदेवकी शरणमें गये। तत्पश्चात् भगवान् विष्णुने शुष्करेवती नामवाली एक देवीको प्रकट किया, जिसने क्षणमात्रमें ही उन अन्धकोंके सम्पूर्ण रक्तको चूस लिया। जनेश्वर ! वह देवी ज्यों-ज्यों अन्धकोंके शरीरसे निकले हुए रुधिरको पीती जाती थी, त्यों-त्यों वह अधिक क्षुधित एवं पिपासित होती जाती थी। इस प्रकार जब उस देवीद्वारा उन अन्धकोंका रक्त पान कर लिया गया, तब त्रिपुरारि शंकरने उन सभी अन्धकोंको कालके हवाले कर दिया। फिर त्रिलोकीको धारण करनेवाले भगवान् शंकरने जब वेगपूर्वक पराक्रम प्रकट करके प्रधान अन्धकको अपने त्रिशूलके अग्रभागका लक्ष्य बनाया, तब वह महापराक्रमी अन्धक शंकरजीको स्तुति करने लगा। उसके स्तवन करनेसे भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये, तब उन्होंने उसे अपना नित्य सामीप्य तथा गणेशत्वका पद प्रदान कर दिया। यह देखकर सभी मातृकाएँ शंकरजीसे इस प्रकार बोली-'भगवन्! हमलोग आपकी कृपासे देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण जगत्को खा जाना चाहती हैं, इसके लिये आप | हमलोगोंको आज्ञा देनेकी कृपा करें ॥ 33-41 ॥शंकरजीने कहा- देवियो आपलोगोंको तो निःसंदेह सभी प्रजाओंकी रक्षा करनी चाहिये, अतः आपलोग शीघ्र ही उस घोर अभिप्रायसे अपने मनको लौटा लें इस प्रकार शंकरजीद्वारा कहे गये वचनको अवहेलना करके वे अत्यन्त निपुर मातृकाएँ चराचरसहित त्रिलोकीको भक्षण करने लगीं तब मातृकाओं द्वारा त्रिलोकीको भक्षित होते हुए देखकर भगवान् शिवने उन नृसिंहमूर्ति भगवान् विष्णुका ध्यान किया, जो आदि अन्तसे रहित और सभी लोकोंके उत्पादक हैं, जिनके विशाल नखोंका अग्रभाग दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपुके वक्षःस्थलके रुधिरसे चर्चित है, जिनकी जीभ बिजलीकी तरह लपलपाती रहती है और दायें विशाल हैं, जिनके कंधेके बाल हिलते रहते हैं, जो प्रलयकालीन वायुको तरह क्षुब्ध और सप्तार्णवकी भाँति गर्जना करनेवाले हैं, जिनके नख वज्र सदृश तीक्ष्ण हैं, जिनकी आकृति भयंकर है, जिनका मुख कानतक फैला हुआ है, जो सुमेरु पर्वतके समान चमकते रहते हैं, जिनके नेत्र उदयकालीन सूर्य सरीखे उद्दीप्त हैं, जिनकी आकृति हिमालयके शिखर जैसी है, जिनका मुख सुन्दर उज्ज्वल दादोंसे विभूषित है, जो नखोंसे निकलती हुई क्रोधाग्निकी ज्वालारूपी केसरसे युक्त रहते हैं, जिनकी भुजाओंपर अङ्गद बँधा रहता है, जो सुन्दर मुकुट, हार और केयूरसे विभूषित रहते हैं, विशाल स्वर्णमयी करधनीसे जिनकी शोभा होती है, जिनकी कान्ति नीले कमलदलके समान श्याम है, जो दो वस्त्र धारण किये रहते हैं और अपने तेजसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमण्डलको आक्रान्त किये रहते हैं, वायुद्वारा घुमायी जाती हुई हवनयुक्त अग्निकी लपटोंकी भँवर-सदृश आकारवाले शरीर रोमसे संयुक्त हैं तथा जो सभी प्रकारके पुष्पोंसे बनी हुई हवनयुक्त विचित्र एवं विशाल मालाको धारण करते हैं। ध्यान करते ही भगवान् विष्णु शिवजीके नेत्रोंके समक्ष प्रकट हो गये। बुद्धिमान् शंकरने जिस प्रकारके रूपका ध्यान किया था, वे उसी रूपसे प्रकट हुए। उनका वह रूप देवताओं द्वारा भी दुर्निरीक्ष्य था तब शंकरजी उन देवेश्वरको प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे ॥ 42 - 54 ॥
शंकरजी बोले- जगनाथ आप नरसिंहका शरीर धारण करनेवाले हैं और आपको नखशक्ति दैत्यराज हिरण्यकशिपुके रक्तसे रञ्जित होकर सुशोभित होती है, आपको नमस्कार है।पद्मनाभ! आप सर्वव्यापी हैं, आपका शरीर स्वर्णके समान पीला है और आप देवता, इन्द्र तथा जगत्के गुरु हैं, आपको प्रणाम है। आपका सिंहनाद प्रलयकालीन मेघोंके समान है, आपकी कान्ति करोड़ों सूर्योंके सदृश है, आपका क्रोध हजारों यमराजके तथा पराक्रम सहस्रों इन्द्रके समान है, आप हजारों कुबेरोंसे भी बढ़कर समृद्ध, हजारों वरुणोंके समान हजारों कालोंद्वारा रचित और हजारों इन्द्रियनिग्रहियोंसे बढ़कर हैं, आपका धैर्य सहस्त्रों पृथ्वियोंसे भी उत्तम है, आप सहस्रों अनन्तोंकी मूर्ति धारण करनेवाले, सहस्रों चन्द्रमा सरीखे सौन्दर्यशाली और सहस्रों ग्रहों-सदृश पराक्रमी हैं, आपका तेज हजारों रुद्रोंके समान है, हजारों ब्रह्मा आपकी स्तुति करते हैं, आप हजारों बाहु, मुख और नेत्रवाले हैं, आपका वेग अत्यन्त उग्र है, आप सहस्रों यन्त्रोंको एक साथ तोड़ डालनेवाले तथा सहस्रोंका वध और सहस्रोंको बन्धनमुक्त करनेवाले हैं। भगवन्! अन्धकका विनाश करनेके लिये मैंने जिन मातृकाओंकी सृष्टि की थी, वे सभी आज मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन कर प्रजाओंको खा जानेके लिये उतारू हैं। अपराजित! उन्हें उत्पन्न कर मैं पुनः उन्हींका संहार नहीं कर सकता। स्वयं उत्पन्न करके भला मैं उनका विनाश कैसे करूँ ॥ 55- 62 ll
रुद्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर नरसिंह विग्रहधारी भगवान् श्रीहरिने अपनी जीभसे वागीश्वरीको हृदयसे मायाको गुह्यप्रदेश से भवमालिनीको और हड्डियोंसे कालीको प्रकट किया। उन महात्माने इस कालीकी सृष्टि पहले भी की थी, जिसने महान् आत्मबलसे सम्पन्न अन्धकोंके रुधिरका पान किया था और जो इस लोकमें शुष्करेवती नामसे प्रसिद्ध है। इसी प्रकार सुदर्शन चक्रधारी भगवान्ने अपने अङ्गोंसे बत्तीस अन्य मातृकाओंकी सृष्टि की, वे सभी महान् भाग्यशालिनी थीं। मैं उनके नामोंका वर्णन कर रहा है, तुम उन्हें मुझसे श्रवण करो। उनके नाम हैं-घण्टाकर्णी, त्रैलोक्यमोहिनी, पुण्यमयी सर्वसत्ववशंकरी चक्रड़दया, पाँचवीं व्योमचारिणी, शङ्खिनी, लेखिनी और काल-संकर्षणी राजन्! ये वागीश्वरीके पीछे चलनेवाली उनकी अनुचरी कही गयी हैं। राजन्! संकर्षणी, अश्वत्था, बीजभावा, अपराजिता, कल्याणी, मधुर्दी, कमला और उत्पलहस्तिका ये आठों देवियाँ मायाकी अनुचरी कहलाती हैं।नरेश! अजिता, सूक्ष्महृदया, वृद्धा, वेशाश्मदर्शना, नृसिंहभैरवा, बिल्वा, गरुत्मद्धदया और जया—ये आठों मातृकाएँ भवमालिनीकी अनुचरी है राजन् आकर्णनी सम्भटा, उत्तरमालिका, ज्वालामुखी, भीषणिका, कामधेनु, बालिका तथा पद्मकरा- ये शुष्करेवतीकी अनुचरी कही जाती हैं। आठ-आठके विभागसे भगवान्के शरीरसे उद्भूत हुई ये सभी देवियाँ महान् बलवती तथा त्रिलोकीके सृजन और संहारमें समर्थ थीं ll 63-74 ll
महाराज! भगवान् विष्णुद्वारा प्रकट किये जाते ही वे देवियाँ कुपित हो मातृकाओंकी ओर क्रोधवश आँखें फाड़कर देखती हुई उनपर टूट पड़ीं। उन देवियोंके नेत्रोंका तेज अत्यन्त भीषण और सर्वथा असह्य था, इसलिये वे मातृकाएँ भगवान् नृसिंहकी शरण में आ पड़ीं। तब भगवान् नरसिंहने उनसे इस प्रकार कहा 'जिस प्रकार मनुष्य और पशु चिरकालसे अपनी संतानका पालन-पोषण करते आ रहे हैं और जिस प्रकार शीघ्र दोनों देवताओंको वशमें कर लेते हैं, उसी तरह तुमलोग मेरे आदेशानुसार समस्त लोकोंकी रक्षा करो। मनुष्य तथा देवता सभी त्रिपुरहन्ता शिवजीका यजन करें। जो लोग शंकरजीके भक्त हैं, उनके प्रति तुमलोगोंको कोई बाधा नहीं करनी चाहिये। इस लोकमें जो मनुष्य मेरा स्मरण करते हैं, वे तुमलोगोंद्वारा सदा रक्षणीय हैं जो मनुष्य 1 सदा तुमलोगों के निमित्त बलिकर्म करेंगे, तुमलोग उनके सभी मनोरथ पूर्ण करो जो लोग मेरे इस चरित्रका कथन करेंगे, उन लोगोंकी सदा रक्षा तथा मेरे आदेशका भी पालन करना चाहिये। तुमलोगोंमें जो मुख्य महादेवियाँ हैं, उन्हें महादेवजी अपनी परमोत्कृष्ट रौद्री मूर्ति प्रदान करेंगे। तुमलोगोंको उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। लज्जा और भयसे रहित हो मैंने जो इस मातृगणकी सृष्टि की है, यह विशाल नेत्रोंवाला दल नित्य मेरे साथ ही निवास करेगा तथा मेरे साथ इसे मनुष्योंद्वारा प्रदान की गयी पूजा भी प्राप्त होती रहेगी। लोगोंद्वारा पृथक् रूपसे सुपूजित होनेपर ये देवियाँ सभी कामनाएँ प्रदान करेंगी।जो पुत्राभिलाषी लोग शुष्करेवतीकी पूजा करेंगे, उनके लिये वह देवी पुत्र प्रदान करनेवाली होगी- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है' ।। 75-85 ॥
राजन्! ऐसा कहकर ज्वालासमूहोंसे व्याप्त शरीरवाले भगवान् नरसिंह उस मातृगणके साथ वहीं अन्तर्हित हो गये। वहीं एक तीर्थ उत्पन्न हो गया, जिसे लोग 'कृतशौच' नामसे पुकारते हैं। वहीं सबके पूर्वज तथा जगत्का कष्ट दूर करनेवाले भगवान् रुद्र उस भयंकर मातृवर्गको अपनी रौद्री दिव्य मूर्ति प्रदान कर उन्हीं मातृकाओंके मध्यस्थित हो गये। इस प्रकार अर्धनारी नरस्वरूप शिव उन सातों मातृ-देवियोंको उस रौद्रस्थानपर स्थापित कर स्वयं वहीं अन्तर्हित हो गये । मातृवर्गसहित शिवजीकी मूर्ति जब-जब देवेश्वर भगवान् नरसिंहकी मूर्तिके निकट जाती है, तब-तब त्रिपुर एवं अन्धकके शत्रु शंकरजी उस नृसिंहमूर्तिकी पूजा करते हैं ॥ 86 - 90॥