पिप्पलादने कहा- भूपाल ! अब में विपरीत शुक्रको शान्तिके लिये विधान बतला रहा हूँ, सुनिये। इस लोकमें शुक्र के उदयकालमें यात्राके आरम्भ अथवा | समाप्तिके अवसरपर शुक्रको एक चाँदीको मूर्ति बनवाये, उसे श्वेत मुक्ताफल (मोती) के साथ श्वेत चावलसे परिपूर्ण सुवर्ण, चाँदी अथवा काँसेके पात्रके ऊपर स्थापित करके श्वेत पुष्प और श्वेत वस्त्रसे आच्छादित कर दे। फिर इस वक्ष्यमाण मन्त्रका उच्चारण कर वह सारा सामान सामवेदके ज्ञाता (सस्वर गान करनेवाले) ब्राह्मणको निवेदित कर दे। (वह मन्त्र इस प्रकार है) 'सम्पूर्ण लोकोंके अधीश्वर! आपको नमस्कार है। भृगुनन्दन! आपको प्रणाम है। कवे! मैं आपको अभिवादन करता हूँ। आप मेरी समस्त कामनाओंको पूर्तिके लिये यह अर्घ्य ग्रहण करें। भारत जो मनुष्य शुक्रके विपरीत रहनेपर यात्रा आदि कार्योंमें इस प्रकार विधान करता है, वह समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है और अन्तमेंविष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। शुक्रकी वह पूजा जबतक माङ्गलिक पुष्पमाला, बड़ा, पूरी, गेहूँ और | चनाद्वारा सम्पन्न न कर ली जाय, तबतक धर्म, अर्थ और कामकी अभिलाषा रखनेवाले व्रतीको अपनी मनोरथ सिद्धिके लिये भोजन नहीं करना चाहिये ॥ 1-6 ॥
युधिष्ठिर ! इसी प्रकार मैं बृहस्पतिकी भी पूजा विधि बतला रहा हूँ। व्रतीको चाहिये कि वह सरसों, पलाश, पीपल और पञ्चगव्यसे युक्त जलसे स्नान करे, पीला वस्त्र पहनकर शरीरमें पीला अङ्गराग, चन्दन आदिका अनुलेप करे और ब्राह्मणद्वारा घीका हवन करावे। तत्पश्चात् मूर्तिको प्रणाम करके गौसहित उसे ब्राह्मणको दान कर दे। (उस समय ऐसी प्रार्थना करे) 'वाणीके अधीश्वर । आप अङ्गिरा-वंशियों के स्वामी हैं। बृहस्पते। क्रूर ग्रहोंसे पीड़ित प्राणियोंके लिये आप अमृततुल्य फलदाता हैं, आपको बारम्बार नमस्कार ।' कुन्तीनन्दन। सूर्यकी संक्रान्तिके दिन, यात्राओं में तथा अन्यान्य आभ्युदयिक कार्यके अवसरपर बृहस्पतिकी पूजा करनेवाला मनुष्य सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ॥ 7-11 ॥