सूतजी कहते हैं-ऋषियो! अब मैं लिङ्गके उत्तम लक्षणका वर्णन कर रहा हूँ। चतुर पुरुष अत्यन्त चिकने एवं श्रेष्ठ (श्वेत) रंगके शिवलिङ्गका निर्माण करे। मन्दिरके प्रमाणके अनुसार ही शिवलिङ्गका प्रमाण बतलाया गया है। अथवा शिवलिङ्गके प्रमाणानुसार शिव मन्दिरका निर्माण शुभ जानना चाहिये। सर्वप्रथम चौकोर एवं | समतल गर्तमें ब्रह्मसूत्र गिराना चाहिये। ब्रह्मसूत्रकी बायीं ओर अर्चा या लिङ्गकी स्थापना करनी चाहिये। वहाँ पूर्वोत्तर या दक्षिणपूर्वकी ओर पूर्वद्वार बनाना चाहिये। वह द्वार कुछ दक्षिणाश्रित या ईशानमें लीन रहना चाहिये। पूर्वका यह द्वार माहेन्द्रद्वार कहलाता है। प्रथमतः पूर्वद्वारको इक्कीस भागोंमें विभक्तकर मध्य भागमें ब्रह्मसूत्रकी कल्पना करनी चाहिये। इसके अर्धभागको तीन भागों में विभक्तकर उत्तरकी ओर तथा दक्षिणकी ओर एक-एक भाग छोड़कर ब्रह्मस्थानकी कल्पना करनी चाहिये। उस अर्धभागमें लिङ्गकी स्थापना प्रशस्त मानी गयी है।उसे पाँच भागों में विभक्त कर उनमें तीन भागोंको ज्येष्ठ कहा जाता है। भीतरी मानको नौ भागों में विभक्त कर | उसके पञ्चम भागको मध्यम कहते हैं। गर्भके एक ही भागको नौ भागमें विभक्तकर उनमें लिङ्गोंको स्थापित करे। इसी समसूत्रवाले गर्भ-भागको नौ भागमें विभक्त करे। उनमें आधा ज्येष्ठ, आधा कनिष्ठ और मध्यभाग मध्यम कहलाता है। इस प्रकार गर्भको तीन भागों में विभक्त करना चाहिये। फिर उनमें तीन ज्येष्ठ, तीन मध्यम और तीन कनिष्ठ भेद होते हैं, जिससे लिङ्गोंके | कुल नौ भेद होते हैं * ॥ 1 - 11 ॥
बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि नाभिके आधे भागके बराबर आठ भाग करे, फिर उनमें तीन भागोंको छोड़कर चौकोर विष्कम्भ बनाये। लिङ्गके मध्यभागमें आठ कोण रहना चाहिये। तदनन्तर बुद्धिमानोंको बचे हुए भागको दो कोणोंसे लाञ्छित करना चाहिये। उसी प्रकार ऊपरका भाग भी आठ कोणोंवाला बनाये। सोलह कोणोंवाले भागको गोलाकारमें परिणत कर ।उस देवताकी नाभिमें लम्बाई कुण्डलीकृत माहेश्वर भागका होगी। लिङ्गमें भाग ऊर्ध्व वृत्तरूपसे स्थित त्रिभाग होगा। उसके नीचे ब्रह्मभाग होगा, जो चौकोर बनाया जाता है। मध्यभाग, जो आठ कोणोंवाला होता है, वैष्णवभाग कहा जाता है। इन प्रमाणोंसे निर्मित लिङ्ग समृद्धि देनेवाला होता है। अब गर्भामानके प्रमाणसे बननेवाले लिङ्गका वर्णन कर रहा हूँ। जो लिङ्ग गर्भमानके प्रमाणसे निर्मित होता है, वह उचित होता है । उसे चार भागों में विभक्तकर विष्कम्भकी कल्पना करे। देवायतनको सूत्रद्वारा नापकर उसे तीन भागों में विभक्त करे। जिसमें नीचेका भाग चार कोणवाला और मध्यभाग आठ कोणवाला हो। इसके ऊपर पूज्यभाग और नाभिभाग कहा जाता है। लम्बाईका विस्तार चौकोर प्रमाणका होना चाहिये। उस चौकोर | भागको छोड़कर आठ कोणवाला जो भाग हो, उसके आधे भागको छोड़कर वृत्ताकार बनाना चाहिये ॥ 12 – 21 ॥
उसके मङ्गलमय सिरको मूलदेशसे बिलकुल सीधे रूपमें स्थापित करे। जिस लिङ्गके नीचेका भाग बहुतचौड़ा होता है, वह पूजनीय नहीं रह जाता। जो लिङ्ग सिरकी ओरसे सदा निम्न, मनोहर, उत्तम लक्षणोंसे युक्त तथा सौम्य दिखायी पड़ता है, वह समृद्धिको देनेवाला होता है। जो लिङ्ग मूल तथा मध्यभागमें एक समान रहता है, वह सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला होता है। जो लिङ्ग इन उपर्युक्त लक्षणोंसे भिन्न होते हैं, वे असत् कहे जाते हैं अर्थात् वे अपूजनीय लिङ्ग हैं। इस प्रकार ऊपर बताये गये प्रमाणोंके अनुसार रत्न, स्फटिक, मिट्टी अथवा शुभ काष्ठका लिङ्ग अपनी रुचिके अनुकूल स्थापित करना चाहिये ।। 22 - 25 ॥